हिन्दी आलोचना का जनपक्ष

हिंदी आलोचना का जन पक्ष : समीक्षा संवाद
                                       डॉ. अमल सिंह 'भिक्षुक'

डॉ. हरेराम सिंह द्वारा लिखित 'हिंदी आलोचना का जन पक्ष' एक ऐसी पुस्तक है जो हिंदी साहित्य के विभिन्न पक्षों और प्रवृत्तियों को जनवादी दृष्टिकोण से समझने और समझाने का प्रयास करती है। यह पुस्तक आलोचना के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान मानी जा सकती है, क्योंकि इसमें साहित्य और समाज के बीच के जटिल संबंधों को विवेचित किया गया है। 
             पुस्तक के प्रारंभिक अध्यायों में प्रेमचंद की रचनाओं का विश्लेषण किया गया है। विशेष रूप से 'गोदान' और उनकी कहानियों में मानवीय संवेदना का विवेचन किया गया है। प्रेमचंद का साहित्य भारतीय समाज की विषमताओं और संघर्षों का जीवंत चित्रण करता है, जिसे लेखक ने बखूबी उजागर किया है। 'राजेंद्र यादव और उनकी दर्शन-दृष्टि' राजेंद्र यादव के साहित्यिक योगदान और उनकी विचारधारा पर आधारित यह अध्याय विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यादव की विचारधारा को जनवादी दृष्टि से देखा गया है और उनके साहित्य को समाज के विविध पक्षों के परिप्रेक्ष्य में परखा गया है।

साहित्यिक प्रवृत्तियाँ और सामाजिक संदर्भ को विशेष ध्यान में रखते हुए पुस्तक के अन्य अध्यायों में नई आर्थिक समीक्षा और हिंदी उपन्यास, छायावाद, नई कविता और नवगीत पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है। इसके साथ ही, सामाजिक बदलाव, दलित साहित्य और ओबीसी साहित्यकारों के योगदान को भी रेखांकित किया गया है। नारी चेतना और वर्ग-संघर्ष की दृष्टि से पुस्तक में नारी चेतना और वर्ग-संघर्ष के मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया गया है। वैदिक काल में वर्ग-संघर्ष का गवाह 'पहला-शुद्र' और 'इतिहास के पन्नों पर' जैसे अध्याय इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं। पुस्तक में क्षेत्रीय साहित्यकार और उनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया गया है। रोहतास की साहित्यिक उर्वर-भूमि और ओबीसी साहित्यकार, कुशवाहाकांत और बनाफर चंद्र जैसे साहित्यकारों पर विचार पुस्तक को क्षेत्रीयता और समकालीनता के संदर्भ में महत्वपूर्ण बनाते हैं। 

            आलोचनात्मक दृष्टिकोण की दृष्टि से डॉ. हरेराम सिंह ने इस पुस्तक में हिंदी साहित्य के विभिन्न पक्षों को समाजवादी और जनवादी दृष्टिकोण से परखने का प्रयास किया है। वे साहित्य को केवल शाब्दिक खेल नहीं मानते, बल्कि उसे समाज के विभिन्न वर्गों की आवाज के रूप में प्रस्तुत करते हैं। प्रेमचंद से लेकर छायावाद और नवगीत तक, सभी साहित्यिक धाराओं को जन पक्ष से जोड़कर देखने का उनका प्रयास सराहनीय हपुस्तक की विशेषता यह है कि यह केवल साहित्यिक आलोचना तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज के व्यापक संदर्भों में साहित्य के योगदान को भी रेखांकित करती है। लेखक ने साहित्य को एक सामाजिक दस्तावेज़ के रूप में देखा है, जो समाज में बदलाव लाने की क्षमता रखता है।

           कुल मिलाकर 'हिंदी आलोचना का जन पक्ष' एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो हिंदी साहित्य को एक नई दृष्टि से समझने में सहायता करती है। यह पुस्तक उन सभी पाठकों के लिए उपयोगी हो सकती है जो साहित्य और समाज के बीच के संबंधों को समझना चाहते हैं। डॉ. हरेराम सिंह का यह प्रयास हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
   
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