ओबीसी साहित्य विमर्श

'ओबीसी साहित्य' को अकादमिक न्याय देने के लिए दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय-गया को हार्दिक बधाई। प्रारंभिक दौर में प्रमोद रंजन जी ने  ओबीसी साहित्य पर बखूबी 'फारवर्ड प्रेस' के द्वारा विमर्श चलाया था। अवधारण पेश की थी डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह ने। जबकि इसके पूर्व हरेराम सिंह ने 'हंस' में एक पत्र के माध्यम से  'ओबीसी साहित्य' पर अंक निकालने हेतु सलाह दी थी। डॉ.ललन प्रसाद सिंह ने इसके सौंदर्य शास्र तथा दर्शन पर आधारित एक लेख लिखा था जो उनकी पुस्तक 'प्रगतिवादी आलोचना: विविध प्रसंग' में संकलित है। इस पुस्तक का विमोचन बीएचयू में हुई थी और इसकी रिपोर्ट 'हंस' में छपी थी।
आज ओबीसी साहित्य , साहित्य के क्षेत्र में ओबीसी को ठीक उसी तरह 'रिप्रेजेंट' कर रहा है जैसे दलित साहित्य दलित को, आदिवासी साहित्य आदिवासी को। इसे भारत की आधी से अधिक आबादी का आइना कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारण किसान, पशुपालक और शिल्पकारों की जीवनगाथा पर साहित्यिक विमर्श बखूबी जो वास्तव में देश की रीढ़ हैं, हुआ ही नहीं था या जानबूझकर उसे दरकिनार कर दिया गया था। आज इसे अकादमिक स्वरूप में देखकर प्रत्येक ओबीसी की आँखें खिल उठी हैं। ओबीसी साहित्य विमर्शकारों में मुख्य नाम डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह, डॉ.हरेराम सिंह, डॉ.हरिनारायण ठाकुर और डॉ.ललन प्रसाद सिंह हैं।


दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय-गया ने एक बड़ा, ऐतिहासिक और रेखांकित करने योग्य काम किया है, इससे उसकी दूरदर्शिता का पता चलता है और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने और उसे बरकरार रखने के प्रति आस्था का यह पहल द्योतक भी है। ओबीसी साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल होना नये युग का आगाज का संकेत है, यह कुछ लोकतंत्र को अपने को प्रमाणित करने जैसा है। यह परिघटना लोकतंत्र को और अधिक लोकतांत्रिक होने का सबूत है।

उसके इस पहल को, अन्य विश्विविद्यालयों को भी  स्वागत करना चाहिए। ओबीसी साहित्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गति देने में अपनी विशेष भूमिका अदा कर रहा है। इसे रेखांकित किए बिना भारतीय साहित्य की अवधारण पूरी नहीं हो सकती।
सुभाषचंद्र कुशवाहा ने ओबीसी साहित्य के आने के कारणों की सही तलाश करते हुए लिखा है-" अगर साहित्य ने समुचित तरीके से स्वत: स्त्री, दलित, ओबीसी, या आदिवासी विमर्शों को स्थान दिया होता तो इन विमर्शों की जरुरत न पड़ती। दुनिया भर में आदिवासियों या वंचितों की विभिन्न प्रजातियों का साहित्य ही सबसे ज्यादा पठनीय रहा है।" 
आज ओबीसी साहित्य उस खालीपन को भर रहा है जिसे वर्चश्व की संस्कृति के पोषक कभी समझे नहीं; और न उसे समझने की कोशिश ही किए। यहाँ के कुलीन वर्गों ने जानबूझकर ओबीसी के लिखे साहित्य को कभी गंभीरता से नहीं लिया; कारण कि वह जो कुछ देखते और लिखते रहे हैं वहाँ सिर्फ व सिर्फ उनके वर्गीय व जातीय हित छुपे रहते हैं, उन्हें न दलितों से मतलब है न आदिवासियों से और न ओबीसी से। ऐसे समय में दलित साहित्य, ओबीसी साहित्य और आदिवासी साहित्य का आना स्वाभाविक था। इस समय ओबीसी साहित्य को और अधिक लिखे जाने की जरुरत है ताकि ओबीसी वर्ग के लोग अपने को वहाँ अभिव्यक्त होता हुआ देख सकें और खुद को कह सकें। ओबीसी साहित्य पर जगह-जगह परिचर्चा, गोष्ठी, सेमिनार आयोजित करने  की जरुरत है साथ ही जरुरत है-पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में इससे संबंधित कॉलम निकालने की , ताकि ओबीसी समाज जाग सके, अपनी सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण बना सके।

@ हरेराम सिंह



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