'ओबीसी साहित्य' को अकादमिक न्याय देने के लिए दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय-गया को हार्दिक बधाई। प्रारंभिक दौर में प्रमोद रंजन जी ने ओबीसी साहित्य पर बखूबी 'फारवर्ड प्रेस' के द्वारा विमर्श चलाया था। अवधारण पेश की थी डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह ने। जबकि इसके पूर्व हरेराम सिंह ने 'हंस' में एक पत्र के माध्यम से 'ओबीसी साहित्य' पर अंक निकालने हेतु सलाह दी थी। डॉ.ललन प्रसाद सिंह ने इसके सौंदर्य शास्र तथा दर्शन पर आधारित एक लेख लिखा था जो उनकी पुस्तक 'प्रगतिवादी आलोचना: विविध प्रसंग' में संकलित है। इस पुस्तक का विमोचन बीएचयू में हुई थी और इसकी रिपोर्ट 'हंस' में छपी थी। आज ओबीसी साहित्य , साहित्य के क्षेत्र में ओबीसी को ठीक उसी तरह 'रिप्रेजेंट' कर रहा है जैसे दलित साहित्य दलित को, आदिवासी साहित्य आदिवासी को। इसे भारत की आधी से अधिक आबादी का आइना कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारण किसान, पशुपालक और शिल्पकारों की जीवनगाथा पर साहित्यिक विमर्श बखूबी जो वास्तव में देश की रीढ़ हैं, हुआ ही नहीं था या जानबूझकर उसे दरकिनार कर दिया
और नहीं समझ में आए तो समझिए कुशवाहा बंधु- 1. " राम " को जितनी सामाजिक स्वीकृति है, दूसरे लोग जितना स्वीकारते व पूजते हैं, उतना सम्राट अशोक को नहीं ; और कुश , राम से हैं। सामाजिक स्वीकृति ही आपको उन्नत बनाएगी। इसलिए कुशवाहा और कोष्टक में शाक्य मौर्य दांगी आदि। इंडियन सोसाइटी कुशवाहा को जितनी सहजता से पचा लेगी, अपना लेगी। उतना मौर्य को नहीं । इसलिए कुशवाहा में सब पच जाएँगे। उत्पति भी इससे यानी कुशवाहा से बताना आसान व लॉजीकली है। मौर्य में इतिहास है चिपकाने वाला 'लासा' नहीं । राम लोगों के दिल पर राज करते हैं। हथियार के बल पर राजा बना जा सकता है, पूजनीय नहीं । कुशवाहा को गर्व होना चाहिए कि राम और बुद्ध उनके बीच से होकर भी , सबके हैं! राजपूत "काकन" को अपना मुख्य आइकन नहीं बनाया। भूमिहार "डोमकटार" को मुख्य आइकन नहीं बनाया। और बनाती भी क्यों? ठीक उसी तरह कुशवाहा "कोइरी" को अपनी मुख्य पहचान नहीं बनाया। क्योंकि वह लोकल आइडेंटिटी है। भारतीय समाज पर व जाति व्यवस्था पर अनुसंधान करने पर यह स्पष्ट होगा कि कुशवाहा ही केंद्र में क्यों, मौर्य नहीं । क्
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