कुशवाहा क्षत्रिय की एक परंपरा।

कुश जयंती के इर्द-गिर्द
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"कुशवाहा क्षत्रिय " के बीच एक बहुत ही सुंदर परंपरा रही है,जिसमें कुशवाहा नौजवान या युवती को "कुश जयंती" के दिन एक संस्कार ग्रहण कराया जाता है और उस संस्कार का नाम "हस्त खड़ग्" या "धनुष ग्रहण" संस्कार है। इस दिन कुशवाहा युवक या युवती स्नानादि करके पीले वर्ण के वस्त्र धारण करते हैं। श्री राम चंद्र  व सीता मां के चरणों पर पुष्पांजलि अर्पण कर "सम्राट कुश" का पूजन करते है।पूजनोपरांत पिता द्वारा युवक के हाथ में' खानदानी तलवार 'को  पूजन के बाद सम्मान के साथ ,शिश झुकाकर धारण कराया जाता है और युवती को मां द्वारा"धनुष ग्रहण"कराया जाता है। यह संस्कार विशेष पूजन विधि के बाद संपन्न होता है। पहले के युग में यह संस्कार बारह वर्ष की उम्र में ही करा दिया जाता था,पर अब अठारह वर्ष या शादी के दिन भी पूर्व में नहीं होने पर कराया जाता है। इस दिन युवक यह शपथ लेते हैं कि धरती, परिवार,जाति ,इलाका व राष्ट्र की इज्जत की सुरक्षा वे करेंगे तथा सम्मान के साथ जिएंगे तथा याचक कभी नहीं बनेंगे।इस दिन कुशवाहा लोग अपने पूर्वजों के बने रोहतास गढ़,ग्वालियर गढ़,नरवर गढ,कुशीनगर या अमेरादि जगहों पर यात्रा करते हैं और अपने सगे संबंधियों को पकवान खिलाते हैं।पूजन विधि स्वजातीय शास्त्री जी या बड़े -बुजुर्ग के अगुवाई में ही संपन्न कराई जाती है।

हालांकि, फ्रित्ज पापेनहाइम ने 'आधुनिक मानव का अलगाव"में लिखा है कि "जितना ही हम खुद को बताना चाहते हैं कि हम घड़ी की सुई को पीछे नहीं कर सकते ,हमारे लिए उस प्रवृत्ति को स्वीकार करना उतना ही मुश्किल होता है जो हमारे जीवन को कंगाल बनाती -सी लगती है और हमें उस अपनेपन के भाव से वंचित करती है,जिसके लिए हममें से अधिकांश लोग लालायित रहते हैं।" यहीं नहीं वे टॉनीज की उस समझदारी की तारीफ भी वे करते हैं जिसमें वे इस बात पर बल देते हैं कि "अतीत की कदर करने का अर्थ यह नहीं कि हमें उसकी ओर लौटने का प्रयास करना चाहिए ।" ठीक यह बात कुशवागा लोग पर भी लागू होती है कि वह अपने अतीत से उर्जा जरुर ग्रहण करे,पर अतीत में जाने का प्रयास न करे। क्योंकि घड़ी की सूई पीछे नहीं जाती।कुशवाहा के पास अपना "कुशवाहाइजम " है,जो हिंदुज्म से बहुत भिन्न व देश के सेवा-भाव वाला है, वहाँ डमरू व त्रिशुल नहीं है। वहाँ है-ढाल व तलवार,लहलहाती धरती ,बहु-बेटियों की इज्जत व राष्ट्र सुरक्षा की जिम्मेदारी, आत्मसम्मान व स्वाभिमानी प्रवृत्ति ।वह ब्राह्मण की तरह न तो याचक है और न ही ब्राह्मण-समुदाय का मानसिक गुलाम,न शूद्र-सा दलित,और न वणिक-सा दोहन-कर्ता।कुशवाहा किसी का न तो दोहन करता है और न ही खुद का दोहन होने देता है। वह परिश्रम व न्याय में विश्वास करता है और उसका यही चरित्र "कुशवाहाइजम" कहलाता है।
  कुशवाहा समाज बहुत लंबा समाज है। इसलिए इस समाज की प्रकृति कुछ जटिल व कठिन भी है,पर सादगी व न्याय दो इसके पहचान हैं। इसके संबंध शाक्य क्षत्रिय, कोलिय (कोयरी) क्षत्रिय,मौर्य क्षत्रिय,बनाफ़र क्षत्रिय व दांगी क्षत्रिय से रहे हैं। और आज इनका यह विस्तृत संबंध दूसरे के लिए आँख की किरकिरी बना हुआ है,कारण कि यह संबंध एक राजनीतिक शक्ति का रूप है,जिसे चौपटकर ही इन पर राज करने के सपने दूसरे लोग देखते हैं;पर राम,कुश,सुदर्शन,बुद्ध,अंजनी,चंद्र गुप्त मौर्य,आल्हा-उदल के होते यह सपना जल्दी पूरा नहीं होने वाला।कुशवंशी,कुशवाहा,कछवाहा,काछी ,शाक्य और कोयरी के हाथ में जबतक खड्ग है,तीर-धनुष हैं सूर्य पताका है,तबतक कोई इसका बाल बांका न कर सकेगा। राम और कुश का चरित्र कुशवाहा का असल चरित्र है। अयोध्या से कुशीनारा और रोहतास गढ़ का सफ़र इनका कम रोमांस व रोमांचकारी नहीं रहा है और न ही रोहतास गढ़ से नरवरगढ़ और आमेर का सफ़र!पर,हाल में कृषक संस्कृति का प्रमुख अंग बनकर यह श्रम को भी प्रतिष्ठित किया है,कुश का नाम रौशन किया है। कुश का साम्राज्य कुश पर्वत से लेकर मिश्र देश के कुश डायनेस्टी तक फैला है। भारत में कुशवाहा ऐसे तो सभी राज्यों में हैं,पर उत्तर प्रदेश, बिहार,मध्य प्रदेश, राजस्थान, काश्मीर व गुजरात मुख्य रहे हैं। बिहार में कुशस्थली(कनौज्जी),बनाफ़र,दांगी,पिपरपतिया,कमरोया,सांडैला,भाम,हल्दिया,जलुहार,भगतिया,साकिया,केवान आदि इनकी खापें हैं;वहीं मध्य प्रदेश में नरवरिया,छोटे रीया,बड़े रीया आदि है। राजस्थान में शेखावत, कुमावत आदि है। इस तरह यह कई इपनामों में कई जगह फैला है। पर,इसका मूल पहचान कुश के वंशज होना है। इसलिए ये लोग स्वयं को कुशवंशी कहलाना अधिक पसंद करते हैं।
            कुशवाहा समाज केवल अतीतगामी नहीं है,बल्कि वह वर्तमान को साधने में सक्षम है। वह यह अच्छी तरह जानता है कि उत्पादन के साधन जैसे-खेत,फैक्ट्री आदि पर जिनका अधिकार रहता है,वे ही अपने युग का मालिक होता है और जिनके हाथ में सत्ता और शिक्षा होती है,वहीं समाज व राष्ट्र का संचालक होता है,इसलिए वह अपना क्षात्र-धर्म का पालन करते हुए,मार्क्स जैसे महान दार्शनिक से सीखते हुए,श्रीराम व सीता मां के मर्यादाओं का पालन करते हुए,बुद्ध की धैर्य वान होकर अपने कर्तव्य पथ पर आल्हा-उदल की तरह गतिमान है!
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कुशवाहों के कुश,उनके रीति-रीवाज और स्वतंत्रता-संग्राम
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कुश ने अपने समय में न्याय-परक व्यवस्था की थी।उसमें सबसे महत्वपूर्ण था- स्त्रियों के साथ न्याय व समानता का व्यवहार ।उन्होंने अपने ही काल में माँ सीता के निर्वासन पर प्रश्न चिन्ह खड़े किए। और अपने पिता से इसका जवाब मांगा।तब से कुश पूरे स्त्री जाति की नजरों में नायक(Hero)बन गए। औरतों कहना शुरु किया-पुत्र हो तो कुश जैसा।इसी वजह से बाद की पीढ़ी जो स्त्रियों की आई वह शादी से पूर्व सपने देखने लगीं कि काश,मेरा पति भी कुश जैसा हो। जो पुरुष माँ को इतनी इज्जत करता हो,माँ के न्याय के लिए किसी से भी लड़ने के लिए तैयार हो,वह पुरुष निश्चित ही महान है। और वह निश्चित ही पत्नी,बेटी,और अन्य स्त्रियों के साथ इज्जत से पेश आएगा और उसे न्याय दि लाएगा।इस तरह इक्ष्वाकु कुल का गौरव कुश ने बढाया।उनके युग में स्त्रियाँ काफी स्वतंत्र हुईं,उन्हें कई तरह के विशेषाधिकार दिए गए। वे समाज में अपना विचार स्वतंत्र रूप से रख सकती थीं। इस तरह'कुश साम्राज्य'बढ़ने लगा। स्त्रियों ने भी अपने हाथों से बिने 'कुश आसन'ऐसे पुरुषों को बैठने के लिए देतीं,जो स्त्री को सम्मान करता था। पर,उनके काल में ब्राह्मण जनों के विशेषाधिकार में कमी आई। क्योंकि वे ही लोग राम को डायवर्ट करने की कोशिश करते थे। रावण भी ब्राह्मण था। इसलिए कुश ने लगभग ब्राह्मणों से दूरी बना ली थी। इसका दूसरा कारण था-कृषि कर्म को तवज्जो कुश के द्वारा दिया जाना। चूंकि कुश जानते थे कि जीविका के लिए कृषि-कर्म कितना जरुरी है। उस वक्त आज की तरह उद्योग व फैक्टरियां नहीं थी। कुश ने कृषि को ही उद्योग बना दिया। तथा अपने नाना श्री जनक जी की कृषि परंपरा को आगे बढ़ाया। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि एक बार कौसलपुर में अकाल पड़ा। उस वक्त कुश ने स्वयं हल चलाया तथा इनकी पत्नी जो नागवंशी कन्या थीं,ने अपने हाथों से बीज बोया।इस कार्य से ब्राह्मण वर्ग नाखुश था,क्योंकि वे कृषि कर्म को नीच समझते थे। पर,कुश ने इसकी परवाह न की। तब से कुशवंशी कुशवाहा कृषि-कर्म को सर आँखों पर ले लिया,और समाज की सेवा की। कुश ने ही सबसे पहले 'अन्नपूर्णा देवी'की पूजा आरंभ की। और इस अन्न को 'अक्षत'माना गया।
कुश कुशवाहा समाज के लिए तो गौरव हैं ही वे अन्न समाज के लिए भी अपने कर्मों व न्याय प्रिय चरित्र के लिए आदरणीय रहे। बाल्मीकि की कुटिया में कुश-लव का जन्म हुआ था। माँ सीता ने इनके अवदान को समझा था। यह प्रभाव कुश पर भी था। इसलिए वे हमेशा आदिवासी जनों,वंचित जनों को अपना बनाकर रखा। ये कुश के खास गुण थे।
ये गुण कुशवाहा जनों में आज भी देखा जा सकता है।कुशवाहा अत्याचारी नहीं होता,वह न तो किसी को सताता है,न दुखाता है। वह राम की तरह मर्यादा में रहता है। पर,जब कोई उसकी मर्यादा भंग करने की कोशिश की जाती है,उसके लिए अपने-पराए का भेद भूल वह दंड़ भी देना जानता है। कुश और सीता की नजरिए से देखें तो कुछ समय के लिए राम भी कठघरे में खड़े हो जाते हैं,पर कुश की विशेषता है कि वे कभी भी पिता का अनादर नहीं किए। वे हमेशा माँ सीता के वचनों को याद रखा।
आज कुशवाहा समाज दुनियाभर में फैला है। अयोध्या,कुशीनगर, बनारस,रोहतासगढ़,सासाराम,समस्तीपुर, नरवरगढ़,ग्वालिअर,कन्नौज, मैहर,दौसा,आमेर आदि भारत के इनके प्रमुख ठिकाने हैं। इनकी परंपरागत भी अद्भुत है। शादी ब्याह के मौके पर ये अपने गोत्र-दयाद के सिर पर सम्मान में 'बावन गजा'पगड़ी बाँधते हैं,यह रीति बिहार के कैमूर जिले में आज भी प्रचलित है। यह पगड़ी 'कुशवाहा पगड़ी'के नाम से विख्यात है। प्रो.रामसिगासन सिंह ने इस पगड़ी के संबंध में कई रोचक जानकारियाँ मिलती हैं। यह पगड़ी आज भी कई कुशवाहों के आंगन में खूंटी पर टंगी मिल जाएगी।जिसकी अदब ब्राह्मण व ठाकुर राजपूत भी करते हैं। और वे मानते हैं कि कुशवाहा ही भारत का मूल क्षत्रिय हैं,जो राम का वंशज हैं। पर,बिहार के कुशवाहा अपने को क्षत्रिय कहलाना पसंद करते हैं,पर ठाकुर-राजपूत कहलाना पसंद नहीं करते;क्योंकि वे मानते हैं कि कुछ ठाकुरों ने मुसलमानों के यहाँ बेटी देकर पूरे हिंदू समाज को अपमानित किया है। और वे मानते हैं कि राजपुत और क्षत्रिय एक नहीं है। क्षत्रिय बहुत प्राचीन हैं,पर राजपूत सातवीं शताब्दी के बाद के हैं।इतिहासकार रोमिला थापर मानती हैं कि राजपूत शक-हूण जैसी विदेशी जातियों की संतान हैं,जबकि इतिहासकार गंगा प्रसाद गुप्त मानते हैं कि कुशवाहा क्षत्रिय हैं,जो राम के पुत्र कुश के वंशज हैं।इतिहासकार विलियम आर.पिच भी इनसे अपनी सहमती रखते हैं। विलियम आर पिच का'पिजेंट्स एंड मोंक्स इन ब्रिटिश इंडिया 'में इसे देखा जा सकता है।
कैमूर जिले में कई छड़ीदार कुशवाहा भी हुआ करते थे,जो न्याय कर्ता के तौर पर काफी ख्यात थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी कई कुशवाहों ने अपना योगदान दिया। जिसमें भोजपुर के अजायब सिंह कुशवंशी का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। से १८५७ ई.के विद्रोही ठाकुर वीर कुंवर सिंह के युद्ध शिक्षक थे। अंग्रेजों से पंगा लेने वाले यह भोजपुर के प्रथम वीर वांकुरा थे। रोहतास के शिवसागर के रामधारी सिंह कुशवाहा ने दानापुर से बक्सर जा रही ट्रेन को बिहिंया में छतिग्रस्त किया,जहाँ कुशवाहा देवी 'महतिन देई'का भव्य मंदिर है।संझौली के झड़ी सिंह महतो को अंग्रेजों ने गोली से मार दिया।काराकाट के लालमोहर सिंह कुशवंशी जो करूप के थे,छात्र जीवन में अंग्रेजों के खिलाफ काफी सक्रिय थे।
इस तरह पूरे भारत में अपने दम पर कुशवाहों ने राजपूतों से भिन्न क्षत्रिय रूप में अपनी पहचान बनाई। जिसे इतिहास सदा आदर के साथ स्मरण करता है।
(साभार-"कुशवाहा वंश का इतिहास", डॉ.हरेराम सिंह )
++++जय कुश!+++जय कुशवंशी क्षत्रिय++++

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