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ओबीसी साहित्य विमर्श

ओबीसी साहित्य विमर्श .........हरेराम सिंह ओबीसी साहित्य के ऐतिहासिक विकासक्रम को सझने के लिए  'फारवर्ड प्रेस' के जुलाई, २०११ के अंक में छपे आलेख 'ओबीसी साहित्य की अवधारणा' को पढ़ना जरूरी हैं; क्योंकि इसी लेख से साहित्य की इस नई धारा का प्रारंभ हिंदी पट्टी में माना जाता है और इसका श्रेय जाता है-डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह को,  कारण कि इससे पूर्व इस धारा की खोज किसी ने नहीं की और न ही इसकी अवधारण को किसी ने पेश की। इस आलेख की खासियत यह है कि इसने साहित्य को देखने व समझने की नजरिया ही बदल डाला। फारवर्ड प्रेस के संपादक आयवन कोस्का ने 'बहुजन साहित्य वार्षिकी २०१२' में इसकी बजाब्ता पुष्टि भी की। जबकि इसके पूर्व मराठी में ओबीसी साहित्य का जन्म हो चुका था; लेकिन उसकी रूपरेखा क्या थी और कैसी थी, इसकी सूचना हिंदी पट्टी को नहीं मिल पाई। इसलिए ओबीसी साहित्य का जनक होने का श्रेय भी डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह को ही जाता है; क्योंकि इस पर विस्तार से इन्होंने न सिर्फ  लिखा ; बल्कि  इस पर एक स्वतंत्र पुस्तक " ओबीसी साहित्य विमर्श" (२०१४) भी लिखी। तब से आज तक लगातार ओबीसी साहि...

डॉ.हरेराम सिंह, कवि-आलोचक

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ख्यातिप्राप्त कवि व आलोचक डॉ. हरेराम सिंह का सामान्य परिचय व उनकी प्रकाशित कृतियां: जन्म :  30जनवरी 1988 ई.को, बिहार के रोहतास जिला अन्तर्गत काराकाट प्रखंड के करुप ईंगलिश गाँव में। शिक्षा : एम.ए.(हिंदी), यू.जी.सी-नेट, पीएच.डी.| आलोचना-ग्रंथ:  १. ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार, 2015 २. डॉ.ललन प्रसाद सिंह:जीवन और साहित्य, 2016 ३. हिंदी आलोचना का बहुजन दृष्टिकोण, 2016 ४.  हिंदी आलोचना का प्रगतिशील पक्ष , 2017 ५. हिंदी आलोचना का जनपक्ष , 2019 ६. डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की वैचारिकी, संस्मरण एवं साक्षात्कार , 2019 ७. आधुनिक हिंदी साहित्य और जन संवेदनाएँ , 2021 ८.  किसान जीवन की महागाथा : गोदान और छमाण आठगुंठ , 2021 ९. समकालीन सच:संदर्भ साहित्य और समाज, 2021 १०. डॉ.ललन प्रसाद सिंह का जीवन, दर्शन तथा लेखन,2021 कविता-संग्रह:  ११. हाशिए का चाँद , 2017 १२. रात गहरा गई है !, 2019 १३. पहाडों के बीच से , 2019 १४.  मैं रक्तबीज हूँ !, 2019  १५. चाँद के पार आदमी , 2019 १६. रोहतासगढ़ के पहाड़ी बच्चे, 2019 १७. रात के आखिरी पहर तक , 2020 १८. नीम की पत्तियों से उतरती चाँद...

कहाँ खड़े हो मेरे राजकुमार

कहाँ खड़े हो मेरे राजकुमार ..... लंपट समय में लंपट लोगों के साथ खड़ा होने पर विवश है हमारे युग की नई पीढ़ी और हम हैं कि टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं! ऐसा नहीं है कि ये लंपट लोग इस युग से पहले कभी दिखाई ही नहीं दिए और तत्कालीन ऊर्जा को कालनेमि बनकर भटकाए नहीं ! इधर का दौर कुछ ज्यादा ही खतरनाक हो चुका है रूस-यूक्रेन युद्ध से भी ज्यादा अमेरिका विश्व पटल पर ऐसा उतर रहा है जैसे उसने कोई पाप किया ही नहीं है लोग नागासाकी और हिरोशिमा को भूल गए, या भूलना उनकी मजबूरी बन गई है? चाहे युद्ध कोई लड़े, सुनाई देती है मानवता की चित्कार ही! पर, यह सुनने वाला कौन बचा हैं? आज गाँव का बच्चा-बच्चा फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सएप और इंस्टाग्राम पर सक्रिय है और इस नई उपलब्धि के गुमान में वह इतना इतरा गया है कि भूख-प्यास की उसे चिंता नहीं  अधकचरी सामग्री को ही प्रमाणिक आधार मान हुल्लड़ मचा रहा है कश्मीर फाईल के पहले भी कई फाइलें दब गईं  और बाद की कई फाइलें दब जाएंगी महिलाओं के साथ बलात्कार और कमजोरों की जमीन कब्जाने की प्रक्रिया आज भी अबाध गति से चलती चली जा रही है और मेरे गाँव का राजकुमार किताब छोड़ फेसबुक पर पलट...

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन -पटना(दिनांक-02-04-2022)

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(डॉ.अनिल सुलभ जी के संग) (जनार्दन मिश्र जी -आरा जी के संग) डॉ.ललन प्रसाद सिंह व ओम प्रकाश जी के साथ (डॉ.सीमा विजय वर्गीज जी के संग) (हिंदी साहित्य सम्मेलन में शिरकत करते हुए डॉ.हरेराम सिंह) (हिंदी साहित्य सम्मेलन की कुछ झलकियाँ)

मेरे राम का चरित्र

राम का पूरा चरित्र पढ़ जाइए वे 'क्रूर' व 'आक्रामक'नजर नहीं आएंगे न ही वे 'राजपूत'नजर आएंगे ;वे क्षत्रिय नजर आएंगे.वे सौम्य नजर आएंगे,अन्याय से लड़ते नजर आएंगे ;आज के 'कुशवाहों'सा सीधा नजर आएंगे;गलती का प्रतिकार करते नजर आएँगे.आखिर ऐसा क्यों?उनका व उनके भाईयों का 'रामायण'व'रामचरितमानस'पढने से जो मानसपटल पर जो छवि उभरती है ढील-डौल की वह भी 'राजपूतों'की तरह भयानक नहीं है और न ही फूलन देवी व हाथरस की लडकी मनीषा बाल्मीकि से बलात्कार करने वाले 'राजपूतों'की तरह है.आखिर ऐसा क्या क्यों है?इसे समझने के लिए इतिहास में जाना होगा,वर्ण व्यवस्था को समझना होगा.'राजपूत'वर्ण नहीं है.वह जाति है और यह जाति 7वीं शताब्दी के बाद की है.यह जाति आक्रमण कर भारत को जीतना चाहा.पर भारत के पूराने राजवाडे व क्षत्रिय इन्हें भीतर प्रवेश नहीं करने दिए .उन्हें सीमा तक सीमिता दिए.ऐसा विचार डॉ.राम प्रकाश कुशवाहा का है.इतिहासकार श्याम सुंदर तिवारी कहते हैं कि विभिन्न राजाओं जो भिन्न कुल व वंश के थे वे 'राजपूत'खुद को घोषित कर दिए.यहां तक कि '...

तुम कहाँ हो?

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कर्नल टॉड और कुशवाहा

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पृ.सं.567 पर कछवाहा या कुशवा लिखा है।यह कुशवा(हा) है। 'हा' मिसप्रिंट है। कुशवाहा ........ ■हरेराम सिंह... कुशवाहा जाति कुश के वंशज है। उरावों से इसका संबंध नहीं है। अयोध्या से रोहतासगढ और रोहतासगढ से नरवर गई। वहाँ जाने पर कुशवंशी/ कुशवाहा ही कछवाहा हो गए। इसकी दूसरी शाखा लाहर के पास कोहरी या कोहारी दर्रा के पास बस गई। कुछ लोग कोहारी से कोइरी की उत्पत्ति भी मानते हैं। कुशवाहा किसी बानरी सेना से नहीं सीधे रामचंद्र से बनी है यानी उनके ज्येष्ठपुत्र कुश से। किसी इतिहासकार सोमवंशी ने भी 'क्षत्रियार्णव ' में ऐसा ही लिखा है। ऐसे विभिन्न जगहों पर कर्नल टॉड कुशवाहा शब्द का प्रयोग किये हैं और कछवाहा भी। रोहतासगढ़ को बनाने का श्रेय भी कुशवंशी/कुशवाहों को ही देते हैं। अलग-अलग राय हो सकते हैं पर कुशवाहो का नस्ल देखे तो वह आर्य प्रतीत होगा अतएव उन्हें उराँव से नहीं जोड़ा जा सकता। जबकि यह भी सच है कि आमेर को ...