कुशवाहा क्षत्रियों की कुल देवियाँ

कुशवाहा क्षत्रियों की कुल देवियाँ और स्त्री-स्वाभिमान
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कुशवाहा क्षत्रिय भारत के प्राचीन क्षत्रियों की एक शाखा है।इसके आदि-पुरुष राम के ज्येष्ठ-पुत्र कुश हैं। कुश ने पहली दफा अन्न देवी 'अन्नपूर्णा देवी'की पूजा अपने राज्य में शुरु की।यह पूजा बिना किसी वाह्याडंबर के फसलों की कटाई के वक्त होती थी।धीरे-धीरे कुशवाहा समाज विस्तार पाते गया।लोगों के ठिकाने बदले।कुछ ने अन्य पूर्णा  देवी जी की पूजा आज भी करते हैं। इसमें कुशीनगर का इलाका मुख्य है। डॉ.ललन प्रसाद सिंह ने बताया कि उनके पूर्वज 'मातृ देवी'की पूजा करते थे,जो कुश वंश से संबंधित हैं। इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि ठिकाने बदलने के साथ ही अलग-अलग अपनी कूल देवी स्वीकार कर लिए। इतिहास में यह नई बात नहीं है।कुशवाह भगवान सिंह नरवरिया भी यह स्वीकार करते हैं कि ऐसा कई बार हुआ होगा। उनके मुताबिक आगरा के आसपास 'बोलोन वाली माता'को कुशवाहा लोग अपना कुलदेवी मानते हैं। वहीं झारखंड़ी कुशवाहा 'शाकंभरी देवी'को अपना कुल देवी मानते हैं।कन्नौज व मैहर के पास के कुशवाहा 'अल्हत माँ'को अपना कुल देवी मानते हैं। राजस्थान वाले कुशवाह 'जमवाय माता'को अपना कुल देवी मानते हैं।भोजपुर वाले 'फूल माता 'व 'महतिन देई'को अपना कुल देवी मानते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि अलग-अलग समय में अलग-अलग स्थानों पर कुशवाहा क्षत्रिय की कुल देवियाँ बदली हैं। बिहार के औरंगाबाद में 'काली माँ'को कुल देवी मानने का प्रचलन है,तो नेपाल की तराई के आस-पास'माता माहामाया'को।
यह सब सच पूछा जाए तो मातृ प्रघान समाज के प्राचीनतम अवशेष हैं। जब लोग मानते थे कि स्त्री ही शक्ति है और सृजन का आधार ।तब से विश्व के अनेक कोनों में स्त्री -शक्ति की पूजा होते आई है। और आज भी हो रही है।
मगध की बात करें तो मगहिया कुशवाहों की अधिकता थी।जलुहार कुशवाह भी बहुत थे। बुद्ध ने शायद प्राचीनता से कुशवंशी होने के कारण उरुवेला व गया के आसपास ठहरना उचित समझा था। और यहाँ प्रभाव भी उनका खूब जमा था। इससे ब्राह्मणों का धंधा ठप गया था। इसलिए मगध को अनार्यों की भूमि कहना शुरु किया और कुशवाहा को छोटी जाति से रेखांकित करना। इसमें न तो कुश के वंशज् कुशवाहों की कोई गलती थी और न ही बुद्ध की। पर,ब्राह्मण यह नहीं चाहते थे कि कुशवाहा बुद्ध को सपोर्ट करे:क्योंकि इससे उनके वर्णाश्रम व्यवस्था का खतरा था। सुजाता जलुहार कुशवाहा थी;वह ग्वाला की लड़की नहीं थी। हाँ,उसकी सखियाँ जरुर ग्वाला थी। जिसके संग अक्सर वह बाग टहलने जाती थी।बाद में कुशवाहा क्षत्रिय बंधु 'माता सुजाता'को अपना कुल देवी स्वीकार कर लिया। इस तरह सुजाता भी कुशवाहा समाज की कुल देवी हो गईं,जिसे जरहार कुशवाहा अपना मानते हैं।
कुशवाहा समाज की स्त्रियां बहुत ही स्वाभिमानी व शीलवान होती हैं। इतिहास इसका गवाह है। भोजपुर में बिहिया के पास बहुत पहले कुशवाहा -वधु 'महतिन'को उस इलाके का राजा डोला लेना चाहा था।पर,वीर महतिन ने लड़ते-लड़ते प्राणों की आहुति  दे दी,पर इज्जत गवाना उचित न समझा।कुशवाहा क्षत्रिय समाज की लड़कियों के भीतर यह स्वाभिमान आज भी देखने को मिलता है,कि वह माता सीता की अटल होती हैं। उन्हें कोई हीरे-जवाहरात से तौल नहीं होता। वह परिश्रम की रोटी खाना पसंद करती हैं,पर जी जरूरी उनके ख़ून में नहीं।
इस तरह का उदाहरण राजस्थान, मध्य-प्रदेश,उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखंड में हजारों सुनाई देंगे।कुछ कुशवाहा स्त्रियाँ आजादी की लड़ाई में भी शिरकत की थीं;पर दुखद की,उनका उनका इतिहास नहीं लिखा गया।कुशवाहा लड़कियाँ घर,परिवार,समाज और देश चलाने की अच्छी बूता रखतीं हैं। सुप्रीम कोर्ट की वकील सीमा समृद्धि कुशवाहा ने कुशवाहा क्षत्रिय का मान पूरे देश में बढाया है। इतिहास उन्हें सदा याद रहेगा।
(साभार:'कुशवाहा-वंश का इतिहास',डॉ.हरेराम सिंह)

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साहित्यकार डॉ.हरेराम सिंह