कुशवाहा :एक चिंतन

चिंतन
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कुशवाहा समाज ने जाति व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया.यह कदम तो बहुत प्रोग्रेसिव था;पर दूसरे समाज के लोगों ने सोचा कि इसकी(कुशवाहा) अपनी कोई जाति नहीं  रही;क्योंकि जो इसका विरोधी है उसकी जाति क्या?मतलब यह कि यह सिर्फ सिंगल होता है इसका कोई समूह नहीं होता.यह गाजर मूली है और न जाने किस पगलैट ने इसे सब्जी बोने वाले के रूप में प्रचारित कर दिया.इसके परिणाम बहुत बूरे हुए. हमारी राष्ट्रीय आईडेंटिटी 'कुशवाहा'कमजोर पड गई और हम कई शाखाओं  में गुम हो गए या आपस में लडते रहे.हमें सबको स्वीकारकर चलना भी नहीं आया.हमने ही अपना अस्तित्व दांव पर लगा,पूरे समाज को सुधारने का ठेका ले लिया.हुआ यह कि हम समाज से कट गए और इसका राजनीतिक लाभ दूसरों को मिला.यहाँ तक कि राजनीति में जाटव(चमार)भी हम पर सवार होकर हमसे आगे हो गए.और यादव कृष्ण को पूजते हुए अपने को सत्ता के केंद्र में लाकर खडा कर दिए.हम कुश से अलग हो गए,ईश्वर विरोधी बनकर वोट से दूर हो गए और लगातार हमपर जुल्म होते रहे;वजह लोगों ने सोचा कि जो जाति विरोधी है वह खुद की जाति पर भला कैसे विश्वास करेगा?बात भी सही थी.कुर्मी भी हमसे आगे रहे.जब तक हम राम,लव-कुश,बुद्ध,अशोक,आल्हा-उदल को एक साथ अपनाते हुए और अन्य समाजों की धरणाओं को सम्मान करते हुए यादवों की तरह आगे नहीं बढेंगे,हममें चतुराई नहीं आएगी .तबतक हम आगे नहीं बढेंगे.आप विरोध से ज्यादा शक्ति जुटाने पर जोर दीजिए.जब शक्ति  हो जाएगी,किसी के पास हिम्मत ही नहीं होगी कि वह आपको धमकाए.खोंखा होकर विरोध का मतलब कुछ बन नहीं पाएगा.कुछ लोगों ने यह भी कहना शुरु किया कि" कैसा कुशवाहा है कि कुश के अस्तित्व पर सवाल कर रहा है!और खुद को कुशवाहा बता रहा है.कहीं नकली कुशवाहा तो नहीं?"बुड़बक है कि चालाक?समझ नहीं पा रहा.
***शक्ति इकट्ठा  करें और फिर देखिए उसका रंग****

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साहित्यकार डॉ.हरेराम सिंह