मैं रक्तबीज हूँ!
मैं रक्तबीज हूँ!
हरेराम सिंह की कविताएँ
जिंदगी बहुत खूबसूरत है लोग अगर जीने दें
गर जीने न भी दें तो यह कमाल की है!
१.बच्चों ने आज देखा
बगुलों का झुंड़ उतरा है
पसरे धान खेत में मच्छी खाने
और निकलने ही वाला है ओस की बूंदें
धान के पत्तों पर जमें हैं मोती जैसे
बडा सुहाना सवेरा दूर दू तक तक हिम जाला
कहीं नीम के पेड़ खडे कहीं महुए बाँस
कहीं बालकों के झुंड खडे
तो कहीं बालिकाओं का दल चला
चद्दर गमछा टोपी बांधे डलिया में चूरा भेली फांके
कितना अद्भुत कितना कोमल पर ये क्या ?
देखो देखो -धन खेत से कोई आ रहा
हाथों में बगुले ला रहा कुछ काले काले क्वाक हैं
चोंचों में उनके नाक हैं
कितना निर्दयी कितना धृष्ट ये मानव भी न
देख बालक कांप उठे
ठरे सहमें खलिहान से चुप चाप घर चले
और जोर जोर से रोने लगे
माँ ने पूछा क्या हुआ?
बच्चों का क्रंदन और बड गया !
२.किस गुनाह की सजा मिल रही?
किस गुनाह की सजा मुझे मिल रही है रोज ब रोज
मुल्क तो अपना है,घबरये हुये लोग क्यों मिल रहे रोज ब रोज
सबको चैन से जिने का हक़ है आपको भी हमें भी
फिर भी बेचैनी क्यों बड़ती जा रही सभी का रोज ब रोज
लगता है सियासत की चाल जनता के साथ नहीं
इसीलिये हल्ला हो रही हर तरफ रोज ब रोज
पाकिस्तान हमसे डरे क्यों,हमारी शराफत से
शराफत से कभी कोई डरा है कि पढें पाठ रोज ब रोज
यह सही है यह मुल्क है बुद्ध कबीर का और नानक का
पर क्यों भूल रहे हम राम कृष्ण के धनुष वाण व सुदर्शन को रोज ब रोज
क्या फर्क पडतता है इन दिनों कि देश का प्रधान कौन है?
जब जनता फकाकशी की जिंदगी गुजर बसर कर रही रोज ब रोज
३.गुजरे हुए एक जमाना हुआ
गुजरे हुए एक जमाना हुआ
फिर भी रीता क्यूँ
ख्वाबों की चादर तो खूबसूरत थी
फिर भी रीता क्यूँ
ऐसा नहीं था कि सबकुछ ख्वाब थी
फिर ख्वाब टूटा क्यों
क्या यह सही नहीं है
मिलते बिछुडते पल में
कोई लँबे अंतराल के लिए अपना नहीं होता
४.सजा मिल रही
न जाने किसी बात की सजा मिल रही है
गम व सितम की दवा मिल रही रही है
किसकी ख्यालों में डुबा हुआ था
कि दर्दे पैगाम की सजा मिल रही रही है
न चाहकर भी गंवाया अनमोल मोती को
मंजिले कब्र की चाहतों की सजा मिल रही है
कैसे कहूं वे अब भी अपने हैं
दूसरे के हो ग ए ,होने की सजा मिल रही है
शाम हुई सूरज डुबने को है
खाली हाथ लौटने की सजा मिल रही है
५.मेरे अहबाब
मेरे मित्र मेरे अहबाब
यह दौर तिलिस्मों से भरा है
जहाँ किसान के बेटे हार्ड वर्क कर रहे है और सफल भी हो रहे हैं
और दूसरी तरफ व्यवस्था उन्हें मजबूर कर रही है
न जाने कितने दिन बीत गये
और न जाने कितने दिन बितेंगे
और तुम हो कि आज कल करते रहे
कभी पकडा नहीं आज को न कल को
और वे चुपके से निकल गये
बिन बताये जिसकी बरसों से इंतजार थी
कैसे बताऊँ क्या हुआ है
जिसे लोग कहते नहीं प्यार हुआ है
फिर वो मुझसे दूर है क्यों
ऐसा मुझे लगता है जैसे दूज का चाँद हुआ है
ईद है आज मना लो खुशिया
आओ गले मिल लें एक बार
तन्हाँ जीवन हुआ है
मईया मोरी मैं क्यों होली मनाऊं
मैं तो ठहरा अहिर का छोकरा
गईया ही चराऊं ,मैं क्यूं होली मनाऊं?
होलिका तो अबला ठहरी, मैं क्यूं उन्हें जलाऊं?
मईया मोरी मैं क्यूं होली मनाऊं?
६.किसकी सीता चोरी हुई?
किसकी सीता चोरी हुई
किसके राम आये
किसका वनवास हुआ
कौन सरकार बनाये?
तुम भी कम थे कहां बाबू?
जगह जगह नफरत फैैलाये
तुम भी थी कमाल की बबुनी
सिरिया हो चली आई
७.काश!हम इंसान होते।
न हम हिंदू होते,न आप मुसलमान होते
काश!
हम भी इंसान होते,आप भी इंसान होते
न हम मंदिर जाते,न आप मस्जिद जाते
काश!
हम आपके घर जाते,आप हमारे घर आते
न सुर्य हमारा होता,न चांद आपका होता
काश!
सुर्य चांद आपका भी होता हमारा भी होता
न हमारा ईश्वर होता,न आपका ख़ुदा होता
काश!
आप हमसे मुहब्बत करते,हम आपसे मुहब्बत करते
८.धीरे-धीरे
धीरे धीरे भूलने लगा हूं सब कुछ
तुम्हारी याद तुम्हारी बात
अब रह रहकर हमें सताती नहीं
रात में चुपके से रुलाती नहीं
यह सच है!
धीरे धीरे भूलने लगा हूं सब कुछ
तुम्हारा चेहरा,तुम्हारे लब
तुम्हारे गेंसुओ की छांव
और भूलूं भी क्यों नहीं?
आपने खेला विशवास से खेला
मुझे नरक में ठेला
मेरे संग आपने खेला
फिर क्या?धीरे धीरे भूलना था
भूल कर भी घुलना था
घुलते हुये घुलकर भूलकर मरना था
जी कर भी सौ सौ बार मरना था
९.पलकें
पलकें झुकाकर
नर्म उंगलियों से छूकर
कुछ कहना चाही वह
किंतु कह न पाई!
यही कुछ कुछ बाद में
महसूसा
तबतक वह हमारे बीच नहीं थी
हमने अपनी जिद में
उसके प्रेम को मार दिया था
हम पुरुष ऐसे समझ
नहीं पाये
स्त्री के प्रेम को
उसकी विराटता को!
वह जब जब मेरे पास रही
लगा वह सिर्फ मेरी है
किंतु जाने के बाद उसने एक कौल भी करना मुनासिब न समझी
उसकी बुद्धि चातुर्य पर मैं हैरान रहता हूँ
वह किसी की आज बीवी है.
जुल्फों के गीत कब तक?
गीत हो किसान मजदूरों का
उसी में समाएँ मिलेंगे
परिश्रम से उपजे प्रेम
जीवन की खुश्बू
सुख दुख जीवन के
जहाँ केवल ख्वाब जिंदगी नहीं है
बल्कि खटमिठ अफसाना है जिंदगी
१०.कल चाँद आसमां पर उतरा था
कल चाँद आसमां पर उतरा था
कुछ लोग कहते थे
बहुत दिनों बाद निकला था
मैंने पूछा क्यूँ
जवाब मिला-दूज का चाँद कैसा होता है?
मैं क्या कहता?
यही कोई दूपला पतला,कमजोर
नाजुक ,कोमल और
बेजान सा
यह अलग बात है
कि उसके इंतजार में हम खुशी मनाते हैं
फिर सोचता हूँ क्या?
सीमा पर लड रहे हमारे
मुल्क के बच्चे किसी चाँद से कम थे क्या?
जिसके जनमने पर ईद जैसी खुशी आई थी घर!
११.माँ
माँ के आँसू छलक पडे थे
जैसे बरसों की साध क्षण में पूरी हुई
फिर उसने फफकते हुए कहा
"तुम मेरे ही पुत्र हो न
" और ज्योंहिं मैंने "हाँ"कहा,
लगा मैं घीर गया हूँ
१२.कम जिया
अबतक जो जिंदगी जिया
बहुत कम जिया
जिने की तमन्ना
खींचकर ले ग ई
कहाँ से कहाँ?
फिर भी लगा
कि अभी बहुत कम जिया
यहीं थोडा थोडा जो जिया
कुल मिलाकर बहुत जिया
फिर भी न जाने क्यों
ऐसा लगता रहा
मैंने कुछ नहीं जिया
जबकि सच्चाई रही यह
कि मैंने भी बहुत कुछ जिया
मुस्करा कर जिया
रोकर जिया
फिर भी जिया!
१३.गुजरे हुए एक जमाना हुआ
गुजरे हुए एक जमाना हुआ
फिर भी रीता क्यूँ
ख्वाबों की चादर तो खूबसूरत थी
फिर भी रीता क्यूँ
ऐसा नहीं था कि सबकुछ ख्वाब थी
फिर ख्वाब टूटा क्यों
क्या यह सही नहीं है
मिलते बिछुडते पल में कोई लँबे अंतराल के लिए अपना नहीं होता
१४.मजहब
जिंहे मुल्क से ज्यादा मज़हब प्यारा
उन्हें ख़ुदा खैर करे!
जिन्हें इस मिटी से प्यारा
वह मिटी लगे
जहां वे पैदा नहीं हुये
उन्हें भी ख़ुदा खैर करे
जिनके दिल में नफरत के सोले
अपने वालिद के प्रति
उन्हें भी ख़ुदा खैर करे
१५.आपके नेता
आप अपना नेता कहते हो
जो तुम ही पर थप्पड चलाता है
गुरुर में
और तुम्हारे ही खिलाफ
उतारता है पुलिस
डंडे की चोट पर खदेडने हेतु
आंसू गैस का गोला दागवाता है
ताकि हडताली चौक से फौरन तुम भागो
तुम अपने को कहो
शिक्षक आंगनवाडी सेविका
चाहे जीविका की दीदी
या कंप्यूटर आपरेटर
और मांगो अपनी असली मेहनताना
वह टाइम पास के अलावे तुझे थुरवाता है
अहंकार में
स्कूल में घुसकर थप्पड चलाता है
अभद्र शब्द बोलता है
क्योंकि वह जनता का छद्म राजा है जिसे तुम
भूल से समझ लिये हो-लोकतंत्र का प्रहरी
१६.पंचकूला की सड़कें
पंचकूला की सडकें
बहुत भायी थीं
हरे भरे पेड ,साफ सुथरी गलियाँ
चित को आराम दी थीं
रात को रैदास का घर टिका था
अपने घर की तरह
और एक जोडी सुंदर जुता
खरीदकर लाया था
पंचकूला से निशानी के तौर
किंतु बारिश की बूँदे पडते ही बरबाद हो ग ईं
राम रहीम के बलत्कार के आगे
पूरी पंचकूला बरबाद हो ग ई
क्या पंचकूला इतनी कमजोर है ?
कि एक ढोंगी बाबा के आगे घुटने टेक दी
गोरी छरहरी पंचकूला
सच सच बतलाना
तुम कब से लूट रही थी पंचकूला!
तुझे कौन कौन न लूटा
ओ मेरी प्यारी पंचकूला!
१७.बेबसी
तुम कितने बेबस हो मित्र
कि अन्याय पर अन्याय
एक एककर होते जा रहे हैं
और तुम हो की चुप हो
हाँ,मैँ कौन अच्छा हूँ मित्र
कि देखता रहा अधिकारियों की ज्यादती
और सुनता रहा लंबे लंबे भाषण और प्रवचन
यह जानते हुए कि ये सब के सब चोटे हैं
इनसे न्याय की उम्मीद बेकार है
फिर भी चुप रहा
गवाह हो सकता था मगर नहीं हो सका
और तुम हार गये
और मैं बचकर भी गुनाहगार बन गया
लोगो की निगाहो में गिर गया
और तुम गिर कर भी उठ गये!
१८.गलियां बनारस की
बनारस की गलियों में मेरी पत्नि का पाँव
चलते चलते कभी थक गया था
अभिलाषा इस शहर को देखने का
पाल रखी थी छोटपन से
कि बनारस शिव की नगरी है
अनार्य देवता की नगरी
संकटमोचन हनुमान की नगरी
जो सीता माता के लिए लंका दहन कर दिए
आज बनारस की लंका पर उसे भी शक हुआ
कभी कुशवाहाकांत की चिंगारी
अंग्रेजो को नहीं भाई
आज वहीं लडकियों की आजादी पोंगों को नहीं भा रही
मेरी पत्नि रो रही-
अपने निर्णय पर
कि गंगा की घाट पर
कामुक निगाहों से
उसे घूर रहा था पंडा
आखिर क्यों जिद की थी जाने के लिए बनारस
यही सोच रही है-
बार बार
कि जहाँ स्रियों की इज्जत नहीं करते बनारसी
जहाँ बाँड सांड बन घूमते हैं गली गली
१९.लुत्फ
आइए थोडा लुफ्त उठा लें
आइस्क्रीम और चकलेट का
थोडा बरगर पीजा हो जाए
थोडा लिटी चोखा
मित्रो!
हर जगह है दोखा.
तो आइए दो पल जिंदगी जी ले
रोशनी से खेल लें
पत्तियों से बतिया लेँ
फुहारों का आनंद ले लें
पत्नि और बच्चों से गपिया लेँ
मित्रो!
हम सभी को एक दिन वहाँ जाना है
जहाँ किसी को नहीं जाना है!
२०.तुम्हारे चेहरे
तुम्हारे चेहरे को कल भी पहचानता था
और आज भी
कि तुम कल क्या थे
और आज क्या हो!
तुम निर्लज हो
बेहया हो
इतना कि भरे बजार तुम्हें नंगा किया गया
और अपने स्वार्थ के लिए
उन्हीं की दूम में तेल लगाते रहे
बताओ?
तुम्हारे प्रतिनिधित्व पर
कैसे कोई यकीन करेगा?
बताओ ?
तुम अपने दाग को कब धोओगे?
दागदार आदमी !
तुम्हीं बताओ ?
तुम्हारे दाग की गहराई कितनी है?
अच्छा मत बताओ!
लोग आज नहीं तो कल
जरुर जान जाऐंगे
कि तुम मिट्टी के टीला की शक्ल में अजगर हो
दूर से देखने में
मगर तुम मारे जाओगे!
२१.ग़म
गम न जाने तेरे कितने हैं रूप
एक जाता है तो दूसारा आता है
जैसे तय कर लिया हो
कि बारी बारी आऐंगे जरूर
शक्ल भले हो अलग
लेकिन रूलाऐंगे जरूर
गम प्रेमिका से बिछड़॒ने का हो सकता है
पत्नी का जाने का हो सकता है
माता पिता का मुँह मोड़ लेने का हो सकता है
भाई का न बोलने का हो सकता है
बहन का घर छोड़ ससुराल जाने का हो सकता है
या अपने प्रिय साथी का खोने का हो सकता है!
यह गम
जिंदगी को कभी अनुभव से सजाता है
कभी धकेलकर उत्साहहीन बनाता है
और कभी दृष्टिसंपन्न भी!
पर गम तो आता है
और वह जाता भी है.
२२.चांद सितारे
चांद सितारे अमीरों के लिये नहीं बने हैं
वह तो बीजली की रौशनी में जिया करते हैं
जिनके पास आंगन है अपना
वह भी कुछ जिंदगी जिते हैं
आदमी का खून उसके क्या मुंह लगा
कि आदमी को खाना उसकी आदत बन गई
जब आदमी उसे घेरने लगे
तो आदमी पर वह गुर्राने लगा
सूरज की किरणों में न जाने दम था कितना
कि अंधेरे पर भारी रही हरदम
एक जमाना ऐसा भी
जहां खल ही ठहाका लगा रहे!
किस्मत के आगे हाथ पसारने से क्या मिला है?
और अबतक किसी को क्या मिला है रोने से?
रोना छोड़ो धोना छोड़ो
किस्मत को मारो गोली
और किस्मत बोना शुरू करो!
न जाने कब से तुझे पुकारता रहा!
और तुम हो कि ध्यान ही नहीं दिये मेरी तरफ!
हार कर चुप हो गया और नींद आ गई
नींद में आकर तुने झकझोरा
पर,मैं अंत अंत तक जग नहीं पाया!
फिर लौटूँगा
तुम्महारा सम्मान बनकर
तुम्हारा मान बनकर
जिस तरह हवा जीवन देती है
ठीक उसी तरह
जीवन दूँगा।
२३.वजूद केवल तुम्हारा नहीं!
टूटा हुआ शीशा है
टूटे हुये खिलौने हैं
इसे लेकर क्या करेंगे?
न चेहरा देख पायेंगे
न खेल पायेंगे सही सही
फिर क्या करेंगे
और कहां जायेंगे
बच्चों के संग खेलेंगे
चिडियों संग गायेंगे
और कहां जायेंगे?
नदी संग बतियायेंगे
पहाडों संग खायेंगे
गंगा में नहायेंगे
फिर मत पूछना कहां?
पटना,बक्सर,बनारस या इलाहाबाद?
वह मुझ पर छोडना कि कहां?
अगर तुम्हें ही तय करना है
फिर मत पूछना
कि कहां पर नहाना है
कि कहां पर खाना है
और तो और
क्या खाना है और क्या पहनना है
कितना बोलना है
और कितना चुप रहना है
वजह,मैं कवि हूं
और तुम मेरे विधाता नहीं.
२४.बहकी बहकी बातें
बहकी बहकी बातें क्यों होने लगीं
सूरज ढलने लगा ,शाम होने लगीं
पल भर की मुलाकातें,झुकी झुकी सी आंखें
कुछ कहने लगीं
सूरज ढलने लगा,शाम होने लगी
पल भर की मुलाकातें,ताजी ताजी सांसें
कुछ कहने लगीं,बारिश होने लगी
दिल तड़पने लगा,मैं भीगने लगी…
पत्तों की सरसराहट,कदमों की आहट
चैन छिनने लगी,मैं भीगने लगी...
हवा चलने लगी,मैं डरने लगी
सूरज ढलने लगा,शाम होने लगी..
२५.अधिकार
सोचा था
पढूंगा लिखूंगा
और काम आउंगा देश के
सोचा था यह देश हमारा है
ये धरती हमारी है
यहाँ के बच्चे हमारे हैं
सोचा था यहां के फूल बगीचे
नदी पहाड झरने
सब के सब हमारे हैं
ऐसा बचपन में सोचता था
वाह!कितना सुंदर सोचता था
अब कुछ बडा हो चला हूं
यही वह देश है यही वह धरती है
यही नदी तलाब पहाड व झरने हैं
पर वे,अब हमारे नहीं है
सब के सब किसी और के हैं-
जो हमारे नहीं हैं
२६.लाभ के देवता
हर जगह मौजूद हैं लाभ के देवता
आप जहां भी जाइए पैर पसार कर बैठे मिलेंगे
बडी इत्मीनान से
जैसे कोई पहुंचें साधु हों
बहुत बडे ज्ञानी हों
ठीक वैसे ही होते हैं लाभ देवता
उनके लिए इज्जत,ईमानदारी,देशभक्ति
फालतू की चीजें हैं!
वह मौका पाते मुल्ला के पौकेट से निकाल लेते हैं
रंगीन नोटे
और पूरे आश्वस्त करके भेजते हैं घर
कि तनिक चिंता की बात नहीं है
हो जाएगा पूरा काम
तो इतने अच्छे होते हैं लाभ देवता
कि जो काम किसी से नहीं होते
वे स्यंम् करते हैं
और चडावे में लेते हैं रंगीन
महात्मा गांधी की छाप वाली पट्टी
तो ऐसे होते हैं लाभ के देवता
अगर रुष्ट हो गये तो बदनाम कर देगे
इसलिये हो सके जितना
उतना लाभ देवता को खुश रखें
पत्नी के मुलायम हाथों से बने पुरी हलवा
आप जब जब खिलाऐंगे
तब तब लाभ देवता
निशचित वरदान देंगे
अमरत्व का!
२७.पर्वतों के शिखर
पर्वत के शिखरों से
नदी ने पूछा था -
तुम मेरे कौन हो?
सखा,हित या मेरे पूर्वज?
शिखर ने मुस्कुराते हुए कहा था नदी से
कि तुम मेरी सहचरी हो मेरी खूबसूरती
नदी इस बार उसके उत्तर पर मुस्कुराई थी
लगा उसे थोड़े समय के लिये कि
कहीं गलत तो कुछ नहीं पूछ बैठी!
तब तक पर्वत के शिखर दूबारा नदी से पूछा-
बताओ नदी!तुम्हारे मन में ये बातें आई कैसे?
नदी सकुुचाते हु़ये न जाने क्यों चुपी साध गई!
२८.यही है जिंदगी
सब कुछ देखने के बाद
कह दे कि कुछ नहीं देखा
देखा भी तो वह नहीं देखा
ऐसे ही फरेब से भरी जिंदगी जीते हैं लोग
और कहते हैं खूब बहूत खूब हैं जिंदगी
जैसे जीते हैं जिंदगी वे ही लोग
बाकी तो मरे-कटे की तरह जीते हैं जिंदगी
दो चार को छोड़कर शेष भला क्या जीते हैं जिंदगी
झूठ,बेईमानी,धोखा और बदनीयत में पगे लोग
आराम से जीने लगे हैं जिंदगी
और सच्चाई के रास्ते वाले लोग
हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं
जैसे उनकी जरुरत ही नहीं
न उन जैसों की
यहीं है जिंदगी
और ऐसे ही हैं लोग
बदलने को तो बदला बहुत कुछ
पर,बदले नहीं आज भी कई लोग
यहीं जिंदगी है !
और यहीं जिंदगी की अफसाने
कुछ अपने हैं -कुछ दूसरे और कुछ बेगाने
२९.दहकते सवाल
दहकते सवाल हमीं से पूछ रहे सवाल
कि अपने घर को छोड़कर
क्यों गये उनके घर जिन पर भरोसा
कभी जमी ही नहीं!
आखिर क्यों गये उनके घर?
जबकि तुम अच्छी तरह जानते थे कि वेलोग
कभी भी बराबरी के सिद्धांत में यकीं नहीं किये
न ही उनके जेहन में यह बात उभरी कि
इंसान इंसान एक ही जाति हैं
फिर कैसे चले गये उनके घर ?
क्या यही सोचकर कि वे बदल गये होंगे
बहुत बहुत
पर वाकई क्या वे बदल गये?
गर नहीं तो फिर क्यों गये उनके दरवाजे?
३०.कुत्ते
कुत्ते एकबारगी कहां से पैदा हो गये
इतने सारे?
ग्रामवासिनी भारत माँ सोच रहीं
कि काले काले झबराले कुत्ते
नुकीले दांतों वाले कुत्ते
कहां से आ गये ?
इतने सारे?
सोच रहीं तरु तल निवासिनी भारत माँ
कि मार खदेड़ा था देश भक्तों ने गोरें कुत्ते को
फिर ये नियत के बुरे कुत्ते
वह भी काले काले कहां से घुस आए आंगन?
कर दिये जुठे हांडी बर्तन
सब नाश दिये
लहू लूहान कर दिये?
स्वयं की आंखों पर यकीन नहीं हो रहा
इन कुत्तों का काला रंग देखकर!
रो रहीं भारत माँ!
अपने ही आंचल से छुपा रहीं शरदेंदु मुख
शर्म से नित झुक रहीं
गौरवशालिनी भारत माँ!
अंधेरे के खिलाफ
३१.माना कि अंधेरा गहरा है!
माना कि अंधेरा गहरा है
बहुत गहरा...
इतना कि इससे पार पाना आसान तो नहीं,
पर क्या जाता है एक प्रयास करने से,
आओ एक दीप जलाएं
बार बार माचिस की तिल्ली रगड़कर
उसकी चिंगारी बुझने के बाद भी एक सब्र तो रह ही जाता है दिल में
कि कम से कम एक बार तो प्रयास किया
अंधेरे के खिलाफ!
और अंधेरा कांप जाता है हमारी हिम्मत देख
कि कहीं दुबारा में हम सफल न हो जाएं ?
और इस बार सफलता के बहुत निकट होते हैं हम
और हमारा दुबारा प्रयास
जीत का संकेत
कि हमें अब थोडी सी करनी है और मेहनत!
३२.चोरोपख्यान
चोर चोर चोर
दिन में हुआ हल्ला!
सभी लोग हैरान!
पहले तो अक्सर रात में चोर आते थे?
पर दिन में चोरी !
यह पच नहीं पा रही थी बात लोगों को
सभी अपने अपने घरों के दरवाजे बंद करने लगे!
जैसे उनके घर भी चोर घुसने वाले थे?
पर चोर सीधे नहीं आए घर!
और देश लुट गया!
दफ्तरें लुट गईं!
लोग लुट गए!
और छाती पीटने की आवाजें भी नहीं आईं!
सीने पर लगा एक अजीब भार!
जैसे किसी ने एक नहीं,कई नोके
खतरनाक संगीनों की
दाब के साथ रख दी हो!
और लगा
एक खालिस आवाज मुंह की
उनकी ही जान ,लेने को काफी है!
३३.ओ राघोपुर वाली!
हर बार कुछ कहना चाहता हूं,पर कह नहीं पाता
लबों पर पर आती है खुश्बू बनकर तेरी याद
शब्दों में ढलने से पहले पिघलकर मोम की तरह
न जाने कैसे उड जाती है हवा बनकर
और कह नहीं पाता हर बार वह बात
जो बरसों से मेरी जेहन में है और वह भी
सिर्फ व सिर्फ तुम्हारे लिये कतकी पुनो की
विशेष रिमझिम रोशनी जैसी दूधियाई!
पर क्या कहूं तुम यह जानते हुए भी
कि मैं कुछ कहना चाहता हूं पर कह नहीं पाता
कि स्थिति को भांपते हुए भी मुझे बोल नहीं पाती
कि बोलो बोलो,जो कहना चाहते हो,कह नहीं पाती
शरम के मारे गड़ी जाती हो तुम भी
और तुम्हारे भी लब हल्का थरथराते हैं
पर,कह नहीं पाते,बस आँखें सब कुछ कह देती हैं
वह सभी,जो तुम कहना चाहती हो
और जो मैं कहना चाहता हूँ कि हो न हो
हम दोनों मिलेंगे राघोपुर के कछारों पर
बरसात के दिनों में नौका पार करने के बहाने
चाँदनी की चमक में निहारते एक दूजे को!
३४.विदकनारायण
कल सपना देखा
सपने में काला भैंसा देखा
बालकों को स्कूल में भागते देखा
शिक्षकों को कांपते देखा!
किसी ने जोर दिया -
"मार लाठी से"
भैंसा और बिदक गया
जैसे आदमी की भाषा वह जानता है
लगा तबाही मचाने
यहां तक कि शिक्षकों को ताडने लगा
फिर बैठ गया
एक गद्देदार कुर्सी पर
और लगा डाटने
शिक्षक करवद्ध कर विनित भाव में खडे हो गये
वह पूछने लगा
बच्चे को क्या पढाते हो?
सब शिक्षक चुप
जैसे लकवा मार गया हो
फिर कहना शुरू किया-मैंने ही मिहनत किया है इसे हेडमास्टर बनाने के लिये
बोलो जी है कि बात नहीं?
फिर बोला -उन लोगों की चाल समझो
शिक्षक लोग ने कहा -किन लोगों की?
अरे बुडबक घास कैसे शिक्षक बन गया?
इतिहास नहीं पढा है?
तैमूर की औलाद?
शिक्षक थरथराने लगे.
तभी बच्चों में हुडदंग मच गयी
एक और सांड धमक आया स्कूल गेट के पास
खतरनाक!
लगा सिंग चलाने.गेट हिलाने!
इसी बीच किसी ने चिल्लाया
"भागो रे!भागो!"
स्कूल में केवल सांड ही सांड
भैंसा ही भैंसा"
तभी एक बच्ची कि चीख सुनाई पडी
और हृदय कांप गया!
३५. वे नाराज होंगे!
जब हम ओबीसी की बात करते हैं,वे नाराज हो जाते हैं!
जब हम एस.सी,एस.टी की बात करते हैं वे नाराज हो जाते हैं!
जब हम कहते हैं कि यहीं सर्वहारा हैं
तो वे कहते हैं तुम्हारा कंसेप्ट क्लीयर नहीं,तुम कम्युनिस्ट नहीं!
मैं हैरत में रह जाता हूं कि जब एस.सी,एस.टी,ओबीसी कम्युनिस्ट नहीं हैं
तो क्या सवर्णों को कम्युनिस्ट मान लिया जाए?
मैं विशुद्धतावादी नहीं,कि केवल आर्थिक आधार पर वर्ग को माने जाएज
और सवर्णों को सर्वहारा मानकर मार्क्स के विचार को घोल-माठा कर दूं
इसलिए वे हमसे नाराज हैं!
बार बार जो जातिवादी हैं वे ही लगाते हैं दलित पिछड़ों पर आरोप जातिवादी होने का,
जो सर्वहारा नहीं हैं वे ही सर्वहारों की पार्टियों के लीडर हैं
इसलिए सर्वहारा भागते हैं कोसो दूर कम्युनिस्ट पार्टियों से
क्योंकि उनका खेवनहार उनका मस्तूल डूबाने पर लगे हैं
जो मुंह दूध से जला है वह माठा भी फूंककर पीता है
यह छोटी सी बात नहीं समझ पाते हैं कम्युनिस्ट
और हो जाते हैं नाराज
फिर आप ही बताइए कम्युनिस्ट का मतलब
एस.सी,एस.टी ,ओबीसी नहीं तो क्या होता है?
क्या कम्युनिस्ट का मतलब सवर्ण होता है?
और यह कि लंपट सर्वहारा कौन होता है?
और कौन होता है छद्म कम्युनिस्ट
मुझे बताने की जरुरत नहीं है!
इसलिए वे मुझसे नाराज हैं!
३६.सावन बरसे
सावन बरसे ,झुम झुम बरसे
इतना बरसे कि मन बरसे
लव कुश हरसे
सीता हरसे
पूरी बाल्मीकि की कुटिया हरसे
बरसे सावन,मन हरसे
अयोध्या हरसे,पावन बरसे
राम जी का हृदय हरसे
हरसे जगत सावन बरसे
राम सिया के प्रेम
उठ उठ लहरे
सावन बरसे सावन बरसे
जीत गये नर के मन हरके
सावन बरसे मन हरसे
३७.जुल्म की कहानी
जुल्म की कहानी इतनी भयावह है
कि प्यार की कहानी भूल जाता हूँ!
दिल तो चाहता है जरा मुस्कुराऊँ!
पर चाहने भर से क्या होता है?
कह लो मुझे जीने नहीं आती जिंदगी
और यह यह सच भी है !
पर ,उतना सच नहीं जितना तुम कह रहे!
न खुलकर हँस पाता हूँ
न खुलकर रो पाता हूँ
ऐसा बना दिया गया हूँ
कि खुलकर कुछ कह न पाता हूँ
आँखें चुरानी पड़ती हैं-
यहीं हैं मजबुरियाँ!
कई सच सीने में है दफन
पर,कह नहीं पाता हूँ!
न जाने कब से तुझे पुकारता रहा!
और तुम हो कि ध्यान ही नहीं दिये मेरी तरफ!
हार कर चुप हो गया और नींद आ गई
नींद में आकर तुने झकझोरा
पर,मैं अंत अंत तक जग नहीं पाया!
३८.खुश होने के लिए
खुश होने के लिए काफी होती है
इंसान की इंसानीयत
ठोकर खाकर भी संम्भलने में एक अलग मजा है
अपने को गवाकर बचाने का सुख!
आनंद की अनुभूति का खजाना जस!
यह सही है कि मेरे दुश्मन मुझसे नाराज हैं
तो यह भी सही है कि मैं भी खुश नहीं हूं उनसे,
उनके कृत्यो से!
कल एक लड़का चौराहे बीच पगलाकर मर गया
भूख से पागल होता है आदमी
यह देख डर गया!
३९.विष-वृक्ष
खुश होने के लिए काफी होती है
इंसान की इंसानीयत
ठोकर खाकर भी संम्भलने में एक अलग मजा है
अपने को गवाकर बचाने का सुख!
आनंद की अनुभूति का खजाना जस!
यह सही है कि मेरे दुश्मन मुझसे नाराज हैं
तो यह भी सही है कि मैं भी खुश नहीं हूं उनसे,
उनके कृत्यो से!
कल एक लड़का चौराहे बीच पगलाकर मर गया
भूख से पागल होता है आदमी
यह देख डर गया!
न जाने क्या हो रहा है?
ख़ुद से सवाल करना मूर्खता-सा है!
जैसे अपने ही घर के मालिक से कुछ पूछना।
रामचंद्र गुहा से लेकर श्योराज सिंह बेचैन तक,
क्या कुछ ठीक हो रहा है?
धर्म के रट्टू तोते इस खूबसूरत दुनिया को कब्रगाह बना दिये हैँ.
ये जहाँ भी रहते हैं और जिस भी रुप में रहते हैँ
वे इंसानियत के खिलाफ विष-वृक्ष रोपते हैं.
न्याय कहां?
न्यापालिका घुट रही है!
संसद किसे भेजें
जनता घुट रही है!
धूप इतनी कड़ी
कि घर से निकलना मुश्किल,
ऐसी मुश्किल घड़ी में
घड़ी घुट रही है!
४०.वे गूंगे बहरे नहीं हैं!
वे गूंगे बहरे नहीं हैं
वे सुनते हैं साफ साफ!
हाँ,सुने हुए को दबाकर कैसे रखते हैं काँख में
वे खूब जानते हैं!
वे जानते हैं किसी चीज को खींचकर ले जाना
जबतक आम आदमी कराहकर दम तोड़ न दे
या थककर हार न जाए!
इसलिए सिस्टम से आने को धमकाते हैं!
सिस्टम कठपुतली है उनके लिए
नीचे से ऊपर तक उन्हीं का राज है
इसीलिए कहते हैं -कोई कहाँ बचकर जाएगा हमसे?
उनसे लड़ने का तरीका अलग है
वजह,हमारी जाति अलग है.
हम महुए की छाल पीते हैं
वे हमारी खाल खींचते हैं
४१.प्रेमिका के नाम
न जाने क्यों प्रेमिका के लाल लाल,टहटह लाल होठ
खींचते हैं अपनी तरफ
जबकि लोग इस उमर में
यानि पैंतीस के बाद में कतराते हैं अक्सर
नाम लेने से प्रेमिका के?
जबकि उसी प्रेमिका पर लट्टू रहते थे दिन रात?
और वहीं प्रेमिका कैसे बेकार हो गई या कहें असामयिक
सोचता हूँ बार बार!
प्रेमिका एक गरमाहट है,ऊर्जा है
कोमलता है ,स्निग्धता है
जिंदगी है,और एक सीख है
और एक भूलभुलैया भी कि
चक्कर काटते रहो आजीवन
पर आदि अंत का पता नहीं
यानि प्रेमिका एक अनंत विस्तार है
इस बात को कितने लोग जान पाए भला?
कि प्रेम है तो प्रेमिका है
और यह प्रेम सौ सौ जीवन न्योछावर करने के बाद भी
शायद नसीब हो पाता है किसी को!
फिर न जाने कैसे चुक चाते हैं लोग
प्रेम करने से
और प्रेमिका से हो जाते हैं कोसो दूर
कि प्रेमिका सिर्फ रात को आती है
चुपके से विस्तर पर
नींद टूटते ही चली जाती है दूर
सपने बनकर
क्या प्रेमिका इतने अवचेतन की चीज है?
सोचता हूँ बार बार
पर,उत्तर नहीं मिल पाता
फिर भी होठों पर मुस्कान बन कर उभर ही जाती है प्रेमिका
फिर कैसे मान लें कि अस्तित्वविहीन है प्रेमिका?
४२.रात गहराती हुई!
धान की फसल पूरी तरह अभी पकी नहीं थी
और चाँदनी
अभी निकल ही रही थी
कि पानी में छपछप की आवाज!
दिल में हल्का हौल पैदा कर गई!
कि अनजान सी यह आवाज
कैसे सुनाई पड़ गई रात्रि के पहले पहर में!
लगा कोई सरसराता हुआ छोटा ,पर कुछ लंबा जीव
मेरे झोपड़ में समा गया
मेरे पास टार्च भी नहीं थी
कि देख पाता सही सही उसे
कि विषैला सर्प है या तिरिछ?
और कांप गया!
रात गहराती गई
मैं कांपता गया
हाथ में लाठी भी नहीं मिली
और चिल्लाता भी किसको?
गांव से कुछ हटकर
बगीचे के नगीच!
और मेरी आवाज सुनकर
भला कौन आता?
इस ठंडे. में!
कि बड़बड़ा रहा होगा नींद में कोई?
आखिर कैसे समय में जी रहा हूँ मैं?
कि डर से तड़प रहा हूँ मैं
पर,बुला नहीं सकता किसी को अपने पास?
और रात गहरा रही है
मैं धंस रहा हूँ
और धंसते धंसते
किसी बांबी में चला गया
सघन अंधेरी गुफा में
और उसी जगह,
चीड़ फाड़कर खा गया गया
मेरी चमड़ी,मेरा गुदा,मेरी कलेजी
और अगले दिन चींटियों का आहार बनते पाया गया
बांबी के बाहर!
किसी अनजाने अखबार के पिछले पन्ने पर.
४३.दु:ख के मारल
दुख के मारल आदमी,तनिको बोले-न-जाने।
एकर नाजायज़ फायदा,अमीर उठावे...२
तरह-तरह के काम कराके,हमके ऊ भूलवावे।
दारू-गाँजा-ताड़ी देके,सथियन के बहकावे।
एकर नाजायज फायदा ,अमीर उठावे...२
काम करत-करत सात पुहुत बितल,तबो न भईले पूरा।
अँटारी त अँटारी रहल,मटियो के घर अधूरा...!
दुख के मारल आदमी,तनिको उठ न पावे।
एकर नाजायज फायदा,अमीर उठावे...२
हमर मेहरी के तन पे ना जुटे,सालों भर लुगरी-लुगा।
हमार लईका नंगा घूमे,ओकर फूलावे फुगा।
का कइनी अबतक हमनी,कइसे अबतक रहलीं?
आज इहे बिचारल जावे...।
एकर नाजायज फायदा,अमीर उठावे...२
हमनी के मेहरी के गाल पिचकल,ओहनी के मेहरी के फूला।
ऊ हरदम जहाज-कार से चले,हमनी के किस्मत लुल्हा?
इहे त किस्मत के फेर बडुए,जे कमाए हाड़ ठेठाके।
ओकरा हिस्सा कुछ न मिले,श्रम के मोल बँटाके।
एकर नाजायज फायदा,अमीर उठावे...२
अब त बिस्वासे नईखे कि मेहनत करके आगे बढब~।
पढल पंडित चाहे तू केतनी न बात कहब~।
बबुआ घर पे रोअत होईहन...!
फिर भी ऊ घड़ी भर पहिले जाए न देवे।
एकर नाजायज फायदा,अमीर उठावे...२
४४.किसनवन
सभ मिली पूछले किसनवन कि हमनी के कब बनी?
सुनर महल अटरिया कि कब बनी?
रोई रोई कहली खदेरन बो चाची
कि नाही बनी!
हमनी महल अटरिया कि नाही बनी.
पूछले किसुन चाचा हमनी बुलाई
कि कबतक ना?
हमनी सहब जा बिपदा के मारि कि कबतक ना?
जिनगी सेराईल हाड़ ठेठावत कि तबो नाही ना?
कि सुनर झोपड़ा ना भईले कि तबो नाही ना?
कहे के त केतना अईले सरकार जी कि तबो नाही ना?
हमनी दुखवा सेरईले कि तबो नाही ना?
सभे छलले किसनवन के उजर खोलि ओढी ना.
छछनी छछनी रोवे गोद के बलकवा कि नाही मिले ना?
भर पेट पिअेके दुधवा कि नाही मिले ना
आपन बालकवा के रोई रोई देखिके रोये लागस ना?
भरि भरि अंखियन से लोरवा कि ढरके लागल ना?
सुनर अंखिया में लाली जे डोरवा कि दिखे लागल ना?
देखि दुखवा किसनवन के आंखि भरे ना?
४५.भोर भईल
जिनगी के का बाटे भरोसा
जिनगी जी ल एक बार!
मर मर के जिअल ,सय सय बरसवा
तबो ना अईले हरसवा!
कारन त जानते बाड,तब काहे सोचताड…
आव हो ,मिटाव हो
जुलिमिया के बजर मिटाव हो
मितवा हो,भोर भईल!
हसिया उठाव हो,जुलिमिया मिटाव हो
माई के अंचरवा के लाज बचाव हो
मितवा हो,भोर भईल
रतिया के दुख बिसराव हो,जुलिमिया मिटाव हो
गांव के बहरसी ताड के बिरिछवा
ओही पे बईठले चील अऊरी गिधवा
ओहनी के डरे मारे नाही लउकस चिरईं चुरूंगवा ,
मिटाव हो जुलिमिया साथी आव हो
रे माई मोरि ,तूही बताई द
गिधवन के भगावे खातिर धेनुही बनाई द
जुलिमियन के राज मिटाई द
माई हो तनि दुलराई द!
सुने में आईल ह ऊ हंसी हंसीं कच्चा मासे खाईले
भगवलो पे तबो ना जाईले
मिटाव हो,हटाव हो
मोरे मितवा ,भोर भईल
४६.भोजपुरी मल्लाह संवाद
सुगवा के नियम...ठोरवा हे गोरी तोहार।
सरिका के नियन ...तोहर बात रे ...!
चकई-चकोरा ...नियन साथ रे...!
धनवा के बाली जईसे,मखन के प्याली जईसे।
जान मारे तोरे मुस्कान रे...!!
नदी जे नलवा जाईं,तैरत भंवरवा जाईं।
तबो ना पीछा छोड़े,तोहरी इयाद रे...!!
जड़वा के दिनवा में,कोहरा -कुहसवा में।
डोंगी लेके निकलीं,चाहे सगरवा में।
सह लींला विपत्त सब,बस तोहरी आस रे..!!!
जाल-महाजाल फेंकी,दोसर देस के केवटिन रे...!!!
मोर मल्लाहन के डगे नाहीं देवे,प्यार रे...!!!
धीरज धरिह गोरी,साल-छह महिनवा।
संगे खाईल जाई,भात अरु माछ रे...!!!
सूरज के लाली देखी बेरी-बेरी,आवे तोरी याद रे!
महुआ के फुलवा नियन,कोमल तोरी देहिया।
खुशबू देला सागर पार रे...!!!
शेष उमर काटब,तोरे संगे कसम तोरी।
जिनगी के एईगो ,तू यार यार रे...!!!
४७.भोजपुरी प्रेम- गीत
अद्भुत अलबेला बाडू,घर के अकेला बाडू...
हमरो जिनिगिया के,तू हू जे पेडा बाडू...
तोहरे से घरमा हमार,बाड़े अँजोर हो।
सरग नियन लागेलडुए,कातिक के भोर हो।
तू हू हमार चनवा हऊ,दिल के अरमनवा हऊ।
हमरो जिनिगिया के,बियफईया जे तारा हऊ।
सूरजदेव से मांगी हम~,टिकुली के जोत लाल~।
अद्भुत अलबेला बाडू,घर के अकेला बाडू..
हमरो जिनिगिया के ...
मटिया के घर बाड़े,फुसवा के छान्ह हो।
तोहरे सुघराई बाटे,अगिया के दान हो।
छमछम पयेलवा के,आँख के कजरवा के;
अँखियाँ के लाज तोहर ,हमार सिरवा के मान हो।
होठवा के तोहार,पानवा जे लाल हो।
अद्भुत अलबेला बाडू,घर के अकेला बाडू।
हमरो जिनिगिया के...
सांझ-दुपहरिया,घर-बधरिया।
सरसों के फूल नियन,तोहरो चदरिया।
दुअरा के दीपक के ,तू हू त बाती हऊ।
लईकन के गांती नियन,तू हमार गांती हऊ।
ललटेन के रोशनिया में,चमकेली दुनू अँखियाँ।
लोरवा के बूँद में,इअाद आवस सखी रे सहेलिया।
जा धनिया जा तू,घूम आव गईंया।
भले अकेले रहिहन,तोहरो ई सईंया।
अद्भुत अलबेला बाडू,घर के अकेला बाडू।
हमरो जिनिगिया के...
४८.प्यार के हमरा
तू नाहीं समझल~,प्यार के हमरा...
समईया गुजर गईल,मिलल~न हमरा।
न जाने का का,देखले रही सपना
तनिके में तोहके,समझ लेलीं रहीं अपना
रे कठकरेजऊ...जियते मार देल~हमरा।
सांझ पहरवा,यमुना कछार के किनरवा।
रहिया निहारत रहलीं,भोर -भिनुसरवा।
तबो न अईल~मोर~,दिल के धड़कनवा।
तड़पेके छोड़ दिहल~,जलत~अंगनवा।
रे निरदयऊ...जियते मार देल~हमरा।
सूरज के लाली नियन,मोर होठवा के लाली रह~।
आँख के पुतरिया के,बरत ज्योति रह~।
कईसे भुलाईं तोहके,मोर जिनगी के मोती रह~।
नदी के धार रह~,उल्लास के सोती रह~।
रे निरमोहिया...जियते मार देहल~हमरा के।
४९.गरिबिया बनल सवतिया
गरिबिया बनल सवतिया...
भारी पे भारी भईल जाला ,दिन अऊर रतिया...
केकरा के कहीं,आपन सरकार हो...
रजऊ के नइखे ,कवनो रोजगार हो...
चाहे तोड~ कवनो धारा...चाहे भूखी कवनों भारा...
तड़पत~छछनत रजऊ...धावे बाजार हो...
केकरा के कहीं आपन सरकार हो...।
धावे ले शिमला, धावले राजस्थान हो...
धावे कलकत्ता, धावे ले कृस्तान हो...
चालीस गुजर गईल,नईखे मकान हो...
प्रदर्शन में गईले,मिलल जेल के किवाड़ हो...
केकरा के कहीं,आपन सरकार हो...।
चबेनी पर गुजारा होला...
निमक-मरचाई के तरसावा होला।
दीया जलावे में ,करोणों के हो जाले खरचा...
तबो नईखे एकर चरचा...
का बदली ,का रही,कुछ नईखे आसार हो।
रजऊ के नईखे मिलत रोजगार हो।
कहेलन अमीरन,खुद से नौकरी सिरजाव~
घर में फूटी कौड़ी नईखे,होली मनाव~
चूलू भर तेल बिना,आँख किचियाता...
पेट नईखे भरल त~बबुआ खिसियाता...
का करीं,कहाँ मरीं,फ़सरी जोहाता।
लईकन के मुँह देखी,मन घबराता ।
लागत बाकि,गोड़ मोरे झांकता ईनार हो...
केकरा के कहीं,आपन सरकार हो...
५०.आंगन बाड़े सूना-सूना
आंगन बाड़े सूना सूना ,मनवा उदास बाड़े
जमले देसवा में,नयका फिरंगियन
नाही होखे गरीबी के उपचार हे भईया!
कहवों कटात बाड़े,नक्सली कहात बाड़े
कहवों लुटाईल बहिनी के इज्जत!
कहवों जुलिमिया सरकार हे भाई!
कहे के त आपन बाटे,नाही कबो आपन बाटे
अपने त बोलत बाटे,हमनी के मुंह पे लगाम बाटे
तब कईसे कहीं उ आपन बाटे
रोअत बाड़े गांव के बहरसी झपसीअ दादा
गरीब छलल गइले,सरकार के गलत वादा
वोटवा हमार रहल,बबुआन के बेटवा खुशहाल रहल
येह सरकार में ,गरीब तबाह रहल!
५१.हमरे दादा जी
कटहल के पेड़ तरे
दादा हमरे
खाटी लगाके सुतत रहलन
खरिहाना!
ढेरि अगोरे खातिर
खटउर में,
अउर हमनियों के बडी देर रात तक
दादा के कोरा
कमर ओढि सुनिजा खेत खरिहान के बात,
तरेगन के किस्सा
अउरी रामायण महाभारत के परसंग!
आज दादा जी के मरला
तीस बरस हो गईल
कटहर के पेट कटा गईल
खरिहान में पक्का मकान खड़ा हो गईल!
फिर भी दादा जी के इयाद ना गईल!
५२.सुगवन के उड़त देखि
धनवा के बाली में बसेला परनवा कि हमरा सुनि ना!
कि बहिनी चल... काटे धान ..कि हमरा सुनी ना!
सुगवन के उड़त देखि हरसे परनवा कि खेत आरी ना
बहिनी चल...काटे धान...कि खेत आरी ना!
यही रे धनवा पे न्योछावर परनवा
कि सोभे घर बनवा ना!
कि चल...बहिनी काटे धान..कि खेत आरी ना!
धानवा छटईंहें त चाउर दिख जईहें
कि केतना खुश ना मोरे मनवा होई जईंहें
कि केतना खुश ना!
हियरा जुड़ाई जईंहे,देवता बधाई जईंहें
कि सुनि सखि ना
बहिनी चली काटे धान..कि खेत आरी ना!
५३.ललकी किरिनिया
बांस के कोठिया फूटल बाटे
मनवा हरसल बाटे
जिऊआ हुलसल बाटे
ललकी किरिनिया फूटल बाटे
मनवा हरसल बाटे
जिऊआ हुलसल बाटे
आम के पतईया लाले
लाले अमरुधिया लाले
पाकल पपितवा लाले
हमनी के खून लाले
पिरितिया के रंग लाले
मजदूर किसानन के झंडा लाले
करले भिनुसार ऊ देवता लाले
लाले लाले,पूरी दुनिया लाले!
५४.मैं रक्तबीज हूँ!
मैं रक्तबीज हूँ
जितनी बार मुझे मरने पर विवश करोगे
उतनी बार जी उठूँगा दूबारा!
मैं धान की बाली हूँ
मुझे नोचकर यदि फेंक भी दोगे
मैं पुन:उग आउंगा
अगली बरसात!
मैं सूर्य की पहली किरण हूँ
धरती पर आते ही भर दूँगा
सबमें आशा !
मैं आग हूँ
जबतक हूँ
तभी तक कोई
गरमी महसूस करता है
जीवन का!
मैं शंख हूँ
पुरोहितों के हाथ से ज्यादा
सुंदर दिखता हूँ
समुद्र तट पर
मल्लाहों के संग!
५५.दलिद्दर
न जाने कब से
आजी के जमाने से भी पहले से
गांव की औरतें सूप,डलिया,बेना
पीट-पीटकर भगा रहीं हैं गांव से दलिद्दर
और यह दलिद्दर है कि हमेशा हमेशा के लिए
भाग ही नहीं पाता गांव से!
और हर साल पुन:जिम ही जाता है गांव में
लंबे लंबे नख लिए,लंबे लंबे शिख लिए
गंदे दांत ,फटे चिथड़े कपड़े पहने
बिल्कुल भयानक सा रूप लिए
हमारे गांव!
और लाख चाहने के बाद भी
वह छोड़ नहीं पाता गांव
जबकि गांव के भोले भाले लोग
हंसिया-दंतारी से पीटते पीटते दलिद्दर को
खुद बेदम हो गये
पर इतना बड़ा है दलिद्दर
कि पिंड़ ही नहीं छोड़ता गांव वालों का
जैसे चिपक गया है उनके किस्मत के साथ?
और कभी कभी इतना भयानक
महामारी का रूप ले लेता है वह
कि भारी मेहनत के बाद भी
गांव वालों का ले लेता है जान,
इतना मोटा,इतना जिद्दी है दलिद्दर
कि उसके आते ही बच्चे डर जाते हैं
रात में सपनाने लगते हैं डर के मारे
और बच्चे की मां
सो नहीं पातीं रात रात भर
इतना बड़ा,इतना डरावना
इतना खतरनाक है दलिद्दर
कि नींद हराम कर ही देता है
गांव वालों का,
इतना ढीठ है दलिद्दर
५६.नाराज होंगे!
जब हम ओबीसी की बात करते हैं,वे नाराज हो जाते हैं!
जब हम एस.सी,एस.टी की बात करते हैं वे नाराज हो जाते हैं!
जब हम कहते हैं कि यहीं सर्वहारा हैं
तो वे कहते हैं तुम्हारा कंसेप्ट क्लीयर नहीं,तुम कम्युनिस्ट नहीं!
मैं हैरत में रह जाता हूं कि जब एस.सी,एस.टी,ओबीसी कम्युनिस्ट नहीं हैं
तो क्या सवर्णों को कम्युनिस्ट मान लिया जाए?
मैं विशुद्धतावादी नहीं,कि केवल आर्थिक आधार पर वर्ग को माने जाएज
और सवर्णों को सर्वहारा मानकर मार्क्स के विचार को घोल-माठा कर दूं
इसलिए वे हमसे नाराज हैं!
बार बार जो जातिवादी हैं वे ही लगाते हैं दलित पिछड़ों पर आरोप जातिवादी होने का,
जो सर्वहारा नहीं हैं वे ही सर्वहारों की पार्टियों के लीडर हैं
इसलिए सर्वहारा भागते हैं कोसो दूर कम्युनिस्ट पार्टियों से
क्योंकि उनका खेवनहार उनका मस्तूल डूबाने पर लगे हैं
जो मुंह दूध से जला है वह माठा भी फूंककर पीता है
यह छोटी सी बात नहीं समझ पाते हैं कम्युनिस्ट
और हो जाते हैं नाराज
फिर आप ही बताइए कम्युनिस्ट का मतलब
एस.सी,एस.टी ,ओबीसी नहीं तो क्या होता है?
क्या कम्युनिस्ट का मतलब सवर्ण होता है?
और यह कि लंपट सर्वहारा कौन होता है?
और कौन होता है छद्म कम्युनिस्ट
मुझे बताने की जरुरत नहीं है!
इसलिए वे मुझसे नाराज हैं!
५७.टूटे हुए सपने
मेरे टूटे हुये सपनों को जोड़कर
मेरे जीवन के एकएक पल को
खूबसूरत बनाने वाले मेरे देवत
तुझ पर सौ सौ जीवन कुरबान कर दूँ
तेरे लिये अपने जीवन का
हर खूबसूरत फूल न्योछावर कर दूँ
मेरे अपने मेरे हमदम!
कभी तो आओ मेरे घर
अपने घर की इक इक ईंट व जर्रे से
तुम्हारा परिचय कराऊँगा
और बताऊँगा
मेरा इकबाल आया है
मेरा करम मेरा साथी
और तुम्हारे आने की खुशी में
घी के दीये जलाऊँगा
कर दूँगा रोशन उस दिन
पूरा गली मुहल्ला
ताकि तुम्हारी याद
बरसों बनी रहे सबके जेहन में
मेरे अंधेरे को ,मुझसे दूर करने वाले साथी!
कम से कम एक बार तो आओ!
५८.इंसान
इंसान सच में बहुरुपिया जीव है
अपनी पहचान के लिए छटपटाता जीव
एक दूसरे को हेठा दिखाने की जुगत में लगा जीव
कोई दाढी और टोपी के पीछे पागल
कोई शिखा और टीका के पीछे पागल
कोई चोगा और पोंगा के पीछे पागल
यानी पागल ही पागल
हम सब पागल
और तो और अपने विश्वासो और मान्यताओ को जायज
शेष को नाजायज बताने वाला पागल
क्या बताऊँ मोटी मोटी चार पाँच एक्सपायर किताबों के आगे पागल
एक दूसरे को नोचकर खाने पर आमदा पागल
जीवों में श्रेष्ठता का दंभ रचता है
दुनिया को कतलगाह बनाकर
धार्मिक होने का ढोंग रचता है-
राम -रहीम डेरा सच्चा सौदा!
५९.बिखरे हुए पंख
इन दिनों बिखर गया हूँ
बिखरे पंख की तरह
और लोग हँस रहे हैं!
कभी सहेजा था सपने
जोड़कर एक-एक,
पर,सब बिखर गए!
कोई रहा नहीं,एक-एक टूट गए
समय की आँच इतनी तेज़ होती है
कि भाई भाई नहीं होता
बहन बहन नहीं होती।
माँ,माँ होती है,पर बहुत दूर होती है
और पिता
पिता रहते हुए भी विवश,लाचार और दीन!
वे भी समय के मारे,
पर सच यह भी तो है
कि यही लाचार,विवश और दीन आदमी
सबसे बलवान होता है कभी
जिसके आगे समंदर झुकता है
सूर्य कवल बन जाता है
और पृथ्वी छोटी!
और बिखरे हुए पंख,
अपने अतीत की बुलंदी का गवाह बनकर,
हमें अंगूठा दिखाते हैं!
६०.तोड़ दो!
लोग बहुत अच्छे हैं तो बूरे भी
लोग चक्र की तरह हैं
जो घूमने में विश्वास करते हैं
तो कुछ लोग ऐसे हैं जो जोड़ने से ज्यादा
तोड़ने में विश्वास करते हैं
यह दुनिया है
यहां तरह तरह के लोग हैं
पर,जीना तो जरुरी है
चाहे किसी की कृपा पर
चाहे अपने स्वाभिमान पर
पर,न जाने क्यों मुझे टूटकर भी
स्वाभिमान के साथ जीना अच्छा लगता है।
और दुनिया में बहुत लोग ऐसे हैं
जिन्हें तोड़ने के लिए
क्या से क्या नहीं किया गया,
पर वे मरकर भी अमर रहे
और जलते रहे मशाल की तरह
घोर अँधेरे में,हमारे लिए
हमारी पीढ़ी के लिए!
६१.जो चाहा न था!
मैं चाहता था
कि दिल उतारकर
सीने की ताखे से,
रख दूँ तेरे कदमों में
और तुम्हें खुश कर दूँ
कि क्या नौजवान साथी मिला है;
तुम भी कह दो सहसा!
पर हर बार ऐसा करने से,
मुझे रोक लेती जिम्मेवारियाँ
और मैं नये खिले उस फूल की तरह हो जाता;
जिसकी कोमल पंखुड़ियाँ मुरझा जातीं,
जेठ की दुपहरिया की धूप की मार से!
मैं चाहता था आसमान से तारे तोड़कर लाऊंगा
और सजाऊँगा घर ऐसा
कि देखने वाले देखें
कि घर ऐसे भी सजाया जाता है!
जहां उजाला फैला रहता है हमेशा;
पर,मैंने भूल कर दी तारों को शीतल समझकर
और मेरा घर उजड़ गया!
मैं चाहता था कि समाज धर्म और जाति के रास्ते से ,
दूर निकल जाए;
इतना दूर कि कभी यह खबर न आए कहीं से
कि किसी ने
किसी की हत्या कर दी धर्म व जाति के नाम पर;
पर,ऐसा हुआ कहाँ?
दुनिया में होड़ मच गई इसी रास्ते सत्ता पाने की;
दुनिया पर राज करने की।
मैं कभी खून का छोटा कतरा देख सहम जाता था
और कहाँ आज है?
कि रोज मिलती है धमकियाँ
मुझे खून करने की।
मैं देखता हूँ हर जगह खून का कतरा बह रहा है
जिस जगह बहना चाहिए थी प्रेम की निर्मल-धारा!
पर,यह भी हकीकत है कि जितना सुकून प्रेम देता है,
उतना सुकून किसी की हत्या नहीं,
मगर खेद है उन्हें देखकर जो रक्तपिपासा हैं!
६२.हम मिले थे
हम मिले थे
कॉलेज के दिनों ,
उसी पीपल पेड़ के नीचे;
जहां अक्सर लड़के
गरमी से बेहाल होकर
थोड़ा सुस्ताने,थोड़ी छांव की आस लिए
आ जाया करते थे;
और तुम वहीं अचानक मिल गई थी!
और पहली नज़र में प्यार जैसा कुछ हो गया था!
हालांकि मै ं कुछ कह नहीं पाया था,
और तू भी नहीं ।
मगर प्यार हो गया था
इसे हम ही सिर्फ जानते थे
और कोई नहीं!
फिर कितने बेचैन रहने लगे थे,
तुम अच्छी तरह जानती हो!
और ठीक दो साल बाद,
बंध गए थे हमदोनों शादी के बंधन में;
आज दस बरस बाद
अचानक आना हुआ कॉलेज में,
और उसी पीपल पेड़ के नीचे,
हम दोनों खड़े हैं!
और अंदर कितनी खुशी है?
.............................
डॉ.हरेराम सिंह का जन्म ३०जनवरी १९८८ई.को बिहार के रोहतास जिलांतर्गत काराकाट प्रखण्ड के करुप इंगलिश गाँव में एक साधारण किसान परिवार में हुआ। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय-आरा से सन्२०१५ ई.में इन्होंने पीएच.डी.की।अबतक इनके दर्जन भर पुस्तकें प्रकाशित हैं।"हाशिए का चाँद "," रात गहरा गई है!","पहाड़ों के बीच से"इनके चर्चित काव्य -संग्रह हैं।"हिंदी आलोचना का प्रगतिशील पक्ष "व" हिंदी आलोचना का जनपक्ष"महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तकें हैं।"अधूरी कहानियाँ "व" कनेर के फूल"इनके बहुचर्चित कहानी संग्रह हैं।
संपर्क: ग्राम+पोस्ट: करुप इंगलिश,भाया:गोड़ारी,जिला:रोहतास(बिहार),पिन न.८०२२१४.
मो.८२९८३९६६२१
ईमेल:dr.hrsingh08@gmail.com
Comments
Post a Comment