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Showing posts from April, 2023

कुशवाहा समाज: एक चिंतन

कुशवाहा समाज: एक चिंतन कुशवाहा प्रधानमंत्री, कुशवाहा मुख्यमंत्री का स्वप्न देखना आसान है; सच बनाना कठिन । अगर पूछा जाए कि कुशवाहा क्षत्रिय समाज के पास अपनी कितनी राजनीतिक पार्टियाँ कितनी हैं? खासकर राष्ट्रीय स्तर की? तो उत्तर मिलेगा एक भी नहीं । शेर तो वह जाति समाज व कौम है जिसकी दबदबा आज भी केंद्र सरकार व राज्य सरकार में है। हमारा उज्ज्वल इतिहास जरूर है; पर वर्तमान ...पूछिए मत। हमारे नेता टिकट के लिए भाजपा, काँग्रेस, अपना दल, सपा, बसपा से भीख माँगते हैं। शेर भीख नहीं माँगता। अपनी राजनीतिक पार्टी रहती तो आप दूसरे को टिकट देते। उच्च शिक्षा और राजनीतिक चेतना से ही मजबूत हुआ जा सकता है ।  राम और बुद्ध के नाम पर लड़ना हमारी बेवकूफी है। जो अपने बीच के विवादों को पचाता नहीं ; वह व्यक्ति या कौम बर्वाद हो जाती है। संस्कृति का अर्थ न बेवकूफी है और न ही अंधभक्ति। इतिहास सबक के लिए है और संस्कृति गहरे अनुभव की उपज है। धर्म का रिश्ता संस्कति से है पर धर्म में बहुत चालाकी के साथ अंधविश्वास व गुलामी के बीज डाल दिए जाते हैं जिसे आम जनता नहीं जान पाती। इस्लाम, ईसाई और हिन्दू में भी ये तत्व मौजूद हैं ज

और नहीं समझ में आए तो समझिए कुशवाहा बंधु

और नहीं समझ में आए तो समझिए  कुशवाहा बंधु- 1. " राम " को जितनी सामाजिक स्वीकृति है, दूसरे लोग जितना स्वीकारते व पूजते हैं, उतना सम्राट अशोक को नहीं ; और कुश , राम से हैं।  सामाजिक स्वीकृति ही आपको उन्नत बनाएगी। इसलिए कुशवाहा और कोष्टक में शाक्य मौर्य दांगी आदि। इंडियन सोसाइटी कुशवाहा को जितनी सहजता से पचा लेगी, अपना लेगी। उतना मौर्य को नहीं । इसलिए कुशवाहा में सब पच जाएँगे। उत्पति भी इससे यानी कुशवाहा से बताना आसान व लॉजीकली है। मौर्य में इतिहास है चिपकाने वाला 'लासा' नहीं । राम लोगों के दिल पर राज करते हैं। हथियार के बल पर राजा बना जा सकता है, पूजनीय नहीं । कुशवाहा को गर्व होना चाहिए कि राम और बुद्ध उनके बीच से होकर भी , सबके हैं! राजपूत "काकन" को अपना मुख्य आइकन नहीं बनाया। भूमिहार "डोमकटार" को मुख्य आइकन नहीं बनाया। और बनाती भी क्यों? ठीक उसी तरह कुशवाहा "कोइरी" को अपनी मुख्य पहचान नहीं बनाया। क्योंकि वह लोकल आइडेंटिटी है। भारतीय समाज पर व जाति व्यवस्था पर अनुसंधान करने पर यह स्पष्ट होगा कि कुशवाहा ही केंद्र में क्यों, मौर्य नहीं ।  क्

साहित्यिक-सफ़र

साहित्यिक-सफ़र ************** लेखक :  डॉ. हरेराम सिंह  ख्यातिप्राप्त कवि, आलोचक, कहानीकार  व  उपन्यासकार।  जन्म :  30जनवरी 1988ई.को ,बिहार के रोहतास जिला अन्तर्गत काराकाट के करुप ईंगलिश गाँव में ; पितामह लाल मोहर सिंह कुशवंशी के घर हुआ। पिता राम विनय सिंह व माँ तेतरी कुशवंशी अच्छे किसान हैं। शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा करुप व गोड़ारी में, मिडिल की शिक्षा ईटवा से, माध्यमिक हाई स्कूल बुढ़वल से, इंटरमीडिएट व स्नातक (प्रतिष्ठा) की शिक्षा अनजबित सिंह कॉलेज बिक्रमगंज, रोहतास से हुई। इन्होंने नालंदा खुला विश्वविद्यालय-पटना से  एम.ए.  तथा  वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय-आरा से  पीएच.डी.की डिग्री प्राप्त की।  साहित्यिक योगदान :  हंस, जनपथ, सृजना, फारवर्ड-प्रेस, नागफनी, रू, लौ, आजकल, अभ्यर्थना, युग-सरोकार, शोध-धारा, अर्जक, शोषित, आईना बिहार, विभाषा-संसृति, संस्कार चेतना,पहचान, बुद्धवाणी, शेरशाहटाईम्स, नईधारा, सृजन-सरिता, ककसाड़, शोध-दिशा, शोध-ऋतु, हाशिये की आवाज, सृजन कुँज, नवल आदि में निरंतर कविताएँ, शोधालेख, आलेख और पत्र प्रकाशित। कई राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय सेमिनारों व सम्मेलनों में सहभागिता। भारती

सुमन कुमार सिंह

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जड़ से काटी गई स्त्री ------------------------- हर बार रोती है स्त्री जब जड़ से काटी जाती है पिता- भाई के सामने मंड़प में एक नया संसार बसाने के स्वप्नों बीच अपने आँगन से अपना बचपन मीठी स्मृतियों को विदा देती है रोते-रोते रीती हुई स्त्री भरती है एक-एक बूँद जीवन को अपने स्त्रीत्व की मिठास से रोते-रोते हँसते-हँसते!           डॉ. हरेराम सिंह  लंबे समय बाद पिछले 22 अप्रैल को मित्र कवि डॉ. हरेराम सिंह भी आरा में उपस्थित थे। यह अवसर स्मृति शेष गुंजन जी की पहली बरसी का था। हरेराम सिंह और उनकी संगीनी श्रीमती सुमन कुशवाहा की उपस्थिति सुखद लगी। इस अवसर पर हरेराम जी ने अपना सद्यः प्रकाशित हिंदी-भोजपुरी का काव्य संकलन 'जड़ से काटी गई स्त्री' भेट किया। संकलन की कविताओं में ग्राम्य जीवन का सामाजिक  यथार्थ पूरे वैविध्य व पूरी तल्खी से प्रश्नांकित है। संकलन पर वरिष्ठ कवि-आलोचक चंद्रेश्वर जी की लिखी भूमिका भी ध्यान आकर्षित करती है। संकलन पढ़ा जाना चाहिए। हरेराम भाई को बधाई!

डॉ.हरेराम सिंह की हिन्दी श्री से प्रकाशित पाँच पुस्तकें

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1. ओबीसी साहित्य की आलोचना-पद्धति( आलोचना-ग्रंथ) पृष्ठ संख्या:112 मूल्य:300 रुपये कवर: पेपरबैक रचनाकार: डॉ.हरेराम सिंह  प्रकाशन : हिन्दी श्री प्रकाशन वर्ष: 2022 "ओबीसी साहित्य की आलोचना-पद्धति"आलोचना ग्रंथ बुद्ध, कबीर, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले , कर्पूरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद कुशवाहा, ललई सिंह यादव आदि की महान् वैचारिक परंपरा से अनुस्युत्  ओबीसी साहित्य की आलोचना-पद्धति के महत्वपूर्ण बिन्दुओं, उसकी विशेषताओं से यह ग्रंथ परिचित कराता है। इस ग्रंथ में कुल 18 अध्याय हैं। कबीर, फणीश्वरनाथ रेणु, मधुकर सिंह, राजेंद्र यादव, दिनेश कुशवाह आदि की रचनाओं पर ओबीसी का गहरा प्रभाव ओबीसी साहित्य की विशेषताओं की ओर इंगित करता है। ओबीसी साहित्य मंडल आयोग और उसकी वैचारिक जरूरत से खुद को मजबूत बनाया है। ओबीसी साहित्य की परंपरा हिन्दी में बहुत पुरानी है। ओबीसी का प्रभाव से हिन्दी साहित्य अछूता नहीं है। ओबीसी साहित्य की आलोचना-पद्धति पर यह ग्रंथ खास रूप से फोकस करता है जिससे गुजरकर ओबीसी साहित्य की पहचान करना और उसकी विशेषताओं की पहचान करना बहुत ही आसान होगा। इस ग्रंथ के संबंध मे