रात के आखिरी पहर तक

रात के आखिरी पहर तक
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मुहब्बत के तराने गूँजते थे कभी उसके घर में भी
कभी चुपके-चुपके रात के आखिरी पहर तक,
खतम नहीं होता था ख़त का लिखना
लैंप की धीमी रोशनी में,कम्बल में घुमड़कर
चोरी-चोरी, चुपके-चपके
एक स्निग्ध मुस्कुराहट के साथ-एक अफसाना भी जिंदा था
जो कभी तैरता था घड़ी-दर-घड़ी
अब वहाँ, सिर्फ सिसकी सुनाई पड़ती है-
उस कमरे में,उस दीवार के पास।
हालांकि, आज कोई रहता नहीं है वहाँ,
न ही कोई दीप जलता है किसी की आस में,
रात के आखिरी पहर तक।
बस,कुछ नये वर्ष के ग्रीट्इंग्स 
जो खामोश हैं;हैं-टेबिल के पास
और उस पर के अक्षर-
सुनहरे अक्षर, कभी न मिटने वाले,
बिल्कुल चुप हैं!
लगता है किसी ने धोखा किया है;उनके साथ
रात के आखिरी पहर में।
जब सबेरा होने में कुछ पल रह गये थे शेष
उस घड़ी किसी की चीख़ने की आवाज आई
और दिल कांप गया!
विश्वासों के मौसम में,प्यार का बहाना करके
आने वाले चमन के फूल के साथ किसी ने अन्याय किया है,
रात के आखिरी पहर में !
++++डॉ.हरेराम सिंह++++

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