ओबीसी साहित्य की दार्शनिक-पृष्ठभूमि

ओबीसी साहित्य की  दार्शनिक पृष्ठभूमि
......................................................डॉ.हरेराम सिंह
साहित्य में जो संघर्ष है, उसका भी हमारा और तुम्हारा है.वरना तुलसी के अति प्रिय राम और सूरदास के कृष्ण नहीं होते .कबीर का राम सगुण भक्तिवालों से भिन्न नहीं होते. यही हमारा तुम्हारा तो साहित्य का द्वंद है.जिससे साहित्य का पक्ष निर्मित होता है।साहित्य और सत्ता का गहरा संबंध है। जिनके साहित्य विस्तृत हैं,सत्ता उन्हीं के हाथों में है। साहित्य का सौंदर्य मजदूरों के पसीने में, किसानों के कुदालों मैं, मछुआरों  की जालों में, सैनिकों के ढाल में और लोगों के इकबाल में है.इसे देखना है तो खुद संवेदनशील बनिए.और अपने मन के दीप को जलाए रखिए,स्नेह का घी डालकर उसे बचाए रखिए!वरना,यह जीवन नीरस बन जाएगा।दिल बहलाने व खेतों में काम करने चला जाता हूँ किसानों के पास तो कुछ लोग पूछते हैं,क्या मिलता है,वहाँ जाने से?मैं कहता हूँ-वह किसान हमारा पिता है और धरती हमारी माँ!और जो कलकल नदी बह रही है,जिसके पास अक्सर मैं जाता हूँ,वह मेरी साहित्य सरिता है।उनसे मैं कहता हूँ-जो नदी के पास सुकून मिलती है,वह और कहाँ?जो खेतों की मेंड़ पर आनंद है ,वह और कहाँ?श्रम में सौंदर्य कीआत्मानुभूति का नाम ही तो ओबीसी साहित्य है। यह हमारा अपना है। और दूसरे का,वजह वहाँ सिर्फ कला है,न जीवन है,न संघर्ष है,और न हीं वहाँ श्रम की इज्जत है।ओबीसी साहित्य में सबसे अधिक श्रम का सम्मान है।
                                                                                                              जहां साहित्य जिंदा है,वहां इंसानीयत बची है!साहित्य सच और झूठ से बनी खिचड़ी है,जो स्वास्थ्य और जीवन के लिए बहुत उपयोगी है।साहित्य सिर्फ बाँसुरी की आवाज नहीं,वह वक्त की आवाज भी है,जहाँ लाठी की आवाज है हड्डियों की चटकने की आवाज है ,बंदूकी की गरजन है और माँ के पुचकारने की आवाज हैं,बेटी की सुसकने की आवाज है पिता की डपट है और दादा का पुकारने की आवाज है अर्थात साहित्य में आवाज ही आवाज है...और यह ओबीसी साहित्य का अभिन्न अंग है।और यह विश्व भर में श्रमिकों,शिल्पियों,कृषकों व पशुपालकों की जरुरी है आवाज है।फकीर मोहन सेनापति ओड़िया साहित्य व ओबीसी साहित्य के बड़े रचनाकारों में से हैं।वे उडीया साहित्य को विश्वस्तरीय बनाने वाले साहित्यकार हैं.इन्हें पढ़कर वहां की सांस्कृतिक,राजनीतिक,सामाजिक जीवन का यथार्थ दर्शन हो जाता है.समय व काल की दृष्टि से वे प्रेमचंद से पूर्व के सबसे बड़े साहित्यकारों में से हैं.उनका जन्म मकर संक्रांति को १८४३ ई.वी में उत्कल में हुआ.साहित्य एक ऐसा दरिया है जिसका  एक मोती पाकर इंसान पूरी जिंदगी गुजार ले.साहित्य सृजन का आधार है,इसे बचाए रखना हमारा फर्ज है वरना पूरी मानव जाति अस्तित्व विहीन हो जाएगी.साहित्य युग सत्य का दूसरा नाम है.जहां समय विद्रूप व बलशाली है और उससे भी विद्रूप व बलशाली इंसान है जो समय के रथ को जिधर चाहता है उधर मोड़ देता है.जीवन को साहित्य सृजित करता है,उसे संघर्ष के लिए तैयार करता है.वह जीवन के प्रति आस्थावान बनाता है.साहित्य जीवन मूल्यों को भविष्य के लिए बचा लेता है ,जहां साहित्य की उपेक्षा हुई वहां इंसानियत हारी और बर्बरता व क्रूरता बढी.फूल सा जीवन कांटा बना.सवर्ग सी धरती नीरस व उदास बनी.जीवन से उल्लास का सोता सूखा और मन बंजर हुआ.साहित्य जीवन को अर्थपूर्ण व लचीला बनाता है.यह तनाव को कम करता है.विभिन्न पात्रों के जरिय इंसान को विभिन्न परिस्थितियों में जीने की ताकत देता है .यहीं कारण है कि साहित्य की सार्थकता आज तक बनी हुई है.साहित्य का रिश्ता भी मनुष्यों से अजीब सा है!जब मनुष्य स्यंम् को अच्छा बनाना चाहता है,तो साहित्य उसका भरपूर मौका मुहैया कराता है.साहित्य के भीतर अद्भुत क्षमता है और इसी क्षमता का प्रयोग कर मनुष्य को मनुष्य बनाया जा सकता है.साहित्य का संबंध मनुष्य की चेतना से है.और चेतना ही जीवन को प्राणवान बनाती है.चेतनाहीन मनुष्य पशु के समान है और पशु को गुलाम बनते देर नहीं लगती.इसलिए जहां समृद्ध साहित्य है वहां का मनुष्य गुलाम कभी नहीं बन सकता.साहित्य का संबंध मंगल से है.और यह मंगल तबतक नहीं होगा जबतक समाज का वंचित तबका मान सम्मान हासिल नहीं करता,वह मुख्य धारा का हिस्सा जबतक नहीं बनता ,साहित्य का कार्य पूरा नहीं होता.साहित्य का सृजन किसी घटना से कम नहीं,जो एक काल को जीवन प्रदान कर उसे भव्य और अर्थपूर्ण बनाता है.उल्लास व विशाद का गहन चित्रण साहित्य है.परिस्थितियों के रंग उसे और चटक बना देता है.कला में वहां की जनाकांक्षा ,शैली व परंपरा अपने आप आ जाती है जब कलाकार अपने समय व समाज को अजीवन में क्या पाया और खोया इसका सही सही आकलन साहित्य करता है.साहित्य जहाँ जड़ता को तोडता है वही भावुकता पर एक सीमा के बाद अंकुश लगाता है.संतुलन बनाना साहित्य का दायित्व है.साहित्य इतिहास का एक अंग है जहाँ भविष्य आतुर होकर प्रश्न पूछता है और उसके प्रश्न उसकी दीर्घता व महानता निर्भर करता है ,इसलिए साहित्य की राह सचेतन की राह है.एक माँ की तरह लेखक यदि अपनी रचना के प्रति सचेत अगर हो उसके द्वारा रचित साहित्य सुंदर व कल्याणकारी होगा.माँ का ह्रदय यदि विशाल व आँखें दूरदृष्टि वाले हैं तो उसकी संतान अद्भूत होगा ठीक उसी तरह लेखक महान प्रवृति का होगा तो संभव है उसकी रचना भी महान होगी.साहित्य लेखक का लक्ष्य कृति का लक्ष्य है.साहित्य का नायक आमजन का नायक होता है,खासकर ओबीसी साहित्य का,इसीलिए उसका प्रभाव व्यापक होता है.आमजन व वंचित वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नायक खूब पसंद किये जाते हैं क्योंकि वे संघर्ष से उपजे होते हैं.जब आम इंसान आसमान की ओर देखता है तो उसकी आँखों में आश्चर्य और उत्सुकता ज्यादा जागृत होती है जो उसे कभी उदास करती है और कभी खुशी प्रदान करती है.साहित्य भी आसमान की तरह ही है जहाँ तारे हैं तो टूटते हुए उल्का पींड भी.पर आश्चर्य और नयापन सर्वत्र है,यह ओबीसी साहित्य की विशेषता है।ओबीसी साहित्य का खुरदुरापन मानव समाज का खुरदुरापन है.इस खुरदुरापन में जीवन का सच छुपा है.चूँकि जीवन सरल और सपाट नहीं है.इसलिए साहित्य भी इकहरा नहीं है.इंद्रधनुषी रंग से लेकर मिट्टी का भूरापन की चमक साहित्य के औजार हैं.इसे संजोकर रखना चाहिए.यहीं ताकत देते हैं.मन की प्रवृतियों के भेदन से ही साहित्य का भेदन होता है इससे शासक वर्ग तिलमिला जाता है वजह उसका चरित्र आंखों के सामने होता है.साहित्य का इतिहास भी मानव संघर्ष का इतिहास है.और जिस समाज या वर्ग का साहित्य नहीं है उसका इतिहास अधूरा होता है.अतीत और वर्तमान के बीच गहरा रिश्ता है.साहित्य उन रिश्तों की पडताल करता है और हकीकत आपके सामने होती है.यही साहित्य का मूल्य है जो छीज नहीं पाता ,वह दृष्टिसंपन्न बनाता है.तब आप कहेंगे कि साहित्य में हमारा तुम्हारा कहाँ?पर,आप उस वक्त तुम भूल कर रहे होते हैं,क्योंकि पूंजूवादियों व द्विजवादियों का साहित्य आमजन को सत्ता से दूर रहने के सलाह देते हैं और ओबीसी साहित्य आमजन को सत्ता में जाकर ,आमजन के लिए काम व नीति बनाने का सलाह देता है। यहीं साहित्य का हमारा और तुम्हार है,जो विश्व के सर्वहारा और बुर्जुआ साहित्य के बीच के अंतर को रेखांकित करता है।और यही हमारा-तुम्हारा आमजन में विश्वास को जन्म दिया और यकीनन हम, सर्वहारा साहित्य के साथ हैं।ओबीसी साहित्य, दलित साहित्य व आदिवासी साहित्य मिलकर सर्वहारा साहित्य के उतरदायित्वों को पूरा करते हैं और आज यह अपना परचम लहरा रहे हैं.राजेंद्र यादव,रमणिका गुप्ता और राजेंद्र प्रसाद सिंह इसे बखूबी स्थापित किए और यह आज सर्वस्वीकृत व मुख्य-धारा के साहित्य बन जनता को सभ्य व आंदोलित करता है।और यही हमारी प्रतिवद्धता है.साहित्य का यहीं संघर्ष है,यही उसका  हमारा व तुम्हारा है.इसे तुलसी साहित्य व कबीर साहित्य के बीच के अंतर से अच्छी तरह समझा जा सकता है।यही साहित्य का द्वंद है.कबीर के  राम व तुलसी के राम का द्वंदवाद है।साहित्य का संघर्ष है,चेतना को विराट बनाता है।यह संघर्ष ओबीसी साहित्य का मूलाधार है।
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संपर्क: ग्राम+पोस्ट: करुप इंगलिश,भाया:गोड़ारी,जिला :रोहतास (बिहार), पिन.न.802214,मो.न.8298396621..                         (चित्र-सुमन कुशवाह)

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