जो चाहा न था!
मैं चाहता था कि दिल उतारकर सीने की ताखे से, रख दूँ तेरे कदमों में और तुम्हें खुश कर दूँ डॉ.हरेराम सिंह कि क्या नौजवान साथी मिला है; तुम भी कह दो सहसा! पर हर बार ऐसा करने से, मुझे रोक लेती जिम्मेवारियाँ और मैं नये खिले उस फूल की तरह हो जाता; जिसकी कोमल पंखुड़ियाँ मुरझा जातीं, जेठ की दुपहरिया की धूप की मार से! मैं चाहता था आसमान से तारे तोड़कर लाऊंगा और सजाऊँगा घर ऐसा कि देखने वाले देखें कि घर ऐसे भी सजाया जाता है! जहां उजाला फैला रहता है हमेशा; पर,मैंने भूल कर दी तारों को शीतल समझकर और मेरा घर उजड़ गया! मैं चाहता था कि समाज धर्म और जाति के रास्ते से , दूर निकल जाए; इतना दूर कि कभी यह खबर न आए कहीं से कि किसी ने किसी की हत्या कर दी धर्म व जाति के नाम पर; पर,ऐसा हुआ कहाँ? दुनिया में होड़ मच गई इसी रास्ते सत्ता पाने की; दुनिया पर राज करने की। मैं कभी खून का छोटा कतरा देख सहम जाता था और कहाँ आज है? कि रोज मिलती है धमकियाँ मुझे खून करने की। मैं देखता हूँ हर जगह खून का कतरा बह रहा है जिस जगह बहना चाहिए थी प्रेम की निर्मल-धारा! पर,यह भी हकीकत है...
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