ओबीसी साहित्य: इतिहास की उपज


2001 में बामीयाना की लंबी बुद्ध मूर्ति का ढहा जाना साधारण घटना नहीं थी। इसका प्रभाव ना सिर्फ एशिया पर; बल्कि एशिया के बाहर भी पडा था। वहीं 2012 में बांग्लादेश में हुए बौद्ध पर हमला भी कम आश्चर्यजनक नहीं था बुद्ध पर हमला का अर्थ ओबीसी के दर्शन पर हमला है इसी तरह कबीर ,ज्योतिबा राव फूले, तथा जगदेव प्रसाद पर हमला का अर्थ भी व्यापक तौर पर भारत के 50% आबादी के दर्शन, सोच विचार तथा साहित्य पर हमला है। आजादी की लड़ाई में उधम सिंह की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता जिस प्रकार की भगत सिंह की भूमिका को।इतिहास का पन्ना इसका उदाहरण है कि ओबीसी की रियासत तथा जमीन को बड़ी बेरहमी से छीना गया है तथा उस पर सवर्ण नाम चस्पा कर दिया गया है। वीरबाला भावसार ने आदिवासी कला नामक पुस्तक में इस बात को स्वीकार किया है कि राजस्थान के अधिकांश राजपूतों ने मूल निवासियों को धोखे से मार कर उनकी भूमि पर अधिकार कर लिया। वहीं डॉ ललन प्रसाद सिंह ने भी कहा है, कि समस्त  उत्तर भारत के अधिकांश भू-भाग पर पहले ओबीसी के राजाओं और जनों का अधिकार था जिसे बाद में हड़प लिया गया उन्हें जमीन, जंगल व सत्ता से बेदखल कर दिया गया यहां तक कि अंग्रेजी राज में ओबीसी वर्ग का चौतरफा शोषण हुआ। अंग्रेजी सरकार सामंत, पुरोहित वर्ग उनमें मुख्य हैं क्योंकि यह लोग ओबीसी की कमाई पर ही निर्भर थे। वही देश इन्हीं के श्रम पर जिंदा था, जैसे कि आज है। उन्हीं के अन्न और फसल पर समाज का सबसे निचला तबका भी जीवित था, हां निचले तबके का भी सहयोग है, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता ऐसी स्थिति में ओबीसी की आत्मा शोषण से बिलख पड़ी और ओबीसी का अधिकांश आबादी अशिक्षित व अनपढ़ रह गई।  सत्ता से और जमीन, जंगल से बेदखल व्यक्ति का, वर्ग का यही हाल होता है।
      आजादी के बाद बिहार से जगदेव प्रसाद का हुंकार मूलत: समस्त ओबीसी का ही हूंकार था जिसमें  दलितों का सहयोग कम सराहनीय नहीं था। अल्पसंख्यकों में मुसलमानों का भी विशेष सहयोग था। कुर्था में जनसभा के संबोधन करने से पूर्व ही अल्पसंख्यक उन्हें मना कर रहे थे। बक्सर में ज्योति प्रकाश और सीवान के क्षेत्र में चंद्रशेखर प्रसाद का हुंकार सामंतवाद तथा पूर्व की जड़ता पूर्ण सत्ता के खिलाफ ही था। इन सभी घटनाओं का प्रभाव राजनीति के अलावा संस्कृति और कला पर भी था, पर जनवादी आंदोलन में सक्रिय साहित्यकारों की नजर इन  हुतात्माओं पर नहीं पड़ी। इनमें मार्क्सवादी वाले लेनिनवादी दर्शन का विराट स्वरूप का दर्शन उन्हें नहीं हुआ क्योंकि उन जन आंदोलनों का नेतृत्व मुख्य रूप से सवर्ण वामपंथियों द्वारा हो रहा था। मार्क्सवादी आलोचक डॉ ललन प्रसाद सिंह इसे एक दुखद घटना बतलाते हैं जहां उधम सिंह सैनी और भगत सिंह ने उन्हें वर्गीय चेतना दिखाई नहीं पड़ती और ना ही भारत के कम्युनिस्ट पार्टियां उनको अपना व्यापक आदर्श स्वीकार की हैं, यहीं पर आकर भारतीय मार्क्सवाद अपनी जमीन से खिसक जाता है और शायद इसी कारण वह भारत में सफल नहीं हो पाता। ओबीसी और दलितों द्वारा एक नई कम्युनिस्ट पार्टी बनाई जाए तो हंगामा हो जाए वजह मार्क्स का दर्शन, बुद्ध का दर्शन, ज्योतिबा फुले का दर्शन, कबीर का दर्शन, जगदेव प्रसाद का दर्शन ही ओबीसी का दर्शन है। साहित्य केवल रात की चांदनी नहीं होती बल्कि अपने काल के समस्त सच्चाइयों व उसके प्रभाव पर गहनता से विचार भी होता है, विश्लेषण भी होता है। साहित्य इतिहास व कला के क्षेत्र में ओबीसी वर्ग का चिंतन की उपेक्षा ही साहित्य के क्षेत्र में ओबीसी साहित्य को जन्म दिया, क्योंकि एक समय इतनी अपेक्षाओं को मुंह या कलम बंद कर स्वीकार नहीं किया जा सकता। उड़िया साहित्य में एक समय था जहां सिर्फ ब्राह्मण साहित्यकार ही दिखाई पड़ते थे राधानाथ और मधुसूदन की कवितावली लिरिकल बैलेड्स पक्षपातपूर्ण संकलन का गवाह है। ओबीसी की उपेक्षा सिर्फ ओड़िया भाषा व साहित्य में ही संदर्भित नहीं है, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ साथ हिंदी में भी संदर्भित है। कन्नड़ के प्राचीन साहित्य में "ब्राह्मण युग", अपने नाम से ही जाति विशेष है ना कि वर्ग विशेष। आधुनिक समय में रविंद्र त्रिपाठी का "हिंदी साहित्य का सरल इतिहास" भेदभाव मूलक मानसिकता की ओर इशारा करता है। इस साहित्य इतिहास में उनके द्वारा गोरख पंथियों का एक भिखारी के रूप में दर्शाना और कबीर को एक लोककथा परंपरा के आधार पर एक ब्राह्मणी के पेट से जन्मा बतला कर वह क्या सिद्ध करना चाहते हैं? फिर तो उन्हें यह भी मालूम हो गया होगा कि उस ब्राह्मणी की कोख में जो बच्चा पल रहा था, वह किसी कोरी का था। क्योंकि अवैध संतान की मां का पता लग जाने पर यह भी तब रहस्य की बात नहीं रह जाती कि उसके ढींढ़ में किस पुरुष तथा किस जाति का बच्चा पल रहा है।
     ऐसे षड्यंत्रकारी युग में ओबीसी साहित्य का आना एक चकित करने वाली घटना नहीं थी, क्योंकि अब तक भारतीय साहित्य में ओबीसी वर्ग के दुख, समस्याएं एवं जीवन चरित्र व्यापक तौर पर उभर कर सामने नहीं आए थे। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक एवं साहित्य आलोचक डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह का आलेख ओबीसी साहित्य;  नया परिपेक्ष, इसका गवाह है।
     फॉरवर्ड प्रेस में रमणिका गुप्ता ने जगदेव प्रसाद को एक बड़े क्रांतिकारी विचारक के रूप में चिन्हित किया है और बताया है कि उनके विचार उत्तर भारत के प्रत्येक राज्य में बहुत पहले ही पहुंच जाना चाहिए था,  क्योंकि जगदेव प्रसाद एक महान व्यक्तित्व थे। ओबीसी की समस्याओं को वे अच्छी तरह जानते थे तथा वही एक ऐसे व्यक्ति बिहार के थे जिन्होंने बिहार के पिछड़े वर्गों में मनुवादी संस्कृति से लड़ने की अपार शक्ति प्रदान किए थे और अपने समय की सत्ता से टकराने के साथ ही इंदिरा तक को हिला दिया।  सी साहित्य ने भारतीय किसानों, मजदूरों, शिल्पीयों और मछुआरों आदि का वितरण कर इस साहित्य को गहरा बना दिया है क्योंकि इस वर्ग का साहित्य में व्यापक तौर पर चित्रण नहीं हुआ था और ना ही इस वर्ग को कोई साहित्य दिशा दे पा रहा था कि इस लोकतंत्र में ओबीसी व की भूमिका सभी क्षेत्रों में मुख्य है, इसके बिना भारत का संपूर्ण विकास संभव नहीं है। इसीलिए ओबीसी साहित्य "नक्सलाइट रामरतन मास्टर" मधुकर सिंह का एक उपन्यास हाथों-हाथ पढ़ा गया। जो "जनपथ" के अंक में छपा था। हिंदी के सशक्त कहानीकार जयनंदन ने हिंदी की बदलती दुनिया में (अन्यथा जुलाई 2006 अंक 7) पिछड़े वर्ग के लेखकों के संबंध में बताया कि - 'हिंदी में अधिकांश लेखक मध्यम वर्ग के होते रहे हैं और उनमें भी ज्यादातर संख्या पुरुष सवर्णों की रही है। यह संरचना अब टूट रही है और हिंदी की बदलती दुनिया में गैर- सवर्ण, पिछड़ी वर्ग के, दलित वर्ग के, और स्त्री वर्ग के बड़ी संख्या में लेखक दाखिल हुए हैं।  वर्ग और जाति का द्वंद आज भी हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा मुद्दा है।( पृष्ठ संख्या154)।  प्रोफेसर दिनेश कुशवाहा की बहू पठित चर्चित कविता 'आज भी खुला है अपना घर फूकने का विकल्प' में लिखते हैं,
     'कुशवाहा जी कहां हैं आप? जाइए कामरेड ज्योति बसु से पूछिए कि उनके मंत्रिमंडल में युगों तक मंत्री क्यों नहीं बना एक भी चर्मकार? और इंदिरा - सोनिया से पूछिए कि उनके यहां बना भी तो चमटोली को क्या बना दिया?
      जयनंदन और दिनेश कुशवाहा वामपंथी चेतना के पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के रचनाकार हैं। इनके यहां जो चिंता है; वह भारतीय समाज पर आधारित है, जिसके क्रोड में वर्ग हीन समाज का सपना है । शोषण विहीन समाज, समानता पर आधारित समाज का निर्माण ही ओबीसी का मुख्य उद्देश्य है - इस शर्त के साथ ही भारतीय समाज के सामाजिक सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जिसका बखूबी चित्रण दिनेश कुशवाहा अपनी किताब में करते हैं और कुछ ऐसे ही प्रश्न सुरेंद्र स्निग्ध 'पूर्व जनों के बारे में' फॉरवर्ड प्रेस अप्रैल 2013 में उठाते हैं शायद इसीलिए प्रेमचंद्र फणीश्वर नाथ रेणु की तुलना में इतने बड़े रचनाकार नहीं बन पाए वजह अपने समय के किसान आंदोलनों के परिवर्तनकारी भूमिका को वह अपनी रचना में उचित स्थान नहीं दे पाएभैन। प्रेमकुमार मणि भी इस बात को पूरी तरह पड़तालते हैं यहीं आकर ओबीसी साहित्य अपनी वास्तविक सार्थकता को पूरा करता है।

+++    डॉ हरे राम सिंह +++

 

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साहित्यकार डॉ.हरेराम सिंह