'ओबीसी साहित्य' को अकादमिक न्याय देने के लिए दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय-गया को हार्दिक बधाई। प्रारंभिक दौर में प्रमोद रंजन जी ने ओबीसी साहित्य पर बखूबी 'फारवर्ड प्रेस' के द्वारा विमर्श चलाया था। अवधारण पेश की थी डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह ने। जबकि इसके पूर्व हरेराम सिंह ने 'हंस' में एक पत्र के माध्यम से 'ओबीसी साहित्य' पर अंक निकालने हेतु सलाह दी थी। डॉ.ललन प्रसाद सिंह ने इसके सौंदर्य शास्र तथा दर्शन पर आधारित एक लेख लिखा था जो उनकी पुस्तक 'प्रगतिवादी आलोचना: विविध प्रसंग' में संकलित है। इस पुस्तक का विमोचन बीएचयू में हुई थी और इसकी रिपोर्ट 'हंस' में छपी थी। आज ओबीसी साहित्य , साहित्य के क्षेत्र में ओबीसी को ठीक उसी तरह 'रिप्रेजेंट' कर रहा है जैसे दलित साहित्य दलित को, आदिवासी साहित्य आदिवासी को। इसे भारत की आधी से अधिक आबादी का आइना कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारण किसान, पशुपालक और शिल्पकारों की जीवनगाथा पर साहित्यिक विमर्श बखूबी जो वास्तव में देश की रीढ़ हैं, हुआ ही नहीं था या जानबूझकर उसे दरकिनार कर दिया
अर्थशास्त्री कीन्स के बारे में... ..............सुमन कुशवाह. कीन्स व्यष्टि -अर्थशास्त्र के जनक माने जाते हैं.इनका जन्म 5जून 1883 ई.को कैंम्ब्रिज ,इंग्लैंड में हुआ. वे जोन मेनार्ड केन्स मार्शल के शिष्य और king's college कैंब्रीज के प्रशासक एवं अर्थशास्त्री रह चुके जॉन नेविल कींस के पुत्र थे.उनकी माँ फ्लोरेंस एडेंस किंग्स कॉलेज की प्रथम स्नातक महिला थी.वह साल 1902 का था.अपने जमाने के मशहूर कला प्रेमियों से भी उनकी दोस्ती थी जिनमें वर्जीनिया वुल्फ भी एक थीं.हालांकि इनका बचपन अभाव में तो नहीं गुजरा पर संघर्ष से कभी पीछे न रहे.इन्होंने सन् 1905 में बी.ए. तथा 1909 में एम.ए.की शिक्षा प्राप्त की.युवावस्था में कुछ के साथ इनके समलैंगिक रिश्ते भी रहे.जिसका अंत प्राय:1985 में रूसी नर्तक लिडा लोपोकोव से शादी के बाद हो गया.1920के दौरान कीन्स ने बेरोजगारी,धन और कीमत के अंतर्संबंधों को लेकर जो सूत्र दिए वे अर्थशास्त्र में काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं.'धन की संधि'(1930)इनकी काफी चर्चित पुस्तक रही.इन्हें 1942 ई.में वंशानुगत बडप्पन का खिताब भी मिला.उनका मानना है कि मजदूरी में कमी से बेरोजग
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