विनीता परमार की कविताएँ

विनीता परमार की कविताओं में स्त्री चेतना का विपुल विस्तार
............डॉ.हरेराम सिंह...
विनीता परमार के पास कहने को तो अभी बहुत सफर तय करने हैं पर इनका सफरनामा इतना छोटा भी नहीं कि आप इन्हें छोड़कर चले जाएँ.अगर आप आलोचक हैं और इनकी कविताओं को पढते हैं या छुते हैं तो आप इन्हें 'बाय'कह नहीं जा सकते.थोड़ा ठहरेंगे,हालचाल पूछेंगे ,और उस दौरान आप उनकी कविताओं में उतरते चले जाएँगे कि और उनकी कविताएँ अपनी व्यवहार कुशलता,आत्मीयता, तार्किकता और संवेदना द्वारा आपको जीत लेंगी और आप उनके हो जाएँगे.बोधि प्रकाशन -जयपुर से "दूब से मरहम''काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके है.''खनक आखर की''साझा काव्य संग्रह में भी इनकी कविताएँ संकलित हैं और "धप्पा'(संस्मरण संग्रह)का संपादन भी कर चुकी हैं और आजकल,बया,कादंबिनी,कथादेश,मधुमति,प्रकृति दर्शन ,निकट,सृजन सरोकार,अहा जिंदगी,समहुत आदि में भी लगातार छपती रही हैं और पेशे से  केंद्रीय विद्यालय ,पतरातू(झारखंड)में शिक्षिका हैं और पर्यावरण विज्ञान में ये शोध कार्य भी कर चुकी हैं.इनके पूरे आत्म चरित से आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि प्रकृति,मानव और कविता इनके जीवन व जीवनोद्देश्य के अभिन्न अंग हैं और स्रष्टा के रूप में एक स्री का होना काफी है.फिर भी कला मर्मज्ञ होना,रचनात्मक  होना एक विशेष उपलब्धि  है.क्योंकि कविता करना कोई ठट्टे की बात नहीं.वह सुधीर्घ चेतना का प्रतिबिंबन हैं,जिसमें मानव जीवन के विविध जीवनानुभव अपने तरीके से विस्तार पाते हैं,हलचल करते हैं,कभी खो जाते हैं,कभी एकबारगी प्रकट होकर बहुत ही कम समय में कुछ ही चित्रों,दृष्यों,घटनाओं,संवेदनाओं,परिस्थियों ,वाक्यों व उपवाक्यों के सहारे बहुत कुछ कह जाती हैं;नहीं तो संकेतों के सहारे हमारी चेतना को कुरेदकर हमें जगा देती हैं,जिसमें न जाने कितने ऐसे घटनाक्रम व अचेतन में बैठी अमूर्त संवेदनाएँ आकार ग्रहणकर अतीत व वर्तमान के कई रंगों से हमें रुबरु कराती हैं जिसकी व्याख्या कोई आलोचक नहीं रंग ही करते हैं.उन रंगों का अपना परिवार है और उस परिवार के प्रत्येक सदस्य एक दार्शनिक की सी भूमिका निभाते हुए वे ऐसा कुछ कह जाते हैं जिसे हम मानव शब्दों में कह पाने में असमर्थ होते हैं.विनीता परमार की कविताएँ उन रंगों के परिवार की सदस्या हैं जहाँ सिर्फ चटकीले रंग नहीं हैं;बलकी सादे व गमखोर रंगों में भी स्त्री जीवन की कथा साँसों के रंग में,सरसों तेल में,घंटियों की आवाज में ,गाजर घास की झाडियों में,सफेद दाढ़ियों में,सख्त होते नाखूनों में,अवश शोर में,पेट के आकार में,उल्टियों में,झूलती हुई स्मृतियों में,तैरते शब्दों में,वायु के झोंके में,फूटती रुलाई में,सूखती घासों में,ऊंची एड़ियों में,पहिए की घूर्णन में,नई बीमारियों में,ओंस की बूंदों में,कुतरे आम,जामुन के मिठास में,कांपते रोम में,उठती लहरों में,केंद्र की चुप्पी में,लाल स्याही में,अतीतों के खुदाई में,चूडी व चावल में,खोइचे के पाँच दाने में,गुणसूत्रों की समता में उभरकर सामने आते हैं.कोलंबस व इब्नेबतूता के रूप व स्वर में भी वह सामने आता है और समय को,  समय की चेतना को,टूटन को,प्रेम को और एक गहरी खाई को परमार की कविताएँ धीरे-धीरे उसांसों की थिरकन से सबकुछ कह डालती हैं.विनीता परमार के पास संकेतों का बड़ा पूँज है,जिसका इस्तेमाल करना वे बखूबी जानती हैं और पुरुष व पूँजीवादी सत्ता के खिलाफ शकुंतला,सीता व उर्मिला को खड़ा कर देती हैं.
"तुम तो पोषिका हो
फिर भी है तुम्हें
हरदम एक संदर्शिका की खोज
नियंता की विश्वासिनी हो
संरक्षक की संरक्षिता हो"
फिर भी सामंती मन कहाँ मान पाता है कि स्त्री उससे लाखो योजन आगे की यात्रा कर चुकी है.स्त्रियों ने राजपूताने से लेकर मुगलिया सोच तक को चुनौती दी है.पर,हम हैं कि उन्हें स्वीकारने से इंकार करते आए.अपने को 'सिंह'समझा और उन्हें अबला.जबकि पहले वे सिंहनी थीं तब हम!
विनीता परमार समता की पक्षधर व कमजोरों की हिमायती हैं और विषमता के पोषकों को वे बिल्कुल नापसंद करती हैं.इसलिए वे हुंकार करती हैं-
"नहीं बचना तुम्हारी नियती नहीं
तुम्हारा गुणधर्म है".
यहाँ 'तुम्हारी','तुम्हारा'से भी बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है.अपनी कविता 'निर्दय नियति'से वह नियति से टकराती हैं,विद्रोह करती हैं.इनका 'मौन'बहुत ही आक्रामक है.'गर्दन हिलाती मछलियाँ'कविता शोषकों को चिड़ाती हुई आम आदमी की बेबसी व उसके प्रतिरोध को दर्शाने वाली कविता है जहाँ 'उड़ने की चाहत'खतरों से उन्हें खेलना सीखा दिया है.आम जनता और स्त्री दोनों की प्रतीक बन गईं हैं इनकी छोटी मछलियाँ.और इनकी प्रतिक्रियाओं से काफी बेचैन है शासक व पुरुष वर्ग.और इन्हीं वर्गों ने कभी समझा 'पृथ्वी'को,उसके दुख को.
इसलिए वे लिखती हैं -
"तुम्हें पता है!अकेले फूटती रुलाई में तुम सीधे
खड़े यूकेलिप्टिस दिखते हो
तुमने कितने आँसुओं को पानी जैसा पी लिया.
तुम्हारे आस-पास की सूखती घास
दु:ख है 
इस पृथ्वी का"
'वायरस हमला'कविता एक नसीहत है,जो मनुष्य की अनंत इच्छाओं और अंतहीन भूखों की वजह बेवजह अपनी ही कब्र अपने ही हाथों खोदने के परिणाम से उपजी है.'अपनी एडियों को ऊंची करने की सीमा का ख्याल न करना और प्रकृति का निरंतर दोहन करना अग्रचेता का नहीं मूर्ख होने का परिणाम है.और ऐसी मूर्खता पूरा विश्व कर रहा है.कहीं धान की फसलों की जगह हथियारों के खेप तैयार हो रहे हैं ,पर्वतों की जगह बम खड़े हो रहे हैं और इंसान अपने ही जाति को बरबाद करने पर तुला हुआ है!मतलब यह कि यहाँ  पागलों की संख्या इतनी अधिक  बढ गई है कि पागलखाने कम पड़ जाएंगे.'गिरना सिर्फ अच्छा होता' कविता 'गिरना'को परिभाषित कर  रही है जहाँ प्रकृति और मनुष्य के गिरने में भारी अंतर है.प्रकृति की शोभा बारिश और बर्फ हैं,ओस की बूंदे व झरने हैं जो गिरकर भी सकरात्मय लय रचते हैं,अपनी उपादेयता बनाए रखते हैं पर इंसान गिरकर अपनी गरिमा व उपादेयता खो देता है.और यह देखर साधु आत्मा रोती रहती है पर बुरात्मा पर कोई असर नहीं पड़ता.किसान आंदोलन चरम पर है पर उनकी आवाज बुरात्मा कहाँ सुन पाती है?समाज का सबसे परिश्रमी व उपेक्षित दबके की अनदेखी कर ही परम पद वाले 'जय श्री'मना रहे हैं.पर वे यह न भूलें कि 'केंद्रक जब टूटता है तब विध्वंश होता है या निर्माण'.'नाभिक'कविता की यह दार्शनिक पंक्तियाँ जनता की ओर से सत्तापक्ष को चुनौती है और एक बहुत बड़ा संकेतक भी.विनीता परमार के 'संकेत शब्द'बहुत गहरे अर्थ देने वाले हैं और कहीं कहीं काफी भयंकर हो उठे हैं.'अनुपस्थित'कविता दर्द व सृजन की साक्षी है जहाँ इतिहास चावल व चुड़ियों से तैयार होता है.यहाँ परमार विनीता ने स्त्री नजरिए से कविता के द्वारा इतिहास को देखा व परखा है और इतिहास के केंद्र में स्त्री को स्थापित किया है.ऐसे तो चावल का संबंध मनुष्य जाति के जीवन व अस्तित्व से है पर उसे उपयोगी  चूड़ी लगी कलाईयाँ ही बना पाती है.जिस पर हजारों वर्षों से स्री जाति का ही एकाधिकार रहा है.'खोइचे'कविता सास्कृतिक धरातल पर एक उच्च  कोटि की कविता है,जहाँ स्त्री जाति अपना सबकुछ देकर भी अपने परिवार को खुश देखना चाहती है.पापा को संबोधित करती पँक्तियाँ-
"हाँ पापा ,अगर खोईचे के साथ रह जाता 
सम्मान,स्वाभिमान,सौभाग्य
तो रख देती सब यहीं पर"
कितना कुछ कह देता है!जिसे इतिहास व स्मृतियों की लंबी शृंखला ,अटूट शंखला स्त्री व मानव जाति की विकसित चेतना व संवेदना का प्रतिनिधित्व कर रही है ,जिसमें मानव जीवन का जीवन के पक्ष में स्त्री जाति का अनुभव संसार अपनी चेतना,दर्द,खुशी,अफसोस,शिकायत और प्रेम से इस जीवन को सिर्फ और सिर्फ सींचना ही सीखी है और यहीं उनके जीवन का परम लक्ष्य भी हैं.
      निश्चित तौर पर विनीता परमार एक ऐसी कवयित्री हैं जिनकी कविताओं से गुजरना शब्दों,बिंबों,प्रतीकों,संकेतों से गुजरते हुए पूरे मानव जीवन से गुजरना हैं,जहाँ स्रियाँ इतिहास व नवजीवन की धूरी हैं और निर्णायक की भूमिका में हैं.

संपर्क:बिक्रमगंज,रोहतास.मो.न.8298396621

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