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Showing posts from September, 2019

आधी रात

किसी ने हौले से जगाया आधी रात को। किसी ने घोला कानों में मिश्री घोला आधी रात को।। किसी ने अभिसार को बुलाया आधी रात को। किसी ने मोम -सा पिघलाया आधी रात को। किसी ने सोई आत्मा को जगाया आधी रात को।। किसी ने घड़े से पानी ला पिलाया आधी रात को। किसी ने प्रेम-गीत गुनगुनाया आधी रात को।। किसी ने बाँसुरी बजाई आधी रात को। किसी ने चुड़ियाँ खनकाई आधी रात को।। किसी ने गर्म सांसों से नहलवाया आधी रात के। किसी ने उल्फत सजाया आधी रात को।। किसी ने चुपके से पैरों को चूमा आधी रात के। किसी ने जीवन को लौटाया आधी रात को।।

बाल-संसार

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बाल- संसार में अंश सिंह की यह पेंटिंग बड़े ही मनोयोग से बनाई गई लगती है। उन्हें बहुत -बहुत धन्यवाद!उनकी बहन अनुकृति सिंह भी कलाकारी करती हैं ।उनकी कलाकारी से आपको बाद में परिचय कराएँगे तबतक उनकी यह रूप भी देख लीजिए जो कलाकारी की एक हिस्सा ही है! अनुकृति सिंह अपना घर ! बच्चों के मन को लुभाने वाली जल की रानी मछली !  सूर्य, हरी घास व घर!अद्भुत कल्पनाशीलता अनुकृति!  दिल क्या चीज है? कल्पना की उड़ान(पक्षी) स्त्री तेरे कितने रूप जीवन एक पटरी है! जीवन चक्क चक्क बीच पंखुड़ियाँ अंश सिंह (६.७.२००९),अनुकृति सिंह (४.९.२०१०) सुगना मेरे आंगन के!  माँ-पिता संग अनुकृति प्यारे अंश भाई-बहन अनुकृति अंश व अनुकृति साथ-साथ

जो चाहा न था!

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मैं चाहता था कि दिल उतारकर  सीने की ताखे से, रख दूँ तेरे कदमों में और तुम्हें खुश कर दूँ डॉ.हरेराम सिंह कि क्या नौजवान साथी मिला है; तुम भी कह दो सहसा! पर हर बार ऐसा करने से, मुझे रोक लेती जिम्मेवारियाँ और मैं नये खिले उस फूल की तरह हो जाता; जिसकी कोमल पंखुड़ियाँ मुरझा जातीं, जेठ की दुपहरिया की धूप की मार से! मैं चाहता था आसमान से तारे तोड़कर लाऊंगा और सजाऊँगा घर ऐसा कि देखने वाले देखें कि घर ऐसे भी सजाया जाता है! जहां उजाला फैला रहता है हमेशा; पर,मैंने भूल कर दी तारों को शीतल समझकर और मेरा घर उजड़ गया! मैं चाहता था कि समाज धर्म और जाति के रास्ते से , दूर निकल जाए; इतना दूर कि कभी यह खबर न आए कहीं से कि किसी ने किसी की हत्या कर दी धर्म व जाति के नाम पर; पर,ऐसा हुआ कहाँ? दुनिया में होड़ मच गई इसी रास्ते सत्ता पाने की; दुनिया पर राज करने की। मैं कभी खून का छोटा कतरा देख सहम जाता था और कहाँ आज है? कि रोज मिलती है धमकियाँ मुझे खून करने की। मैं देखता हूँ हर जगह खून का कतरा बह रहा है जिस जगह बहना चाहिए थी प्रेम की निर्मल-धारा! पर,यह भी हकीकत है कि

साहित्यकार डॉ.हरेराम सिंह

हरेराम सिंह:भारतीय मूल के हिंदी लेखक हैं।इनका जन्म  ३०जनवरी १९८८ को बिहार के रोहतास में काराकाट के करुप ईंगलिश गाँव में एक किसान परिवार में हुआ.ये लाल मोहर सिंह कुशवंशी के पौत्र तथा राम विनय सिंह के पुत्र हैं.इनकी माँ का नाम तेतरी कुशवंशी है.इन्होंने सन् २००९ में नालंदा खुला विश्वविद्यालय से एम.ए तथा २०१५ में वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय-आरा से पी-एच.डी की डिग्री प्राप्त की.ये हिंदी कवि व आलोचक है.इन्होंने अबतक एक दर्जन पुस्तकों की रचना की.इनकी चर्चित पुस्तकों नें "ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार" व "हिंदी आलोचना का जनपक्ष" है.कविता-संग्रहों में "हाशिए का चाँद" व "रात गहरा गई है!" मुख्य है.डॉ.हरेराम सिंह साहित्य का मुख्य लक्ष्य इंसान के मस्तिष्क का रचनात्मक विकास मानते हैं ,जो इंसान को सचमुच इंसान बनाता है.

"टुकड़ों में मेरी जिंदगी" का लोकार्पण

हरेराम सिंह के आत्मकथात्मक उपन्यास का लोकार्पण. ….. डेहरी ऑन सोन,१४ सितंबर. साहित्य संगम के तत्वावधान में हिंदी दिवस के खास मौके पर डॉ.हरेराम सिंह का आत्मकथात्मक उपन्यास "टुकड़ों में मेरी जिंदगी का लोकार्पण त्रिवेणी प्रकाशन के सभागार में हिंदी कहानीकार सीड़ी सिंह के करकमलों द्वारा हुआ।उन्होंने कहा कि हरेराम  सिंह प्रतिभासंपन्न लेखक हैं।इन्होंने महज पैंतीस साल की उम्र में एक दर्जन पुस्तकों का प्रणयन किया।इनका " टुकड़ों में मेरी जिंदगी "किसान पुत्र के संघर्षों व झंझावतों का सुंदर नमूना है जो अभाव में भी आशा बनाए रखने की प्रेरणा देता है।"वहीं कवि-नाटककार अभिषेक कुमार अभ्यागत ने कहा कि हरेराम सिंह के आत्मकथात्मक उपन्यास एक किसान युवक की त्रासदी है,जहां युवक प्रेम के लिए तरस जाता है,पर उसे परिवार व प्रेमिका दोनों मैं से किसी से प्रेम नसीब नहीं होता.हिंदी दिवस के अवसर पर रामदर्श सिंह ने कहा कि हिंदी को शासकों ने रोटी से नहीं जोड़कर इसके साथ बड़ा छल किया ।हरेराम सिंह ने कहा कि हिंदी एक मजबूत व जीवंत भाषा है,पर संस्कृत के पूर्वाग्रही इसे गंवारु समझा,इसलिए भी हिंदी उपेक्षित

काला कौवा

शीशम के पेड़ पर , कांव-कांव कर रहा काला कौवा. दूध-भात खाना चाहता है; तेरे संग वह, माँ कह रही है. मैं चहक उठता हूँ, सुन यह माँ से एक और कटोरा मांगता हूँ; माँ मना करती है लाने से, अलग-अलग खाने से प्रेम घटता है; माँ मुझे बताती है. आज मैं बच्चा नहीं हूँ; बड़ा आदमी हूँ. अकेले खाने से डरता हूँ! ....डॉ.हरेराम सिंह...

सफ़र चाँद का

चलो दूर चलें, चाँद के पास चलें सफ़र लंबा है; जिंदगी का, मगर चलना है चलते रहना है! चलते-चलते जबतलक थक न जाना है; चलते जाना है! चाँद पास ही है; दूर नहीं वह मेरा मामा है, कोई ग़ैर नहीं! माँ उन्हें बहुत याद करती है, मैं भी उन्हें बहुत याद करता हूँ... मामा से मिलने हेतु रोज तड़पता हूँ! ....डॉ.हरेराम सिंह....

साहित्यिक सफ़र में आपका स्वागत है!