कवि - आलोचक रामप्रकाश कुशवाहा जी ने लिखा-

डा.हरे राम सिंह वैसे तो स्वयं ही कई पुस्तकें लिख कर एक स्थापित नाम है ।। उनके समर्थ गद्य और धारदार आलोचना से मैं पूर्वपरिचित रहा हूं। उनके कवि रूप से मैं अपरिचित था । इसलिए जब उन्होंने अपनी कविताओं पर मेरे अभिमत और दृष्टि की अपेक्षा की तो मैंने स्वयं को उनकी कविताओं के प्रथम परीक्षक की भूमिका में पाया । पढ़ने पर उनकी कविताओं में हुए नए मौलिक प्रयोगों ने मुझे चौंकाया। मैं कविता में समूह लेखन को बहुत अच्छा नहीं मानता । उसको कुछ -कुछ सामूहिक नकल की तर्ज़ पर देखता हूं। हिन्दी में बिरादराना संस्कार के कारण और विकल्प में स्कूल राइटिंग का प्रचलन है । पेशेवर मीडिया बाजार प्रभाव के कारण एक खास रुचि और तरह के लेखन व ब्रांड बन चुके लेखकों को ही बेचने के दबाव में बार-बार चुनती और प्रकाशित करती है। इस कारण से न चाहते हुए भी अच्छे लेखक और कवि समरूप लेखन के शिकार होकर जुड़वा पैदा करने लगते हैं ।
क्योंकि बाजार ऐसी कविताओं और कवियों को संरक्षण प्रदान करता है इसलिए ऐसे ही कवि और लेखक मुख्य धारा के स्थापित रचनाकार मान लिए जाते हैं । लेकिन इस बाजार वाद का दुष्प्रभाव यह है कि ऐसा तर्ज़ या समरूप लेखन मौलिकता जनित काव्य-वैविध्य को हतोत्साहित करता है।
इसी दृष्टिकोण से हरे राम सिंह की अपने मन-मिजाज के अनुरूप लिखी कविताएं मुझे प्रशंसनीय लगीं।
            अपने जीवनानुभवों और दृष्टियों को कविता में व्यक्त करने के कारण हरे राम सिंह की कविताएं अभिव्यक्ति की निजता पा सकी है। उन्होंने मुझे अपनी कविताओं का परीक्षक बनने के लिए आमंत्रित किया था। उसका ब्लर्ब लिखते हुए मैंने पूरी तटस्थता के साथ उनके कवि के सकारात्मक पक्ष को शब्द देने की कोशिश की है जिसे अविकल नीचे दे रहा हूं।

       
*हरेराम सिंह एक सशक्त आलोचक होते हुए भी एक संवेदना-धर्मी ,भावुक किंतु अर्थपूर्ण और सांकेतिक प्रयोगधर्मिता वाले सुचिंतक कवि हैं । उनकी काव्य-कला में स्थापत्य की सजगता और अभिव्यक्ति की सहजता दोनों का समुचित मेल है ।
उनकी ' न्याय माँगती मूर्तियाँ ' कविता की काव्य-कला को ही देखें तो कवि ने बेरोजगार प्रतिभाओं की उपेक्षा को पथराया हुआ जीवन न कहकर पत्थर से बनी मूर्तियों का ही मानवीकरण कर दिया है । इससे न सिर्फ लीक से हटकर सांगरूपक बना है बल्कि कविता में भाव और संवेदना की अनेक अर्थ-गर्भी छटाएँ और संभावनाएँ शामिल हो गयी हैं ।
         संग्रह में शामिल अनेक कविताएँ विषय-व्यंजक और विचार-परक भी हैं । अनेक ऐसी हैं जो हरेराम का प्रगतिशील चेतना और नागरिक हस्तक्षेप का कवि होना सत्यापित करती हैं ।
     'रास्ते तो मिल जाएँगे ' कुल 93 कविताओं का संग्रह है । इसमें शामिल अधिकांश कविताएँ आत्माभिव्यक्तिपरक है किंतु इन कविताओं का 'मैं' बहुस्तरीय और बहुआयामी है । निजता के वैयक्तिक से लेकर निर्वैयक्तिक और वृहत्तर सभी रूप देखे जा सकते हैं । रागात्मक तादात्म्य और संवेदनात्मक परकाया प्रवेश इन कविताओं को मर्मस्पर्शी अभिव्यंजना देता है । ' एक नागरिक' कविता का 'मैं ' ऐसा ही एक संवेदनाधर्मी वृहत्तर 'मैं' है जो दरअसल कवि के संवेदनात्मक विस्तार और जनजीवन के प्रति गहरे जुड़ाव; नैतिक कर्तव्य-बोध और लोकतांत्रिक राष्ट्रीय चेतना एवं समर्पण का परिणाम है । 'जब भूख कोयले को देखकर शांत हो रही थी/उस वक्त मैं चोर बना खड़ा था/रेलवे थाने में (पृष्ठ 25) जैसी पंक्तियाँ ऐसी ही भावभूमि पर संभव हुई हैं ।
       कविता के कलात्मक वैशिष्ट्य , व्यक्तित्व , स्थापत्य , शिल्प और अवधारणा पर विचार करें तो हरेराम एक कलावादी कवि होना पसंद नहीं करते । यद्यपि उनकी सहज शिल्प वाली कविताएं भी शिल्प को लेकर उनकी गहरी मनोवैज्ञानिक और संवेदनात्मक समझ का पता देती हैं । उनकी दृष्टि में अनुभूति-प्रवण होना ही किसी कविता के कविता होने की मुख्य शर्त है । 'पटना आँखों में ' कविता की ऐसी पंक्तियाँ-"उसने मुझसे कहा/पूरा पटना आप ही का न है ! मैंने कहा-/मेरे लिए पूरा पटना/आप ही हो ।" उनकी रागात्मकता और अनुभूति प्रवणता के साथ हरेराम की कविताओं के संवादी होने का भी पता देती हैं । बतरस उनकी कविताओं का एक अतिरिक्त अंत:प्रवाही गुण है जो ' रास्ते तो मिल जाएंगे ' संग्रह की लगभग सभी कविताओं को रोचक और पठनीय बनाता हैं । प्रगतिशील और प्रतिबद्ध सामाजिक चेतना के साथ प्रगीत और छंद सृजन की सिद्धि इस संग्रह की कविताओं को विशिष्ट बनाती ही है । 

 रामप्रकाश कुशवाहा

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