दो कविताएँ

हरेराम सिंह की दो कविताएँ

1.इंतजार
......
पग बाहर निकले थे
उन्हें बुरा लगा था
कारण कि उन्हें हमारी आजादी 
पसंद नहीं थी
वे चाहते नहीं थे कि हम मुक्त होवें
सदियों से हम सब पर शासन करने की चाह
उनकी तिलमिला रही थी
हमारे बच्चे अब चुनाव लड़ रहे थे
उन्हें पानी-पानी कर रहे थे
वे हमारे प्रतिद्वंदी थे
फिर भी विवशता में हाथ जोड़ना होता था
पर अंदर से ऐसा करते
वे कसमसा जाते थे
फिर भी उनकी जैकारियों के बीच
हमारी जैकारी उन्हें रुला रही थी
वे दिन रात सपने देखते थे
दिन पलटने के
इसलिए वे राजतंत्र की बड़वरगी गाते थे
और हमारे नायकों को
अपने चबुतरे पर गलियाते थे
पर पाँव हजारों हजार की संख्या में
उतर चुके थे गली में
रूखे-सूखे
यह संकेत खुशी के थे
पर एक और बड़ी खुशी का अभी इंतजार था

2.वे अभी भी बदल नहीं गए हैं!
.......
उनकी आवाज सुन रहा हूँ
ठीक से
वे क्या कह रहे हैं
यह अच्छी तरह मालूम है
वे लगे हैं जोर से
ताकि उखाड़ सकें हमें
हमारे सपनों को तोड़ सकें
वे शासन कायम करना चाहते हैं
मुट्ठी भर लोगों की
वे कई बार कह चुके हैं
कि प्रजातंत्र कोई तंत्र है!
वे जनता के दुश्मन हैं
उन्हें जाति-विशेष की आदत है
सिंहासन पर बैठे देखना
जाति आधारित गणना के वे विरोधी हैं
वे सिर्फ पशुओं की गणना कराएँगे
निम्न जाति से घृणा करेंगे
और न जाने किस मुँह से
विभेद पर सवाल उठाएँगे
एक सवाल है आप सभी से
यह गणना नहीं कराने मात्र से
रूक जाएगी उनकी विभेद की नीति
या जाति हो जाएगी समाप्त?
शासन या शासन को भी दंडित करने की
रखने वाले ताकत
आखिर किसके पक्ष में खड़े हैं?
क्या यह कहना जायज नहीं है
कि अंतिम पायदान पर खड़े आदमी को भी
कुछ सुख का सपना देखने का अधिकार है
या शासन में उसकी भी हिस्सेदारी है!

संपर्क: ग्राम+पोस्ट: करुप ईंगलिश, भाया: गोड़ारी, जिला: रोहतास(बिहार), पिन.802214

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