पहाड़ों के बीच से...

हरेराम सिंह की चालीस कविताएँ
१.
हम बागी थे
..............
हम बागी थे
सत्ता हमें इसी नाम से जानती थी
हम किरकिरी थे उसकी आँखों की;
वह हमसे करवाना चाहती थी जयगान,
और मैं था कि गा नहीं पाता था चापलुसी का गान
वह हमसे नफ़रत करती थी जैसे मैं उससे
इस नफरत के खेल में मैं मारा जाता था
वह जीत जाती थी,मैं हार जाता था
मगर इस हार-जीत के खेल में,
वह मुझसे डरने लगी;
न जाने क्यों वह हमसे दूर रहने लगी
फिर उसने उपाय सोची
मुझे पटाने की,
पुरस्कार देने की।
और उसने एक दिन भरे महफील में,
मुझे बड़ा कवि कहा,
और मैं खुश हो गया पुरस्कार पा!
फिर क्या था उसकी तारीफ में हर इक कसीदे काढ़ता रहा
और दरबार में बहबाही मिलती गई
अतीत का गीत गाता रहा
मगर,जनता मुझसे दूर होती गई,
हमारी कविताओं का संसार सीमटता चला गया,
और एक दिन खुद इतना सीमट गया
कि फंदे के सिवा रास्ता न बचा!

२.
आवाज मद्धिम-सी
...…..
सांझ परह लौटते वक़्त खेत से,
दिल धड़कता रहा!
बीमार बच्चे की बाँसुरी की आवाज,
आज सुनाई नहीं पड़ रही थी;
दीवट पर का टिमटिमाता दीपक,
हवा के झोंकों के आगे,
झुक जा रहा था बार- बार!

चारों तरफ गहरा अंधेरा व्याप्त था,
झींगुर की आवाज़ में,
वह उल्लास नहीं थी;
जिसे पिछले दिनों सुना करता था।

बैलों की घंटियों की आवाज भी मद्धिम थी,
और पैर आगे बढ़ने की बजाए;
बारंबार पीछे फिसल रहे थे!

महामारी आई थी,
अच्छी बारिश जो नहीं हुई थी।
सरकार गिनती गिनाये जा रही थी-
अपनी उपलब्धियों की।
और हम थे कि मरे जा रहे थे,
महामारी आई नहीं थी मंदी की;
लाई गई थी।

और ऐसा कहने पर कहीं ठूंस न दिये जाएं,
जेल के शलाखों के पीछे,

बड़ा भय था!
हम किसान थे,
हम पर किसी तरह की रियायत नहीं थी;
गिद्ध की तरह सभी की निगाहें,
हम ही पर टिकी थीं कहें दीठ गड़ाए
वे बारंबार देख रहे थे;
और उन्हें देख,
हम समझ जाते थे कि कोई न कोई
आफ़त आने वाली है!

जब घर गया,
पत्नी सुबह रही थी;
और घर
भांय-भांय रो रहा था!

३.
हे पलना के लाल!
.....................
कभी सोचती हूँ तो सिहर  जाती हूँ
तुम्हारे बारे में ,
कि कैसे पालूंगी -पोसूंगी तुम्हें?
और क्या खिलाऊंगी-पिलाऊंगी?
घर में एक दाना नहीं है,
और तुम्हारे बाप पीकर दारू ,
सोए रहते हैं!

अगर बोलती हूँ उन्हें
तो वे बुरा मान जाते हैं,
तुम्हीं बताओ मेरे पलने के लाल ,
तुम्हें कैसे पालूँ?
छाती में दूध नहीं है,
कैसे पीलाऊं?

चाहती हूँ काम करना,पर काम नहीं;
हमारी मन की बात कोई नहीं सुनता,
सब अपनी सुनाते हैं!
लोग कहते हैं घर में  पैसा नहीं,
आर्थिक मंदी की  मार झेल रहे हैं
यह आर्थिक मंदी किस बला का  नाम है?
हमें क्या मालूम?

हमें तो बस तेरी चिंता सताए जा रही है;
कि कुछ मजूरी मिले,काम मिले
तो कुछ खाएँ और तुझे
स्तन पान कराएँ!

४.
कश्मीर
..........
मेरे साथी ,
कैसे कह देते हो कि कश्मीर हमारा नहीं है?
कश्मीर हमारा है,हमारे पूर्वजों का है;
सम्राट अशोक का है,दद्दा  श्री का  है
हरि सिंह का है;फिर हमारा है!
भकुआकर क्यों देखते हो?
क्या तुम्हें पता नहीं कि मुहम्मद गजनवी हारा था
दद्दी श्री से
और हरि सिंह की संधि भारत से थी!
अगर नहीं पढ़ा है तो पढ़ लो इतिहास,
फिर भूलकर भी मत कहना कश्मीर हमारा नहीं है;
और सुन लो माउंटबेटेन  की चर्चा मत करना,
जो आए थे भूख मिटाने भारत
और यहां की वीरता देख भागे थे सियार बन!
क्या तुम्हें मालूम नहीं है साथी
कि कश्मीर की दिव्यता की सुरक्षा के लिये
भारत का  बच्चा बच्चा लड़ भिड़ेगा,
पर कश्मीर को देगा नहीं!
क्या ़यह नहीं जानते हो साथी
कि कश्मीर भारत का  विचार है,प्रण है
प्राण है,दिव्यता ता अवतार है!

५.
स्त्री का दर्द
..........

स्त्री का दर्द स्त्री ही जाने,वेद-पुराण भला क्या जाने?
न हिंदू जाने न मुस्लिम जाने,जाने है तो बस स्त्री जाने!

घर-दुआर सब अंजोरा करिके,खुद के रही उदास।
मरद को तनिको नाहिं बुझाए,दंभे खालिस चिल्लास।

अपने तो बच्चा जनि, हमनी पर रोब दिखावे।
सखी-सलेहर घर गई,तो कुल्टा कहि लजावे।

मरद की जाति कुत्ता नियन,दस हांड़ी चाटे।
स्त्री खिड़की से घुरि लिये,तो मारे बाते बाते।

कहां की इंसाफ यह,हम स्त्री सब पूछतानी?
इंद्र था व्यभिचारी,फिर कैसे देवता कहतबानी?

हमको रखत बुरका में,अपने घूमै छुटै मुंहानी।
बुरका खोली रखी दिहीं तो,हाय-तौबा मचानी।।

शाम पहर आई तो खाना बनिके हो जइहें तैयार।
नाहिं तो मरद झोंटा पकरी,खाए लगिहें कपार।।

तियन में नमक कम होइहें,तो देबे लागी गाली।
प्यार में कमी होई त,कहिहें लेबू तू कान के बाली?

आपन काम निकलते ,मरद भूल जाले मेहरारु।
स्त्री के मन के बात न पूछे,अउरी कहे गंवारु।।

जेकरा से सभे मरद जमलन,ओकरे पर धौंस?
जनम जनम के कवन किरि़या कि तिरिया रहे मौन?

६.
युद्ध
.......
कब तक युद्ध लड़ोगे?
और किसके नाम पर?
जब तुम्हारे कोई रह ही नहीं जाएंगे,
फिर किसके लिए लड़ोगे?
क्या तुम्हें पता नहीं कि युद्ध
किसी समस्या का अंतिम समाधान नहीं!
युद्ध आते हैं तबाही लेकर,
बहू -बेटियों की इज्जत का चोखा बनाने,
हमारे तुम्हारे घर,
और हम हैं कि समझ ही नहीं पाते
उसका असली चेहरा
और खुद को झोंक देते हैं युद्ध में
किसी किसी कारण को लेकर
और भूल जाते हैं हम-
युद्ध के आर्थिक कारण,
और धर्म के नाम पर लूटी जाती हैं युद्ध में,
बेगुनाह,बेकसूर दुनिया की औरतें!

७.
नदी का समझाना
................
कब से बैठा हूँ
नदी किनारे; कंकड़ियाँ
फेंक रहा हूँ
प्यार का गीत गुनगुना रहा हूँ
स्वदेश की बात सुना रहा हूँ
नदी सुन रही है;मैं सुना रहा हूँ
नदी कुँवारी है;
उससे गहरी यारी है
कृषकों की दुलारी है
बहुत भोली, बहुत प्यारी है

शाम होने वाली है
मैं घर जाने वाला हूँ
नदी के सुख-दु:ख की कहानी
बच्चों को सुनाने वाला हूँ

नदी हमारी दोस्त है
जीवन मरण की संगी
क्या खोया,क्या पाया?
क्या अभिमान बचा पाया?
इन सबकी गवाहन है;
नदी आँखों की निंदारन है!
फसलों की उर्वारन है!

हल्की ठंडी हवा बह रही है;
नदी कुछ समय ठहरने की ,
उम्मीद लगाई बैठी है;
घर की चिंता
मुझे खाए जा रही है;
नदी मुझे अपनी धार से ,
समझाए जा रही है!

८.
गर्मी में चिड़ियाँ
.................
बाप रे बाप!
इतनी अधिक धूप,
कि होंठ सूखे जा रहे हैं;
पसीने से तर- ब -तर है पूरी देह,
हवा चल भी नहीं रही है,
लेग कहते हैं पूरवा हवा में ऐसी ही होती है
लोग परेशान हो जाते हैं;
पछेया राहत देती है,
पर चल तो रही है पूरवा!
सीवान पर पाँच ताड़ के पेड़ गरमी से अलसाये
मंद मंद नींदिया रहे हैं,
गांव का झबरा कुत्ता नाली में,
हम फर हंफर हांफ रहा जीभ निकाल!
और पेड़ पर,
एक नहीं;कई चिड़ियाँ
इंतजार कर रही सूरज ढलने की,
शाम होने की,
ताकि कुछ बच्चे निकलें फाँड़ में ले चबेना;
और मुँह में फाँकते फाँकते कुछ दाना
गिर पड़े जमीन पर,तो शाम का कलेवा हो जाए;
यहीं सोच रहीं चिड़ियाँ
और टुकुर-टुकुर ताक रही पेड़ से नीचे
और उमस है कि कम होने की वजाए बढ़ रहा है!

९.
 चाँद के घर
.............
चाँद के घर जाना है;
क्योंकि वह हमारा मामा है।
उससे हजारों वर्षों का पुराना नाता है,
हमारा, हमारी माँ का,हमारी नानी का!

चाँदा मामा पहले रोज आते थे हमारे आँगन ;
खाने के वक्त दूध-भात लेकर,सोने से पहले
कभी-कभी सोने के बाद स्वप्न में,
ढेर सारे खिलौने लेकर,मिठाई लेकर,
नानी के गाँव ।

और कभी -कभी वे ही चँदा मामा ,
मुझे सैर कराने ले जाते अपने गाँव ,
तारों के बीच,नक्षत्रों के पास
और खूब मजे कराते!

अब शहरों में रहता हूँ मैं
चँदा मामा नहीं उतरते हमारे आँगन;
क्योंकि आँगन बहुत छोटा है,
छोटे होते दिल की तरह।

लगता है वे नाराज हैं;
मुझे मनाने की कोशिश करनी होगी,
अपने दिल के आँगन को ,
और बड़ा करना होगा।

१०.
आसमान
..........
आसमान नीला है,
बहुत नीला;
इतना कि कह नहीं सकता,
क्या इतना नीला आकाश किसी ने कभी देखा!
अगर नहीं;
तो आकर देख ले
कितना है नीला!
बात क्या है?
क्या उसे किसी से प्यार है?
अगर हां तो अच्छी बात है,
सबको प्यार होना चाहिए,
आसमान की तरह!

११.
इंसानियत की तलाश में
..........

भीड़ है और भीड़ में अपनों को तलाशना आसान नहीं।
अफ़वाहें बहुत हैं मगर उन पर यक़ीन करना आसान नहीं।

कुछ लोग हवा दे रहें हैं कि हम हैं तो हिंदुस्तान है,वे मुग़ालते में हैं और कुछ नहीं।

हिंदुस्तान हमारे जिगर में भी बसता है,बस यहीं कहना है कुछ और नहीं।

सुबह की धूप गुनगुनी है,कलियाँ खिल आई हैं;
बच्चे मुस्कुराते रहें बस इतनी-सी चाहिए कुछ और नहीं।

मुल्क हमारा नित्य नयी बुलंदियाँ छू रहा रहा है,बस और क्या चाहिए ?

जो खामोश धड़कने थीं उसमें स्पंदन आ जाए, बस और क्या चाहिए?

हम तो मिट्टी के पुतले हैं इंसानियत में यकीन करते हैं।
जो हम पर मरते हैं हम भी उस पे मरते हैं।



१२.
चलो चलें खेत में
.................
चलो चलें खेत में,खूब मजे करेंगे खेत में।
चने मटर खूब लगे हैं चलो घूमने खेत में।।
भूख लगी है जोरो की,ईख चबाएं खेत में।
चलो चलें ककड़ी तोड़ने,महतो जी के खेत में।।
फूंट फूटे हैं,खीरा लगे हैं हरे-भरे खेत में।
मस्ती करेंगे,गुनगुनाएंगे गीत फसलों के खेत में।।
खेत हमारे शान हैं,कोयराने की मचान है।
जिधर देखो उधर,सुग्गों की शान है।।
मैना की झुंड वहाँ,घरवैयों के दालान हैं।
लहलहाते खेत,किसानों के अभिमान हैं।।
सुबह के सूरज के साथ किसानों की यारी है।
बैलों की जोड़ी जो खेतों में है,बहुत प्यारी है।।
सुबह से शाम तक किसान रहते हैं खेत में।
महाजनों को अन्न वे नहीं देंगे सेत में।।
जो रोपेगा धान-गेहूं,उसी के होंगे खेत।
वरना दिखाएंगे बाबुगीरी तो खाएंगे चाबुक-बेंत।।

१३.
मिंटुआ बचेगा नहीं
.........................
गाँव का मिंटुआ
आज है शिक्षा विभाग में
रोज जाता था समय पर स्कूल
पर,गाडी खराब होने की वजह
समय से  तीस मिनट लेट से पहुँचा स्कूल
देखा-साहब आए हैं
और बैठे हैं हेडमास्टर की कुर्सी पर
और बेचारे उसके हेडमास्टर साहब!
टुकुर टुकुर ताक रहे हैं एक दूसरी कुर्सी पर बैठे बैठे
अभी मुश्किल से पाँच माह हुए हैं विद्यालय का प्रभार लिए!
बेचारा मिंटुआ हेडमास्टर के चैंबर में जाते ही भकुआ गया
और ऊपर से चकरा गया!
सामने साहब को देखकर
और चार माह पहले का वह दिन याद आने लगा
जब अरुण सर व अफताब सर व हरिनाथ सर से  ,                                                       वसूला गया था दस दस हजार नगद!
और साहब का ईशनाथ असिस्टेंट खरीदवाया था   ,                                                   चांदी की बनी पंद्रह सौ रुपये की कलम!
बेचारा अफताब मर गया था जीते जी!
और पत्नी को अपैंडिक्स का अॉपरेशन कराने का सपना                                        छोड दिया था हमेशा हमेशा के लिए
और किसी तरह बच पाया था शैतान से!
आज मिंटुआ बचेगा कि नहीं!
वह बड़ा जद्दोजहद में है ?
कि करे सो तो क्या करे ?
उसकी बेटी है बीमार!
पैसे हैं कि घर पर हैं नहीं ?
तीस मिनट लेट है अरूण ,अफताब व हरिनाथ की तरह!
और पेमैंट है कि चार माह से मिले नहीं!
आखिर वह क्या करे?
किसके पास जाए ?
कैसे गिड़गिडाए ?
कि वह शिक्षक है ,नियोजित ही सही
पर,पैसे नहीं हैं!

१४.
टुकड़खोर
...............
आज जहां देखो वहां टुकड़खोर ही टुकड़खोर!
बड़े बड़े टुकड़खोर!
लम्हर लम्हर मुंह,लम्हर लम्हर हाथ
एक ही बार में निगल जाएं
पूरी पृथ्वी,पूरा आसमां,पूरे कायनात
इतने भूखड़े हैं ये टुकड़खोर!
न जाने किस अजगर के यहां पल रहे थे?
न जाने इतना बड़ा पेट कहां से पाए थे?
आश्चर्य होता है!
और न जाने किस नक्षत्र में पैदा हुए थे ये टुकड़खोर?
जिनके पास सैलरी लाख लाख रुपये
करोड़ करोड़ रुपये
पर,इतने भूखडे कि जो भी मिले उससे खा लेने मे शर्म नहीं!
खाकर ढकारने के उस्ताद!
रिटायरमेंट के बाद भी बना लिए हैं ठौर
लुटने का,माल पीटने का
इसलिए जमकर बैठ गये हैं यहां वहां ,ये टुकड़खोर!
सैलरी नहीं तो दलाली सही!
और यदि दलाली नहीं चली
तो भेडुआगीरी करेंगे ये टुकड़खोर!
यहां वहां जाएंगे
कुछ इधर,कुछ उधर बतियाऐंगे
चुपडी रोटी जोडियाऐंगे
किस्मत पर इतराऐंगे
ये टुकड़खोर!

१५.
महिषासुर
........
महिषासुर !
हर साल तुम अचानक याद आ जाते हो,
और ऐसा न जाने क्यों लगता है कि तुम्हारे साथ न्याय नहीं हुआ है.
तुम्हारे चरित्र पर लांछन लगाया गया है जानबुझकर,
तुम्हारे दुश्मनों द्वारा!
आखिर क्यों लड़ते थे तुम?
यह जानने की कोशिश कितने लोगों ने की?
कभी पूछो तो उनसे कि तुम क्या हकीकत में दुराचारी थे?
कि तुम पर थोपी गई थी यह कहानी?
क्या यह सही नहीं है कि अनार्यों की लड़ाई लड़ रहे थे तुम
और आर्य थक गये थे तुमसे लड़ते लड़ते
तुम आंखों की किरकिरी बन गये थे उनके
और अंत अंत तक चारा नहीं चला उनका
तो और क्रोधित हो गए तुम पर!
किंतु तुम भी बड़े अद्भुत थे महिषासुर
कि अंत अंत तक अकेला लड़ना स्वीकार किये
पर,अधीनता नहीं स्वीकारे अंत अंत तक आर्यों के!
क्या तुम अनार्य जनों,आदिवासी जनों की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे महिषासुर?
अपनी धरती,अपनी इज्जत की लड़ाई लड़ना क्या बुरी बात होती है महिषासुर?
तुम वहीं तो लड़ाई लड़ रहे थे महिषासुर!
और आंख में खटकने लगे दिकुओं के!
कैसे बताऊं महिषासुर?
कि वर्ग संघर्ष की उपज थे तुम
मेरे प्रजापालक,महिष पालक ,महिषासुर!
अपने जमाने के अग्रचेता,देशभक्त महिषासुर
मूल निवासियों की माँ,बहनों की लाज महिषासुर!

१६.राजा की नीति
........
हमसे क्या पूछते हो?
उन्हीं से पूछ लो;
जो बांधकर चलते हैं ,
बड़ी पगड़ी
और जिन्हें बड़ा दंभ है-
ख़ुद पर,ख़ुद के करनामें पर!
इन दिनों
लोग पूछतें हैं हमसे
कि राजा कैसा है?
उसकी नीति कैसी है?
मैं कहता हूँ;
यह पूछते क्यों हो?
जो तुम पर बीत रही,
उसी से पूछो!
और उससे भी नहीं हो,
तो चले जाओ उस माँ के  पास;
जिसका बेटा बेरोजगार है
और बहू विवश होकर,
चली गई है मायके
कि जबसे उसका पति कमाने नहीं लगेगा
तब तक वह रहेगी अपने बापू के पास
और करेगी काम पिता के कंधे से कंधे मिलाकर
और उससे भी न हो तो चले जाओ उन मजदूरों के पास
जो लॉरियों की इंतजार में दिनों बिता देते हैं
पर नहीं आती हैं लॉरियां
फिर माल उतरे कहां से
और पैसे मिले कहां से?
और उससे भी न हो
तो चले जाओ चकला गृहों में,
और वेश्याओं की उदास शाम को,
उंगली पर गिन आओ?
फिर हमसे न पूछना
कि राजा कैसा है
और उसकी नीति कैसी है?
क्या पूछते हो?

१७.
बेईमान वक्त
......
जिद मत कर
बेईमान वक्त
मुझे भी जीने दे
मर जाऊंगा तो
तुझे क्या मिलेगा?
जिंदा रहुंगा तो
तुझे जरुर कुछ दूंगा
इतना तो मुझ पर उम्मीद कर
बहुत कुछ खाया हूं
खिलाऊंगा भी
कुछ वक्त तो दो
पास सुलाऊंगा भी,
एक घर तो बसने दो
आरजू है बस इतनी मेरी!

१८.
वे सत्ता में हैं
.......
तू हँस ले या रो ले
कोई सुनने वाला है क्या?
मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं
कि तेरी किस्मत बदलूं
तुने गलती की है
सज़ा तुम्हें ही मिलेगी
उनके द्वारा
जो भयानक गलती करते हैं
पर,वे सत्ता में हैं!

१९.
गैंग ऑफ तिथि नहीं बताएंगे
.................................
इस नाजुक समय में
विभत्स लोगों की राय है
तिथि नहीं बताएंगे
सवर्ण आरक्षण लाएंगे
चाहे जो हो
तिथि नहीं बताएंगे
बहुजनों को सताएंगे
गरीबों को रुलाएंगे
तिथि नहीं बताएंगे
कर्मचारियों को सताएंगे
शिक्षकों को तड़पाएंगे
तिथि नहीं बताएंगे
बेरोजगारों से पकौड़ा छनवाएंगे
तिथि नहीं बताएंगे
किसानों को भूखे मरवाएंगे
तिथि नहीं बताएंगे
भ्रामक राष्ट्रवाद का गीत गाएंगे!
तिथि नहीं बताएंगे
सबको बरगलाएंगे!

२०.
माँ
........
मां बिना मैं सूख जाऊंगा
मां मेरी नदी हैं
मैं प्यासी मीन!
मां मेरी धरती है
मैं उसकी फसल!
मां है तो मैं हूँ
वरना ,मेरा अस्तित्व कहां?
मां ते नाभि-नाल हूं
मां से भोजन ग्रहण किया हूँ
जन्म से पूर्व
मैं एक बीज था,
जिसे बडे जतन से छुपाकर,
बचाकर मेरे अस्तित्व की रक्षा,
मेरी मां ने की,
मुझे जमने को लिए
उचित हवा,पानी व मिट्टी दी;
तब मैं बचा
वरना कहां बच पाता?
बचना इतना आसान भी तो नहीं?
२१.
कैसे बताऊं
....
कैसे बताऊँ मित्रों
कि सच का गला
किन किन लोगों द्वारा
घोंटा जाता है
सफेदपोश से लेकर हंटर वाले तक
सब इसमें लिप्त हैं
और प्रमोशन
सच का गला दाबने के लिए ही मिलता है
और अधिकारी थैंक बोलता है
अपने कनिय को
तब जब आप भी उसके इस काम में
बनते हैं सहयोगी
वर्गों का खेल यही है
मिलाना जुलाना
और गलत काम में
हाथ न बँटाने पर
मखी की तरह
निकाल बाहर फेंकना

२२.
उंगलियां गाँधी जी सी
..........
गांधी जी की कटी उंगलियां देखकर डर गया
कि गोड्से की औलादें
कहीं मेरी तरफ तो नहीं बढ़ रहीं
तेज़ ,धारदार छुरियां लेकर

मैं सोचने लगा
कि पढ़ा था गांधी की हत्या गोली से हुई थी
फिर उंगली कैसे कटी हुई दिख रही थी?
मैं खुद आश्चर्यचकित था!
तब तक खून की दो बूंदें टपक पड़ीं मेरे सर पर
और भ्रम टूट गया!

लगा एक एककर मार दिए जाएंगे
जब गांधी नहीं बचे,तो हम क्या खाक बचेंगे
तभी सुनाई दिया
हाहाकार,फिर आर्तनाद
"संविधान खतरे में है"
मैं समझ गया
कि हम सब बचने वाले नहीं हैं
मौत नजदीक है!

जय श्री राम के नारे गुंज रहे थे
हम निश्चिंत थे
कि हम कुशवाहा हैं कुश के वंशज
राम तो कुश के पिता थे
पर,गांधी के हत्यारे
हमें समझ रहे थे रावण
जबकि हमारा संबंध
कभी श्रीलंका से न था
लोग कहते हैं रावण ब्राह्मण था
हम तो ब्राह्मण भी न थे

फिर गोड्से के बच्चे
क्यों कर रहे थे बद्नाम श्रीराम को
मैं समझ नहीं पा रहा था!

२३.
रगड़ खाता आदमी
.......….
बदलते हैं पैरहन
बदलता है आदमी
समय के चक्र में तिलियों से रगड़ खाता है आदमी

दूर की कौड़ी बनती जाती है अदना सी ख्वाब
ख्वाबों की भूलभुलैया में खोता जाता है आदमी

चतुर हैं,चतुरानन हैं
मंगल हैं,मंगलकानन हैं
अमंगल के बियाबान में फंसते जाता है आदमी

रंग है,रूप है
गंध है,गंधक है
बारूद की खटिया पर अनचाहे
आराम फरमाने चला जाता है आदमी

रिश्ते का मूल्य पैसे के आगे दम तोड़ते जा रहा
किसे कहोगे अपना?
फिर भी बच्चे ऐसे हैं
जहां जाकर सुकून पाता है आदमी!

बच्चे पर भी खतरा कम नहीं है
ऐसा नहीं है,जहां हम हैं वहां डर नहीं है
इन डरे डरे लोगों के बीच
रोटी के लिए निडर बना है आदमी!

२४.
आंगन
.....
आंगन बाड़े सूना सूना ,मनवा उदास बाड़े
जमले देसवा में,नयका फिरंगियन
नाही होखे गरीबी के उपचार हे भईया!
कहवों कटात बाड़े,नक्सली कहात बाड़े
कहवों लुटाईल बहिनी के इज्जत!
कहवों जुलिमिया सरकार हे भाई!
कहे के त आपन बाटे,नाही कबो आपन बाटे
अपने त बोलत बाटे,हमनी के मुंह पे लगाम बाटे
तब कईसे कहीं उ आपन बाटे
रोअत बाड़े गांव के बहरसी झपसीअ दादा
गरीब छलल गइले,सरकार के गलत वादा
वोटवा हमार रहल,बबुआन के बेटवा खुशहाल रहल
येह सरकार में ,गरीब तबाह रहल!
२५.
इंसान का जीना
......................
मैं जीना चाहता हूँ-
पूरा समुद्र,पूरी धरती,पूरा आकाश
मैं जीना चाहता हूँ-
पूरा पहाड़,पूरी नदियाँ,पूरा मैदान
मैं जीना चाहता हूँ-
हर फूल,हर पत्ती,हर डाल
मित्रो मैं जीना चाहता हूँ-
पूरी कायनात और
सभी को भरपूर,
इसलिए मुझे बचाओ
क्योंकि मैं जीना चाहता हूँ!
२६.
बोल
.....
प्यार के बोल
बोल रे साथी!
बोली में मिश्री घोल रे साथी!
गंगा की लहर लोल रे साथी!
प्यार के बोल,बोल रे साथी!
यह जीवन बहुत छोटा है,
फिर दिल क्यों खोंटा रे साथी?
चलो चलें संग रे साथी,
देखने चलें कैसा है हाथी,
चलो चले संग रे साथी।
अपने तो बरसों की यारी,
दुनिया जले या भुने
जीवन का मकसद नेकी रे साथी
नहीं तो इंसान गोबर रे साथी।
२७.
रोने की आवाज
.........
नींद से जगा ही था
कि किसी मासूम के रोने की आवाज आई
मैं उठकर बैठा ही था
कि धमकियों व गालियों की बौछार शुरु हो गई!
मैं हक्का-बक्का रह गया!
कि इस बच्चे की क्या कसूर?
कि लोग इसे मारना चाहते हैं
इसकी माँ को धमकी रहे हैं
मैं जबतक जानने की कोशिश करता
तबतक दुष्टों ने माँ और बच्चे को मार दिया,
बथानी नरसंहार से वह कांड ख्यात हुअा!
२८.
सहेजते जा
.......

जिंदगी बहुत खूबसूरत है,इसे जिये जा!
जिंदगी एक जंग है,जंग लड़ते जा!
जिंदगी कोमल पंखुड़ीहै फूलों की,
जिंदगी में प्यार से इसे सहेजते जा!
कुछ लोग जिंदगी को नहीं समझ पाते,
जिंदगी गुजरने के बाद भी,
और पचताते हैं -सुनहरे पल ;
बीत जाने के बाद भी।
पर,क्या फायदा ?
२९.
खंडहर
.......
खंड़हर कुछ न कुछ बोलते हैं
कुछ नहीं तो अतीत की कथा कहते हैं
इनके सीने में दफन होते हैं कई राज
राज खुलते ही बहुत कुछ पलटते हैं
इन्हें हल्के में लेना बुरी बात है
जो लिये हल्के में वे चले गये कबके!
और खंडहर ज्यों का त्यों पड़ा है
अपने स्थान पर;
इसका भी एक सुंदर अतीत है
जहाँ लगे थे बेल-बुटे,खिले थे फूल
जहाँ इसका मालिक रोब में रहता रहता था;
ये मेरा घर है बड़ी शान से कहता था!
आज खंडहर चुप है,
वहां चिड़ियों का बसेरा है,
कभी शाम,कभी सवेरा है!

३०.
बच्चे जब मुस्कुराते हैं!
............
मजदूर -किसानों के बच्चे जब मुस्कुराते हैं
आकाश खुश हो जाता है
जब वहीं बच्चे रोते हैं
आकाश टूट जाता है!
वह इन्हें नाखुश कभी देखना नहीं चाहता है
इसलिए वह कई कई रंगों में,
प्रस्तुत होता है उनके सामने,
खिलौने की माफिक,
जब उसे देख बच्चे चहक उठते हैं
आकाश गदगद हो जाता है,
सूर्य व बादलों ते प्रति कृतज्ञयता जाहिर करता है!
दुनिया के मजदूरों एक हों


३१.
मैंने देखा
............
मैंने बडे बडे राजनीतिज्ञों को देखा
जो खुद आग लगाते हैं
और खुद ही आग बुझाते हैं
और बन जाते जाते हैं
मिनटों और सेकेंडो में मसीहा
गरीब हतास निराश जनता के
और जनता भी भूलकर जाती है
पहचानने में
वनमानुख के वेष में खडा
खूंखार मानुष को

३२.
जो चाहा न था!
..............
मैं चाहता था कि दिल उतारकर सीने की ताखे से,
रख दूँ तेरे कदमों में
और तुम्हें खुश कर दूँ
कि क्या नौजवान साथी मिला है;
तुम भी कह दो सहसा!
पर हर बार ऐसा करने से,
मुझे रोक लेती जिम्मेवारियाँ
और मैं नये खिले उस फूल की तरह हो जाता;
जिसकी कोमल पंखुड़ियाँ मुरझा जातीं,
जेठ की दुपहरिया की धूप की मार से!

मैं चाहता था आसमान से तारे तोड़कर लाऊंगा
और सजाऊँगा घर ऐसा
कि देखने वाले देखें
कि घर ऐसे भी सजाया जाता है!
जहां उजाला फैला रहता है हमेशा;
पर,मैंने भूल कर दी तारों को शीतल समझकर
और मेरा घर उजड़ गया!

मैं चाहता था कि समाज धर्म और जाति के रास्ते से ,
दूर निकल जाए;
इतना दूर कि कभी यह खबर न आए कहीं से
कि किसी ने
किसी की हत्या कर दी धर्म व जाति के नाम पर;
पर,ऐसा हुआ कहाँ?
दुनिया में होड़ मच गई इसी रास्ते सत्ता पाने की;
दुनिया पर राज करने की।

मैं कभी खून का छोटा कतरा देख सहम जाता था
और कहाँ आज है?
कि रोज मिलती है धमकियाँ
मुझे खून करने की।
मैं देखता हूँ हर जगह खून का कतरा बह रहा है
जिस जगह बहना चाहिए थी प्रेम की निर्मल-धारा!

पर,यह भी हकीकत है कि जितना सुकून प्रेम देता है,
उतना सुकून किसी की हत्या नहीं,
मगर खेद है उन्हें देखकर जो रक्तपिपासा हैं!
३३.
ईश्वर
.......
दुनिया को रचने वाले ईश्वर उस वक्त तुम कहाँ थे;
जब दुनिया के लोग भूख-प्यास से बिलबिला रहे थे
और गरीबी जान ले रही थी तुम्हारी अधिरचना को?
मेरे प्यारे ईश्वर क्या तुम्हें पता है कि जिनके पास,
दो जून की रोटी मुहाल है वे जन भी तुम्हारे लिए,
प्रसाद की व्यवस्था करते हैं और प्रासाद की भी।
क्या तुम्हें शर्म नहीं आती मेरे प्यारे ईश्वर कि जिनके,
पास तन ढकने के लिए पर्याप्त वसन नहीं शरीर पर;
वे बड़ी जतन से तेरे लिए सिलवाते हैं लिबास!
मेरे ईश्वर क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे भिन्न-भिन्न
नामों को लेकर ,पूजा की भिन्न-भिन्न पद्धतियों को लेकर कितना गहमागहमी है इस मृत्युलोक पर?
और नाम के अलग-अलग धर्म बना इंसान ,
लड़ रहा तुम्हारे नाम पर!
फिर अपने नामों को इतने पर्यायवाची क्यों बना लिए हो मेरे दुलारे ईश्वर?
तुम तो रहीम व करीम दोनों हो,फिर कैसे ये सब देखते हो मेरे अंतर्यामी,मेरे सर्वशक्तिमान ईश्वर?
बताओ न मेरे ईश्वर क्या यह सच नहीं है कि तुम्हारे
प्रतिरूप को इंसान ने ही गढ़ा?
और वहीं तुम्हारा सृजनकर्ता है मेरे दयालु ईश्वर!
तुम कम से कम अपना कर्ज तो उतार देते प्रभु;
कि ये लड़ने वाला इंसान स्वयं झोपड़ी में रहकर तुम्हारे लिए क्या से क्या नहीं करता है?
३४.
कुत्ता गान
.......
इतने कुत्ते हैं दफ्तरों में
मैंने सोचा न था
कुत्ता के ऊपर कुत्ता
कुत्ता के नीचे कुत्ता
हर जगह कुत्ता ही कुत्ता

ये कुत्ता भिन्न भिन्न रंगों वाले
काले,भूरे,लाल,उजले
भोंकने में माहिर,काटने में माहिर

जनता इनसे परेशान है
दफ्तर के छोटे कर्मचारी परेशान है
पूछो मत कौन कौन इनसे परेशान है

बेटी तबाह है,बहू तबाह है,
पत्नी तबाह है ,काम करने वाले
दफ्तर की हर स्त्री व पुरुष तबाह है

और सबसे बड़ी बात
जो समझ में नहीं आती
कि क्यूं और कैसे
कुत्तों से कुत्ते तबाह हैं?

वे कभी घूरते हैं,कभी निपुरते हैं
कभी घुघुआते हैं,कभी बघीयाते हैं
कभी दूम हिलाते हैं,कभी "खों..." से डराते हैं
पैसे से पैर पूजन हो जाने पर प्यार से बतियाते हैं

कुत्ते जितने,रंग उतने
समझ सको तो समझ सको
वरना जल्दी झटकते बनो
नहीं तो काट खाए कुत्ता कौनो

कुत्ता मानते हैं सरीआवन लाठी से
नहीं तो खंसी-पाठी से
और न हो सके तो कब्रगाह की माटी से

३५.
बालकों की टोली
.................
दिन ढला ,शाम का वक्त आया ।
खेल कूदकर बालकों की टोली घर आई।
चिड़िया-चुरुंग भी लंबे सफ़र से थके मंदे घर लौटे।
बाल- बच्चों के बीच बांटे सुख-दुख,
दूर नहीं पास ही तालाब की मछलियाँ शांत हैं,
चाँद शीतलता बरसा रहा ,चाँदनी रात में।
बच्चे रोटी दूध खाकर सो गए माँ की गोद में!
और माँ दुलार रही,निहार रही प्यार से।
आँगन में खाट पर बाबा सोये हैं,खांस रहे हैं।
मैं अभी जगा हूँ,माँ नींद में है,निकल आया हूं
आँगन में तुलसी चौरा के पास,अहा!क्या चाँदनी है!
बड़े भाग्य से नसीब हुई है यह चाँदनी ।
बाबा के पास जाता हूं,उन्हें डोलाता हूँ
वे नहीं जाग रहे,निर्भेद वे सोए हैं
मैं घड़सर के पास जाता हूँ,घड़े से
पानी निकालता हूँ और पीकर पानी,
सो जाता हूं माँ की गोद में।
स्वप्न में परियाँ आती हैं,बच्चे आते हैं।
फिर नीम के पास हम खेलने लग जाते।
३६.
इतना मुहब्बत के गीत गाएँगे
........
इतना मुहब्बत के गीत गाएँगे कि लोग नफ़रत भूल जाएँगे।
जिनके दिल में पलते हैं अंगारे नफ़रत के,वे भी बदल जाएँगे।
इतना मुहब्बत के गीत गाएँगे...
ढह जाएँगे दर-व-दीवार एक दिन जाति व मजहब के।
इंसानियत केवल कायम रहेगी,लोग गले मिल जाएँगे।
इतना मुहब्बत के गीत गाएँगे...
ये नदी,पहाड़, झरने कबके हमें बुला रहे।
वे किसी से कहाँ फ़र्क करते हैं,रोज हमें बता रहे।
एक दिन लोग चिड़ियों -सा गुनगुनाएँगे
आपस में हँस-हँसकर बतियाएँगे
इतना मुहब्बत के गीत गाएँगे...
कोई किसी को नहीं कहेगा हिंदू, मुस्लिम, सिख व ईसाई ।
सिर्फ रहेंगे भाई-भाई!
एक नहीं;हजार दिन ऐसे आएँगे,इंसान इंसान के काम आएंगे।
इतना मुहब्बत के गीत गाएँगे...
कोई गंदूम लाएगा,कोई उसे पीसवाएगा,
कोई चूल्हा जलाएगा,कोई रोटी पकाएगा।
फिर मिलकर सब खाएँगे।
लोग एक दूसरे से मुहब्बत जताएँगे।
इतना मुहब्बत के गीत गाएँगे...
एक दूजे के पास बैठकर सारे गिले-शिकवे भूल जाएँगे।
हजारों सालों के किस्से जिंदगी के,सुनेंगे सुनाएँगे।
इतना मुहब्बत के गीत गाएँगे...
३७.
शारदीय पूर्णिमा
..........
ठीक हूं,
आज अच्छा लग रहा है। कल खीर खाया ।चाँदनी का लुफ़्त उठाया,बच्चों से कहा-चलो चलें चाँदनी देखने
और बहुत देर तक हम देखते रहे चाँद और चाँदनी
मन ने कहा क्या सुख है!
अहोभाग्य है हमारा
कि ऐसा नजारा देख पाया
प्रकृति का सुख भोग पाया!
इस सुख में उदासी न जाने कहाँ तिरोहित हो गई,
पीठ पर की बे वजह बोझ कम हो गई,
मंद-मंद मुस्कुराहटों के साथ
अतीत की स्मृतियों को खंगाला
खलिहान नज़र आया,धान की बोझ नजर आई
रस्सी पूरते चाँदनी रात में दादा नज़र आए,
कुछ और पीछे गया-
पकी फसलों की महक ने गुदगुदाना शुरु कर दिया
और हमने पहली बार किसी प्यार की जरुरत महसूस की,
किसी लड़की की चाह पहली बार जगी,
हालांकि, हम अभी कुमारे थे;किंतु
मन सयाना होने लगा था
थोड़ी ही देर में हम कहाँ से कहाँ चले गए?
परियों के लोक मैं,जहाँ एक से बड़ कर एक सुंदर परियाँ थीं,मेरे साथ बोली-बतियाईं,खेली -कूदीं,खाईं-पीं
किंतु मेरे संग चलने की तैयार नहीं हुईं!
उनका कहना था -तुम्हारे मृत्युलोक पर चाँदनी रोज नहीं होती इतनी सुंदर
और सुना है वहाँ बहुत दुःख है,
फिर क्या मैं लौट गया उदास
अपने घर,अपने गाँव
और दिन बीतने लगा धीरे- धीरे
और एक दिन अचानक दादा जी की चहकती आवाज सुनाई दी-
चलों चलें चाँदनी देखने
आज शारदीय पूर्णिमा है।
हम खेत-खलिहान होते
कुछ समय के लिए निकल गए चाँदनी देखने
गाँव की भोली निर्दोष पगडंड़ियों पर,
बाग तडाग लांघते
उस जामुन पेड़ तक,जिस पर बहुत बगुला रहते थे
और मैं उन बगुलों की सफेद पंखों में इतना खो गया
कि परीलोक कभी याद न आया
और यह धरती ही परीलोक से ज्यादा, सुंदर लगने लगी
जब दादा के संग घर लौटा
तो माँ पीतल के लोटे में भर लाई  पानी
और कांसें की छिपे में खीर लाई
जो मेरा सबसे पसंदीदा भोज्य था
उस दिन छत से खेतों को देखा
चाँदनी रात में धान की हरी फसलें लहलहा रही थी
चाँदनी टपक रही रही थी
टप,टप
और मैं शारदीय पूर्णिमा का आनंद लेते जा रहा था...!!!
३८.
कब मिलेगा
.....
 तुम्हें देखे हुए बहुत दिन हो गए
तकरीबन दस साल ;और जिंदगी
कहां से कहां चली गई ?
आओ कभी मिल लो ,फिर न जाने
मिलना होगा कि नहीं,क्या पता?
तुम कहीं बदल तो नहीं गए हो?
फिर आते क्यों नहीं?
क्या डरते हो?
हमसे या अपने अतीत से?
मैं तो मर ही गई थी,
जब पापा ने तुझे नहीं चुना ,
बस इसीलिए कि तुम कुशवंशी थे
और मैं कुछ और!
क्या प्यार इतना विवश होता है?
तब हम जान पीई थी
और एक कसक छितरा गई थी सीने में,
और जीते जी मर गई थी मेरे प्यारे!
तुम तो मुझे माफ कर दो!
मेरे साहिर क्या तुम्हें पता न था कि मैं
तुम्हारी अमृता थी,अमृता प्रीतम
अब तो जानो,
तुम अब छोटे तो नहीं रहे,
दो बच्चों के बाप हो
और मैं भी एक बच्चे की माँ हूँ
और यहीं सच है?
फिर भी तुझे भूल नहीं पा रही हूँ
बड़े शहर में रहती हूँ
जहाँ बहुत लोग हैं,गाँव से बहुत ज्यादा
पति 'बिजनेस मैन 'हैं
पैसे की कमी नहीं हैं
पर,खाली -खाली हूँ
मैंने तुझे उनमें ढूंढने की बहुत कोशिश की,
और अब मैं थक गई
पर,तुम मिले नहीं;पूरे शहर में!
आओ ,कम से कम मिलकर चले जाओ।
मैं तुझे भगाकर ले जाने को नहीं कहूंगी
पर,तुझे देखना चाहती हूँ।
बताओ,कब मिलोगे?
बीते प्यार की कसम ,
तुम कब मिलोगे?
३९.
पहाडों के बीच से
.......................
माउन्टेन मैैन
मेरे मांझी,मेरे दशरथ
मेरे फौलाद!
तुम्हारे फौलादी इरादों के आगे
पहाड़ नतमस्तक हुआ था
तुम्हारी अर्धांगनी के कुसमी पांव को
लहू लुहान करने का इरादा छोड़ दिया था
और चांदनी रात तुम पर मेहरबान हो गई थी
और तपिस लजा गई थी
और तुम  भी थे एेसे
कि तोड़ते रहे पत्थर
मुशलाधार वारिश में भी बरसाते रहे हथौड़ा
जैसे बरसती थी झमाझम वारिश
तुम भी पिंड़ कहां छोड़ने वाले थे माँझी!
माउन्टेन मैन दशरथ माँझी
पहाड़ों के बीच से
रास्ता तुझे बनाना ही था
और बताना था उस पहाड़ को भी
कि इंसान को मजबुर करना बेवकूफी है.

४०.
उनके सितम का क्या?
..................
नींद आखिर नींद होती है
दिल आखिर दिल होता है
इन सबका क्या !
हमारे सपने ,हमारे अपने
हमारा संघर्ष,हमारा अपना
पर उनका क्या!
इन्हें तोडना,इन्हें कुचलना
उनकी आदत है
उनकी खुशी है
फिर हमें भी कुछ करना है
इंकलाब करना है
अपनी नींद
अपने सपने
अपनी इज्जत
अपनी आबरू
अपनी धरती
अपने जंगल
के लिये लडना है
लड़ना है जी लड़ना है.

...---+---+डॉ.हरेराम सिंह+----+---+..
...dr.hrsingh08@gmail.com

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साहित्यकार डॉ.हरेराम सिंह