ओबीसी साहित्य का विकासक्रम को समझना जरूरी है

ओबीसी साहित्य के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझना जरूरी है।
......डॉ.हरेराम सिंह...
कुछ लोग देखने की बजाए नकार भाव के शिकार होते हैं.ऐसे लोग ओबीसी साहित्य को शंका की दृष्टि से देखते हैं।जबकि उन्हें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में किसी का मूल्यांकन करना चाहिए .अगर ऐसा नहीं कर रहे हैं तो निश्चित ही आपसे भूल हो रही है.
मेरा स्पष्ट मानना है कि अगर ओबीसी साहित्य बेमानी है तो ओबीसी-सत्ता का सपना भी बेमानी होगा।पूरा मंडल कमीशन और हजारों साल का इतिहास भी बेमानी होगा।यादव,कुशवाहा,कुर्मी,लोध,प्रजापति आदि भी बेमानी ठहराएजाएँगे।खासकर उनके द्वारा जो द्विज-सत्ता के अंग है।साहित्य की सत्ता राजनीतिक सत्ता से अलग नहीं होती मतलब यह कि जिसके साहित्य हैं उनकी सत्ता है या सत्ता की परिकल्पना हो चुकी है अथवा जिनकी सत्ता है तो उनका कहीं न कहीं साहित्य है और समाज भी है।आचार,विचार और दर्शन तो हैं ही.इसलिए ओबीसी साहित्य बेमानी नहीं है और न ही यह हवा में है।इसका अपना सौंदर्यबोध भी है जिससे इसकी पहचान प्राय: हो जाते हैं।शत् प्रतिशत एकरूपता दुनिया के किसी साहित्य में भी नहीं है।अपने यहाँ दलित साहित्य में भी नहीं।ओबीसी साहित्य शूद्र साहित्य के पर्याय नहीं है।हांड़ी का गले में लटकना शूद्रों की पहचान थी द्विज शासन में।पर खेती-बाड़ी ,पशुपालन,मछेरी व घड़ा आदि बनाने वाले शूद्र नहीं बल्कि 'कुवीर'थे धरती के लाल थे जिनके गले में हांड़ी नहीं हस्त निर्मित माला और हाथों में लाठी,कुदाल,हसिया व तलवार थे.और इन्हें बराबरी पसंद थी.ये आपस में 'भाई'थे और इनका जो लिखा साहित्य था उसका आधुनिक नाम ओबीसी साहित्य है।जो लोग न दलित साहित्य के अंग हैं न ओबीसी साहित्य के?उनके बारे में क्या कहेंगे?जैसे द्विज वैसे वे और उनका साहित्य! दलित व ओबीसी साहित्य या आदिवासी साहित्य का समुच्चय के समुच्चय को अपनी संतुष्टि के लिए मार्क्सवादी साहित्य कह सकते हैं।इसमें ओबीसी साहित्य को कोई खास ऐतराज नहीं है.पर इसे बाहरी परिप्रेक्ष्य के तौर पर रेखांकित करना ही बेहतर होगा।
समाज में 'सछूत'नाम की कोई बिमारी नहीं है जिससे किसी की समाजिकता का बोध हो सके।ये दलित वैचारिकी को गढ़ने वाले के मन की उपज है।यह शब्द उतना ही घृणित है और अपमान जनक है जितना शूद्र।ब्राह्मण-शास्त्रों में जिस तरह वैदिक युग के कुछ लोगों को अपना आधिपत्य मनवाए रखने के लिए 'शूद्र'कह हाथ में झाडू और गाँव के बाहर खासकर दक्षिण दिशा की ओर रहने के लिए विवशकर उन्हें उपेक्षित के रूप में वर्णन किया गया है ठीक उसी तरह दलित साहित्य में ओबीसी को अपमानित एवम् तिरस्कार के रूप में 'सछूत'कह मजाक उड़या गया है और यह बताने की कोशिश की गई है कि ये 'रोगी'हैं याने रोग के साथ जिने वाले हैं और हमलोग ओबीसी से अलग हैं  और वैचारिक स्तर पर सदा से अलग हैं।जबकि सच्चाई है ये दलित ही चौथा वर्ण यानी कि शूद्र थे जिन्हें आधुनिक समय में सिड्यूल कास्ट की संज्ञा दी गई है।ओबीसी के श्रम और उसके लड़ने की क्षमता की क्षमता को कमतर बताने के लिए 'दलित साहित्य'में सछूत कहा गया है जो सर्वथा अनुचित है।और यह एक तरह की साजिश भी है कि इसे अपमानित करेंगे तो यह मुख्यधारा से कटकर हमारी तरफ आएगा .जबकि दलित व दलित साहित्य इस बात को समझने से चूक करता है या जानबुझकर चुप रहता है कि ओबीसी का अस्तित्व स्वतंत्र है -यह द्विज और दलित दोनों से परे है।ओबीसी हमेशा दलितों को अपमानित होने से बचाते आए हैं पर दलित इनका उपहास उड़ाते हैं और अवसर पाकर बीच सभा में 'बाबा का पैलागन'भी करते हैं और ओबीसी अपनी दृढ़ता एवम् रुखाई की वजह द्विजों एवम् दलितों दोनों में बदनाम् हैं।यह स्थिति राजनीति में भी है और साहित्य में भी।इसलिए  पूरे होश-व-हवास के साथ ओबीसी और ओबीसी साहित्य को स्थिति का खूब अच्छी तरह अवलोकन करते हुए आगे बढ़ने की जरूरत है और अपनी पीढ़ी को जागरूक व सतर्क बनाने की जरूरत है।आप अगर किसी से आगे हैं तो अपने आगे वालों से भी अपनी प्रतीभा के बल पर आगे बढ़िए ।लोकतंत्र भी इसकी वकालत करता है।और इसी में आपकी समझदारी भी है।पीछे मुड़कर देखना या पीछे वालों की मदद करना बुरी बात नहीं है किंतु पीछे वाले के चक्कर में पीछे रह जाना और अपना सबकुछ गँवा देना बुद्धिमानी नहीं है।वजह जो आपको आज 'सछूत'कह मजाक उड़ा रहा है उसका क्या भरोसा कि वह कल मजाक न उड़ाएगा।द्विज आपको आगे जाने से रोकता है और दलित चाहता है कि हमारे पीछे-पीछे चलें।साहित्य इससे अलग नहीं है।बुद्ध,कबीर,ज्योतिबा राव फूले,वीपी मंडल,ललई सिंह यादव,चौधरी छोटूराम के अलावा हजारों आपके दार्शनिक व नायक हैं.फिर आप सोच क्या रहे हैं?ओबीसी साहित्य इनके विचारों से पूरी तरह अनुप्राणित है और हिंदी साहित्य के इतिहास में वह हर जगह मौजूद है।दृष्टि ही मूलयांकन के मूलाधार होते हैं और वह दृष्टि ओबीसी के पास पहले से मौजूद है।इसलिए ओबीसी साहित्य हीनता से परिचालित 'सछूत'नाम के किसी अवधारणा में यकीन नहीं करता है।मंडल कमीशन आसमान से नहीं उतरा था.यह ऐतिहासिक विकासक्रम का हिस्सा है.इसे इसी रूप में समझना चाहिए .इसलिए यह कहना कि ओबीसी साहित्य या चिंतन नाम की कोई चीज नहीं है;एकांगी व गलत है.जिसका 'विकासक्रम'है उसको इतिहास से अलग नहीं कर सकते.ओबीसी सुदीर्घ चिंतन का प्रतिफल है इसलिए वीवी मंडल ने अपने रिपोर्ट में इतिहास का हवाला देते हुए वर्तमान को डिफाइन करते हुए इस वर्ग को मजबूती के साथ रेखांकित करते हैं.मेरा तो मानना है कि यह रिपोर्ट तो 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' की तरह है।जिस तरह कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के आलोक में हजारों ग्रंथों ,साहित्यों की रचना हो सकती है ठीक उसी तरह मंडल कमीशन के आलोक से हजारों पुस्तक दीप्त हो सकते हैं और इनके आलोक में ओबीसी साहित्य की रचना हो सकती है।ओबीसी साहित्य का रूप प्राचीन समय में और मध्यकालीन समय में क्या और कैसा था इसे अलग से रेखांकित किया जा सकता है.पर वर्तमान हकीकत है कि ओबीसी साहित्य है और रोज विकास कर रहा है.इस विकास परंपरा को समझे बगैर इसे रिजेक्ट करना काल और इतिहास  के साथ न्याय संगत नहीं है.

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