समय से संवाद करता युग
समय से संवाद करता युग : एक मूल्यांकन
•रामकृष्ण यादव
भाई डॉ.हरॆरामजी की लगभग दो दर्जन रचनाएं विभिन्न प्रकाशनों से छप चुकी है। लेखन कला की उनमें अद्भुत क्षमता हैं।वे विगत 10 वर्षों से निरंतर लेखन कार्य कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने अपनी सद्यः प्रकाशित एक लंबी कविता पुस्तकाकार रूप में मुझे भेंट की। एक कविता- वह भी सौ पृष्ठों की! यह लम्बी कविता उनका एक अनूठा प्रयोग है। हो सकता है मुक्तिबोध की लंबी कविता पढ़कर उन्हें यह कविता लिखने की प्रेरणा मिली हो। वैसे कुछ अन्य कवियों की लंबी कविताएं भी प्रकाशित हुई हैं और चर्चित भी। डॉ हरेराम सिंह की कविता का शीर्षक है- 'समय से संवाद करता युग'।
एक युग कालखण्ड से निर्मित होता है। काल यानी समय। एक कालखंड में जीवन के विभिन्न रंग,रूप,स्थितियाँ परिस्थितियाँ समाहित रहती हैं। जैसे ही स्थितियाँ- परिस्थितियाँ बदलती हैं , एक नये युग का शुभारंभ होता है। हालांकि संधिकाल में यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से परिलक्षित नहीं होता है। पर कालांतर में जब हम बदलाव अनुभव करते हैं, तब हम एक नये युग का हिस्सा होते हैं। समय निरंतर चलते रहता है। इसलिए हम कब एक नये युग में प्रवेश कर जाते हैं, पता ही नहीं चलता।
अब तक मनुष्यता के विकास के कई युग बीत चुके हैं। आज मनुष्य प्रोद्यौगिकी के विकास के नये दौर में है। बदलाव स्वाभाविक है। हरेराम सिंह ने अपनी इस लम्बी कविता में पुरातन युग से नवीन युग तक के बदलावों को रेखांकित किया है और उनका सम्यक मूल्यांकन भी। हर व्यक्ति युगों को अपनी दृष्टि से देखता है और व्याख्यित करता है। हरेराम सिंह ने समय सापेक्ष दृष्टि से नये-पुरातन युग का अवलोकन किया है और बदलावों को वस्तुनिष्ठ ढंग उद्घाटित किया है।
समय से संवाद अतित को याद करने के साथ-साथ उससे बहुत कुछ सीखने एवं प्रेरणा लेने के अलावा वर्तमान को एक सम्यक् दृष्टि से अवलोकन करना है। मनुष्य युगों-युगों से संघर्ष करता रहा है-वर्तमान को सुंदर एवं बेहतर बनाने के लिए। पर वर्तमान में पुरानी चुनौतियों के साथ-साथ नई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। मनुष्य इन चुनौतियों से पार पाने की निरंतर कोशिश करता है। इस क्रम में वह द्वंद्व, निराशा, तनाव, क्लेश, पश्चताप के दौर से गुजरता है,पर जिजीविषा उसके अस्तित्व को मिटने नहीं देती और वह संघर्ष के पथ पर पुनः अग्रसर हो जाता है।
'समय से संवाद करता युग' में कविता का नायक विभिन्न चुनौतियों से जुझता है, संघर्ष करता है। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए वह चर- अचर प्राणियों से संवाद करता है। वह कहता है-
'मैं युग हूं
समय से संवाद करना मेरी नियति है
मैं ऊर्जा पाता हूं सूर्य की किरणों से
मैं खुशबू पाता हूं बगीचे के फूलों से
मैं अन्न पाता हूं हरे-भरे खेतों से
मैं फल पाता हूं इन दरख्तों से
मैं जल ग्रहण करता हूं नदियों से
मैं गाना सिखता हूं इन चिड़ियों से
मैं हंसना सिखाता हूं बालको से'
नायक को संवाद से ऊर्जा मिलती है। वह चर-अचर प्राणियों से संवाद के साथ प्रकृति से बहुत कुछ सीखता है। उससे प्रेरणा लेता है -
"मैं बादलों की गड़गड़ाहट से सीखता हूं
मैं समुद्र से की गर्जन से सीखता हूं
मैं चंचल मछलियों से सीखता हूं
मैं दरार में उग आए पीपल के पौधे से सीखता हूं
मैं लौकी की लत्तरों से सीखता हूं
मैं उड़ती तितलियों से सीखता हूं
मैं कल-कल करती नदियों से सीखता हूं
मैं चलती हवाओं से सीखता हूं "
कविता का संवादरत नायक जब तनाव, निराशा, क्लेश के क्षणों में अपने को पता है तब वह खुद से सवाल करता है-
"क्या मैं सचमुच अकेला हूँ
तो उत्तर मिलता है- नहीं
और यह सच भी है
आदमी नहीं तो आस-पास के पशु-पंछी
पेड़ -पौधे,जमीन - आसमान
सब के सब मुझसे बतियाते हैं "
संवादरत नायक की चिंता, चिंतन और स्वप्न इस पूरी कविता का मूल स्वर है। कविता का नायक वस्तुपरक दृष्टि से स्थितियों को देखता है। बदलते युग की प्रवृत्तियों पर चिंता व्यक्त करता है और अपनी विचार-कल्पना के सहारे जिजीविषा को बरकरार रखना चाहता है। वह समतामूलक भेदभाव रहित न्याय प्रिय समाज का आकांक्षी है। वह समाज में पनप रही विकृतियों को मिटाना चाहता है। वह अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य को संवारना चाहता है।
कविता का संवादरत नायक चर-अचर प्राणियों से संवाद के साथ-साथ संघर्ष भी करता है। वह जानता है कि बिना संघर्ष के वह मिट जाएगा, इसलिए वह प्रकृति से ऊर्जा और प्रेरणा ग्रहण कर निरंतर जीवन पथ की ओर अग्रसर है। वह चर-अचर प्राणियों से हमेशा संवाद बनाए रखना चाहता है। यह उसकी नियति भी है।
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