ओबीसी साहित्य और उसके महत्व

ओबीसी साहित्य और उसके महत्व 
(डॉ. हरेराम सिंह  के कुछ प्रश्न और उसके उत्तर के रूप में ओबीसी साहित्य के प्रवर्तक डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह  की फोन पर बात-चीत का लिखित रूप।यह बातचीत २०.०१.२०२० को विनोद कुमार यादव के आग्रह पर की गई।)
डॉ. हरेराम सिंह : ओबीसी साहित्य क्यों जरूरी है?
डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह:  जब तक ओबीसी का साहित्य नहीं होगा ,तब तक राजनीतिक सत्ता नहीं मिलेगी, और संजोग से अगर मिल भी गयी तो फिसल जयेगी. साहित्य जरूरी है, साहित्य ही आपकी समस्याओं को,  आपकी अंदरूनी चीजों को, आपकी भावनाओं को, दुख-दर्द को,यानी सबको -वही न  प्रकट करेगा?  और ओबीसी के जो साहित्यकार हैं, चिंतक हैं, दार्शनिक हैं, राजनेता हैं, इनके बारे में कहाँ लिखियेगा.  राम स्वरूप वर्मा कितनी किताब लिखे हैं लेकिन इनकी चर्चा मुख्य धारा में  कहा होती है ?और अर्जक साहित्य बहुत बड़ा मोमेंट था- ६० के आखिरी दशक में, लेकिन हिंदी साहित्य में उस पर कहाँ किसी ने बात की;नहीं की.
                                            और दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य का दायरा सिकुडता गया ।वहाँ भी ओबीसी को जगह नहीं मिली.और... ऐसी बहुत सी चीजे हैं,जिससे ओबीसी साहित्य की जरुरत को सरलता से रेखांकित किया जा सकता है।ओबीसी साहित्यकारों के साथ द्विजवादी मानसिकता के पत्रकारों व संपादकों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी है। आप देख लिजिएगा चौथी राम यादव और वीरेंद्र यादव को ना तो मुख्य -धारा के साहित्य में जगह मिलेगी और ना ही दलित साहित्य में। उन्हें जब रेखांकित करेगा तो ओबीसी साहित्य ही।
डॉ.हरेराम सिंह: तब इन दोनों साहित्यकारों को कहाँ जगह मिलेगी?
डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह: इन लोगों को कही भी जगह नहीं मिलेगी, ये लोग मर जायेंगे, कोई नहीं पूछेगा. और ना ही ये लोग स्थापित होंगे. और न ही इन लोगों के स्टेटमेंट का value है. ओबीसी साहित्य का अपना भी रामचंद्र शुक्ल होना चाहिए ! सबसे पहले तो आप अपने साहित्यकारों को, इतिहासकारों को, चिंतकों  को,  स्थापित करके महत्व दीजिये,तब तो उसके किसी स्टेटमेंट का महत्व होगा;वरना, नहीं होगा।चूंकि वह टैलेंट अभी ओबीसी पैदा नहीं कर पा रहा है क्योंकि उसके पास अपना साहित्य ही नही हैं.फिर वह पैदा कैसे होगा?और अगर पैदा ही नहीं होगा तो जितने कवि हैं, उपन्यासकार हैं ,कहानीकार हैं,आलोचक हैं ,सब मारे जायेंगे.क्योंकि आपके बीच का कोई ऐसा आलोचक ही नहीं हो रहा है जो उन पर बात करे।सब मुँह चुरा रहे हैं।और न ही कोई इन पर,पूरे ओबीसी पर कोई साहित्य लिख रहा है.फिर ओबीसी की पहचान कैसे बन पाएगी।सवर्णवादी साहित्य अपने बारे में लिख रहा है , दलित साहित्य अपने बारे में लिख रहा है, आदिवासी साहित्य अपने बारे में लिख रहा है और इतनी बडी़ आबादी का अपना कोई साहित्य ही नहीं है.यह कम आश्चर्य जनक है?आप जानते हैं कि सबसे बडी़ जो खेती की समस्या है वो ना तो दलित के पास है ना आदिवासी के पास और ना ही सवर्ण के पास, क्योंकि दलित और आदिवासी के पास जमीन नहीं  है और सवर्ण जिस के पास जमीन है वो खेती करता नहीं है. तो खेती से जुड़ी सारी समस्याओं को कौन लिखेगा? ऎसे ही बहुत सारे field हैं,जिस की समस्या सिर्फ ओबीसी की समस्या है.
डॉ.हरेराम सिंह :सर ,जैसे में कुछ विशेष को रेखांकित करें तो...?
डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह : जैसे पशुपालन की ही समस्या को ही ले लीजिये. इसमें दुग्ध उत्पादन को लेकर जो समस्यायें हैं उसे कौन कहेगा। ये समस्या तो सिर्फ ओबीसी की ही हैं ना ।और कौन दूध का उत्पादन कर रहा है.इसमें  जो सबसे बडी़ बात है ,वह यह कि ओबीसी साहित्य ना होने से, ओबीसी को चेतना ही नहीं मिल रही है। इसके पीछे का कारण है-बीच का होना ।एक भोजपुरी की कहावत  है “ बडा  बेटा बाप के, छोटका मह्तारी के और बीच वाला भाड़सारी के!"यही स्थिति ओबीसी की है। ऊपर वाले का value है और नीचे वाले का  value है ,पर बीच वाले की कोई value ही नहीं है।कारण कि ओबीसी साहित्य से सभी को खतरा भी है,क्योंकि ओबीसी की आबादी 50% से भी ज्यादा है। इतनी बडी़ आबादी जिसको चाहेगी ,सत्ता उसी को  मिलेगी ।इसीलिए सब इससे डरते हैं।
                                       और ओबीसी के साथ टेक्निकल दिक्कत ये भी है कि ये कभी ऊपर जाते हैं तो कभी नीचे जाते हैं; इसीलिए बीच में लटके हैं. ये सारी दिक्कत तभी खत्म होगी जब ओबीसी का साहित्य होगा, उसकी अपनी संस्कृति होगी. 
डॉ .हरेराम सिंह: सर,कुछ लोग आरोप लगाते है कि ओबीसी की अपनी कोई संस्कृति ही नहीं है !ये बात सच है या कि झूठ है? कुछ लोग मतलब जिनको ओबीसी साहित्य से दिक्कत है ।
डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह:कौन लोग कह रहे हैं?जो कह रहे हैं वे बरगला रहे हैं,क्योंकि उनके पास अपनी संस्कृति नहीं है।ओबीसी के पास ही तो संस्कृति है।जहाँ श्रम है,वहाँ त्योहार है,जहाँ त्योहार है,वहाँ गीत है,जहाँ गीत है,वहाँ संस्कृति है।ओबीसी में चेतना नही है ,इसलिए वे बरगलाने में सफल हो जाते हैं।
डॉ.हरेराम सिंह:कबीर व ज्योतिबा फुले आदि किसके है-दलित या ओबीसी के ? 
डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह: पूरे ओबीसी की लिस्ट देख लीजिए ।स्पष्ट हो जाएगा।
डॉ. हरेराम सिंह: सर, कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि जनवादी साहित्य किसान और मजदूरों की लडाई लड़ रहा है तब ओबीसी साहित्य की जरूरत क्या है?
डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह:जनवादी साहित्य क्या है?जनवादी साहित्य कहेगा कि हम तो सबकी आवाज उठाते हैं, सारे साहित्य यही  कहते हैं ,लेकिन करते कुछ भी नही हैं।बिना ओबीसी साहित्य के ,ओबीसी की इतनी बडी़ आबादी जो सोई हुई है -नहीं जाग सकती है. साहित्य में  इसकी संस्कृति, दर्शन, सब समाहित है और जब तक साहित्य का आंदोलन ओबीसी के बीच खड़ा नहीं होगा ,तब तक ओबीसी का भला नहीं होगा। लोग लाख चर्चा कर लें, सब ढाक के तीन पात साबित होगा ।  ओबीसी की सबसे बडी़ आबादी है तो सत्ता इसके हाथ में होनी  चाहिए। लोकतंत्र में जो कि लोगों  के वोट से सत्ता तय होती है ,तो ये माना ही जायेगा कि देश कि जो राजनीतिक गति हो रही है वो ओबीसी के कारण हो रही है ,क्योंकि इसकी आबादी सबसे ज्यादा है।ओबीसी जो कि 56% है जिसे चाहेगा उसी की न सत्ता आयेगी?
डॉ.हरेराम सिंह: कबीर कृषक संस्कृति के महान गवैया हैं,कैसे?
डॉ.राजेन्द्र प्रसाद सिंह: कबीर कृषक समाज से थे,इसलिए उनकी रचनाओं में कृषि से जुड़े शब्द अधिक हैं। आप उनकी पूरी रचनाओं को पढ़ जाइए।कृषि से जुड़े शब्दों का उनके यहाँ भरमार है। जिसका जिक्र मैंने अपने कई आलेखों में किया है। कमलेश वर्मा की पुस्तक“जाति के प्रश्न पर कबीर”भी आप पढ लेंगे।
डॉ. हरेराम सिंह: क्या ओबीसी साहित्य का अपना सौंदर्य- शास्त्र है? 
डॉ .राजेंद्र प्रसाद सिंह:मेहनत से अच्छा सौंदर्य किसी चीज का होता है? नहीं ना।  जब सारी श्रमशील जातियाँ ओबीसी में है तो सौंदर्य किसके पास है।निश्चित ही ओबीसी के पास।ओबीसी साहित्य के पास अपना सौंदर्य-बोध व सौंदर्य-शास्त्र है। उसे किसी के पास इसके लिए उधार लेने नहीं जाना है।
डॉ. हरेराम सिंह: सर, क्या ओबीसी साहित्य की अपनी कोई भाषा भी है?
डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह:बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से दो valume में  कृषि शब्दकोश छपा है , आखिर कृषि की भाषा किसकी है? ओबीसी की ही हैं ना, कृषि की शब्दावली न तो दलित साहित्य की है और न ही द्विज साहित्य की।किसानों की, लोहारों, कुम्हारों, बढ़ई, पशुपालक, आदि की भाषा, सारी की सारी ओबीसी की ही भाषा है। इनकी भाषा पर कई शोध हुआ है।पर,हाँ।ओबीसी साहित्य दलित और आदिवासी साहित्य एक दूसरे के विरोधी नहीं हैंबल्कि पूरक हैं।इसे समझना चाहिए ।साहित्य से जगा ,ओबीसी सबके लिए लाभदायक होगा -दलित के लिये भी और आदिवासी के लिये भी । नहीं तो सबका नुक्सान होगा।
डॉ. हरेराम सिंह:आज बहुत से ओबीसी साहित्यकार द्विज साहित्य की रचना कर रहे हैं । उनके बारे में आप क्या कहेंगे?
डॉ .राजेंद्र प्रसाद सिंह: ओबीसी साहित्यकार जो द्विज साहित्य लिख रहे हैं,वो दिग्भ्रमित हैं। द्विज साहित्य को ओबीसी साहित्य से अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आ रहा है ,इसीलिये वो इसे रोकने का प्रयास कर रहे हैं।
डॉ.हरेराम सिंह: ओबीसी के शोध-छात्रों को क्या संदेश देना चाहते हैं?
डॉ.राजेन्द्र प्रसाद सिंह: वे अधिक से अधिक ओबीसी की समस्याओं पर,लोगों पर,इतिहास और संस्कृति पर काम करें। और देश को नई दिशा दें।

संपर्क-ग्राम+पोस्ट: करुप इंगलिश,भाया:गोड़ारी,जिला:रोहतास (बिहार), पिन.न.802214.
 ।।।  dr.hrsingh08@gmail.com  ।।।

Comments

Popular posts from this blog

हरेराम सिंह

साहित्यकार डॉ.हरेराम सिंह