'ओबीसी साहित्य' को अकादमिक न्याय देने के लिए दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय-गया को हार्दिक बधाई। प्रारंभिक दौर में प्रमोद रंजन जी ने ओबीसी साहित्य पर बखूबी 'फारवर्ड प्रेस' के द्वारा विमर्श चलाया था। अवधारण पेश की थी डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह ने। जबकि इसके पूर्व हरेराम सिंह ने 'हंस' में एक पत्र के माध्यम से 'ओबीसी साहित्य' पर अंक निकालने हेतु सलाह दी थी। डॉ.ललन प्रसाद सिंह ने इसके सौंदर्य शास्र तथा दर्शन पर आधारित एक लेख लिखा था जो उनकी पुस्तक 'प्रगतिवादी आलोचना: विविध प्रसंग' में संकलित है। इस पुस्तक का विमोचन बीएचयू में हुई थी और इसकी रिपोर्ट 'हंस' में छपी थी। आज ओबीसी साहित्य , साहित्य के क्षेत्र में ओबीसी को ठीक उसी तरह 'रिप्रेजेंट' कर रहा है जैसे दलित साहित्य दलित को, आदिवासी साहित्य आदिवासी को। इसे भारत की आधी से अधिक आबादी का आइना कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारण किसान, पशुपालक और शिल्पकारों की जीवनगाथा पर साहित्यिक विमर्श बखूबी जो वास्तव में देश की रीढ़ हैं, हुआ ही नहीं था या जानबूझकर उसे दरकिनार कर दिया...
मैं चाहता था कि दिल उतारकर सीने की ताखे से, रख दूँ तेरे कदमों में और तुम्हें खुश कर दूँ डॉ.हरेराम सिंह कि क्या नौजवान साथी मिला है; तुम भी कह दो सहसा! पर हर बार ऐसा करने से, मुझे रोक लेती जिम्मेवारियाँ और मैं नये खिले उस फूल की तरह हो जाता; जिसकी कोमल पंखुड़ियाँ मुरझा जातीं, जेठ की दुपहरिया की धूप की मार से! मैं चाहता था आसमान से तारे तोड़कर लाऊंगा और सजाऊँगा घर ऐसा कि देखने वाले देखें कि घर ऐसे भी सजाया जाता है! जहां उजाला फैला रहता है हमेशा; पर,मैंने भूल कर दी तारों को शीतल समझकर और मेरा घर उजड़ गया! मैं चाहता था कि समाज धर्म और जाति के रास्ते से , दूर निकल जाए; इतना दूर कि कभी यह खबर न आए कहीं से कि किसी ने किसी की हत्या कर दी धर्म व जाति के नाम पर; पर,ऐसा हुआ कहाँ? दुनिया में होड़ मच गई इसी रास्ते सत्ता पाने की; दुनिया पर राज करने की। मैं कभी खून का छोटा कतरा देख सहम जाता था और कहाँ आज है? कि रोज मिलती है धमकियाँ मुझे खून करने की। मैं देखता हूँ हर जगह खून का कतरा बह रहा है जिस जगह बहना चाहिए थी प्रेम की निर्मल-धारा! पर,यह भी हकीकत है...
डॉ हरेराम सिंह का काव्य- संग्रह " हाशिए का चाँद " एक अवलोकन,,,, कविराज कवि। यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि कवि डॉ हरेराम सिंह अपनी उम्र से भी ज्यादा पुस्तकें लिखकर हिंदी लेखन साहित्य में एक रिकार्ड कायम किया है जो काबिले तारीफ है। कवि हरेराम सिंह एक सफल कवि के साथ- साथ कहानीकार, उपन्यासकार, समीक्षक और आलोचक भी हैं। " हाशिए के चाँद " में कुल 160 कविताएँ संगृहीत हैं। इनकी कविताओं में आम आदमी की त्राशदी की झलक देखने को मिलती है। आम आदमी का दर्द, पीड़ा और बेचैनी स्वतः- स्फुर्त महसूस होती है। श्रेष्ठ कविता की पहचान है कि पढ़ते ही समझ में आ जाए और पाठक रस से भाव- विभोर हो जाए और यह आकलन सापेक्ष दिखता है। कवि की आत्मा की निगुढ़तम आकांक्षाओं का आभास स्वप्नों के रूप में झलकता है और कवि जिन स्वप्नों को कविता में अंकित करता है, उन्हें रचने में उसके अभ्यंतर में भीषण संघर्षण- विघर्षण का मंथन चक्र चलता है। कवि की कविताओं में उसकी जीवन- कालव्यापी साधना निहित होती है। संसार के रात- दिन के सुख- दुःख, आशा- निराशा, स्नेह- प्रेम, कलह द्वंद के भी...
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