हरेराम सिंह की कविताएँ

हरेराम सिंह की कविताएँ

1.छल!

मैं तुम्हें जानता था 
कि छल में माहिर हो
जब बीएचयू में आया था
कई छात्र जो चेहरे पढ़ नहीं पाते
समझते थे तुम्हें देवता
जबकि सच है कि तुम शुरू से थे
दलित-पिछड़ों का विरोधी
इनका हक़खाऊ!
और अपना चेहरा दिखा ही दिया!

तुमलोग कबकत खून पिओगे
जोकों की तरह
सूअर तो गू खाता है और गंदगी साफ़ करता है
चलो एक तो बड़ा काम करता है!
' नॉट फाउंड सुटेबल' क्या होता है रे पतित
बता-बता यही तुम्हारी योग्यता है रे प्रतिभा-हत्यारे!
बहुजन विरोधी
चिकनी बोली बचन वाले विषैले सर्प
तुम किस जंगल से आया?

न जाने कितने ऐसे विषधर 
विश्वविद्यालयों में निछुका विचर रहे हैं
रह-रह डँस रहे है गरीब आदिवासी छात्र-छात्राओं को
एक अंक देकर इंटरव्यू में
उनके मूत्र से अपनी संतानों को अमर बना रहे हैं?
यह कबतक चलेगा रे 'गऊ' हत्यारे
क्या तुम्हें पता नहीं कि सीधी-साधी जनता 
गरीबी और जहालत की मार से बेहाल है
और हजारों वर्षों से इन्हें तुमलोग दूहते आए?

तुम्हें शर्म नहीं आई 'पंत-संस्थान'के तथाकथित रखवाले
कि पिछड़े वर्ग के छौने राष्ट्र की संपत्ति हैं?
इनकी आशाओं को मारना
देश को मारने के समान है!
जिन्हें वर्ग संघर्ष दिखता नहीं 
वे आँखें खोलकर देख ले कि कैसे वर्ण के खोल ओढ़े
अपना काम करता जा रहा है
बद्रीनाथ! तुम उस 'बद्री' को कब क्षय की शाप दोगे
जो तुम्हारे शोषित शोधार्थियों को 'डायवर्ट' होने का तोहमत लगाता है!
और उनकी हड्डियों से अपना घर सजाता है!

2.कलम की नोक पर बात आ गई

आ गई बात कलम की नोक पर
छुपाए छुप न पाई, चमक गई होठ पर
लोग कहते रहे, यह रोग कहाँ से पाया?
क्या बताऊँ खुद को बचा नहीं पाया!
आँधियाँ चलती रही, पेंड़ हिलते रहे
छुप-छुपकर हम एक दूसरे से मिलते रहे
कभी दिन, कभी रात गीत में ढल गए
रूह खोजती रही, वक्त गुजर गए
कभी बर्फानी रातें साँस लेती रही
वह गुजर गई , कुछ अंदर रोती रही
पास आया तो, फिसलने लगा
दिल को थामा; मगर बहकने लगा
ये चाँदनी आज आँख चुराकर चली गई
कुछ मुछसे भूल हुई वह उदास चली गई
हौले-हौले डोल रही धान की पकी बालियाँ
खरगोश की जोड़ी कुछ दुधिया रोशनी में पा लिया
एक सिहरन न जाने कब गुदगुदा गई
आँख चुराकर ये ठंढ़ी हवा बुदबुदा गई
इस तन्हाई में भी कुछ अचरज हुआ, 
सन्नाटा मुस्कुराया, देख जिंदगी में जो कुछ हुआ


3.युद्ध और भी

कँटीली झाड़ियों में फँसता जा रहा है आदमी
पूरा विश्व बदलते जा रहा है युद्ध में
विस्तार और वर्चस्व की भूख इतनी
कि मानवता हारती जा रही है!
जंग कैसी जो भेड़िए की विधि को वैध माने?

हथियार और हिंसा का गठजोड़ पुराना है
पुराना है विघटन और पतन की कहानी
पर, यह कम पुराना कहाँ है कि मानवता
जब चरम पर होते हैं मनमौजियाँ व अत्याचार
फिर भी बची रहती है हमारे बीच

कल और आज में आखिर क्या बदला है?
बदला है पर जिन्दगी हू-हू कर रही है
जैविक हथियार और कोरोना जैसी महामारी
डरा दिए हैं हमारे इतिहास को
और मानव कोयले की राख में बदल रहा है!

बुद्ध, प्लेटो यहाँ तक कि मार्क्स हमारे सामने हैं
उजड़ता हुआ चिड़ियों के घोसलें हैं 
और डॉल्फिन मछलियों को साँस लेना मुश्किल है
हवा और पानी बदलते जा रहे शाप में
हमारे हाथ में मोबाइल जैसा झुनझुना 
थमा दिया गया है कि खेलो, खूब खेलो!

और हमारे देश में आधी से अधिक संपत्ति
मुट्ठी भर लोगों के हाथ में है
और बड़ी शान से कह रहे हैं हम
लोकतंत्र में हम जी रहे और राजा का अंत हुआ
और महज चंद पैसे में लोग 
गरीबी रेखा को पार कर जाते हैं
भले क्यों न सड़क किनारे भूख व रोग से 
उम्र से पहले दम तोड़ दे
क्या यह युद्ध के शिकार आदमी नहीं हैं?
अगर हाँ, तो सवाल सिसक रहे हैं!

4.सब्र का बांध टूट रहे हैं

न जाने कैसे-कैसे, लोग होते जा रहे हैं!
जो चीजें बचनी चाहिए, खोते जा रहे हैं।
जाकर कब्र पर देखो, मुर्दे में भी शरम है
न जाने कहाँ से बेशरम लोग होते जा रहे हैं।
झूठ को गले का हार बना इंसान आज इतराता है
सर्प सरीखा विष लेकर,लोग गली-गली घूम रहे हैं।
इतिहास में गुमनाम नायकों की कमी कहाँ?
इतिहासकार इतिहास मुँह चुन-चुनकर लिख रहे हैं।
सुबह की रोशनी जो खिड़की से अभी आ रही थी
उसमें न जाने क्यों वे लोग दहशत जगा रहे हैं!
जो राजतंत्र का मजा चखें हैं उन्हें लोकतंत्र कैसे भाएगा?
जंगल-पहाड़-खेतों से आते युवकों को देख घबरा गये हैं!
वे जितना चाहें रोक लें जंगल नहीं; महलों में आग लगेगी
वजह,दुख-तकलीफ व अन्याय से सब्र का बांध टूट रहे हैं

5.कल्पना और यथार्थ

यह सच है कि समाज में छुआ-छूत है
यह सच है कि भ्रष्टाचार चरम पर है
यह सच है कि विपत्ति में भगवान बचाने नहीं आता
यह सच है कि बिना प्रतिरोध के,  व्यवस्थाएँ बदलती नहीं
यह सच है कि कुछ लोग समझ लिए हैं खुद को धरती का प्रभु
यह सच है कि शासकों को लोग गलती से मान लेते हैं देवता
यह सच है कि राम को भगवान चाहे न मानो; पर अंतरात्मा बन चुके हैं वे
यह सच है कि कल्पना से बहुत कुछ रचित हो सकती है
यह भी सच है कि हमारे पूर्वज ही बन चूके हैं पूज्य
यह सच है कि पागल कुत्ता काटता है
यह सच है कि सूर्य की किरण हमारी प्रेरणा है
यह सच है कि तारों में निहारते हैं हम अपने पूरखों को
यह सच है कि कुछ लोग हमारे पूर्वजों को इस्तेमाल करते हैं व्यावसाय के तौर पर
यह सच है कि भोली-भाली औरतें फँस जाती हैं फरेबियों की जाल में!
यह सच है कि आम लोगों के साथ न्याय मिलना मुश्किल है
पर, हर कुछ काल्पनिक कैसे है?
यदि काल्पनिक है तो कल्पना भी एक यथार्थ है
दुनिया में अबतक के हुए बड़े युद्ध- हर बार साबित होते हैं कल्पना से परे!
और भविष्य में अन्याय के खिलाफ होती रहेंगी लड़ाइयाँ
जहाँ जीतेंगे किसान-मजदूर कल्पना का यथार्थ जादू है
और इस जादू से वाकिफ होते हैं दुनिया के सबसे समझदार लोग
इसलिए कल्पना से वे गुरेज नहीं करते हैं 
क्योंकि वे मूर्ख नहीं होते हैं!

6.आओ काशी!

काशी मतलब शिव की नगरी
आओ और बोलो- हर-हर महादेव
महादेव यानी अनार्यों-आर्यों के देव

काशी मतलब पंड़ों और गपाड़ियों की नगरी
जंतर-मंतर, साँप-बिच्छू,अवघड़-बौगड़ की नगरी
जुलाहा-कोयरी-खटिक-पनेरियों की नगरी

आओ! काशी में आओ! घूमो-फिरो
गंगा स्नान करो, काशी विश्वनाथ के दर्शन करो
पर भइये! राड़,सांढ़, बाण से बचे रहो

हर-हर महादेव!
बाटी-चोखा खाओ और पंड़े से बचे रहो
बनारसी पान खाओ, न जाने आज कैसा हाल है रे भइये
बिन पैसे के दर्शन एक बार नहीं हुए शिव के
तब समझा पैसे का महत्त्व!

मेरे मित्र! काशी में आओ चाहे ऊँघाओ
पर, भाँग खाओ
गाली बको; प्यार करो और आम खाओ
और जोर से बोलो-हर-हर महादेव!

पर, जरूरत है और काशी आने की
वीणा, सारंगी, तबला बजाने की
सत्ता अमीरों के हाथ न हो भगवन महादेव
हमें इजाजत फरमाए शंभूनाथ क्रांति का डमरू बजाने की

हे मेरे प्रियवर देव!
आपके साथी तो 'बसहा बैल' हैं
सपना में देखा वे रो रहे हैं
कोई दढ़ियल सवाधू पीठ पर चाबुक बरसा रहा है
घोर अन्याय प्रभु, घोर पाप!
भूत-प्रेत, डोम-मुसहर-माली-पनिहारिन सब चकित हैं
तनि भभुतवा फेकों न देव
सती मइया का अपमान हमारी धरती मइया का अपमान है दानी!

हे कबीर आप भी काशी अवतार हैं
साक्षात् शिव! अत्याचार-नंगई और धांधली का खेल बंद हो
मुट्ठी भर की कहानी बंद हो, शैतानी बंद हो
आओ ऐसा प्रण करें मेरे शिव भक्त
और एक साथ, एक स्वर में बोलें- हर-हर महादेव!
ताकि बनारस कौन कहे दिल्ली हिल उठे
दिल्ली का निजाम हिल उठे!

महादेव! बेलपतर लाया हूँ, धतूरा भी है, 
श्रधालु भाँग पीस रहे हैं
अपने तीसरे नेत्र की रोशनी प्रदान करो देवों के देव
जनता को अँधेरे में रोशनी की जरूरत है!

7.लौंड़े की दारुण-कथा

जब-जब देखा लौंडा-नाच
पता नहीं क्यों
मेरे मन ने कहा-खुशी किसकी और नाच रहा कौन!
यह नाचने का व्यवसाय कब शुरु हुआ पता नहीं
और आज हर आदमी नाच रहा है
कोई नचा रहा है!

पुरुष जब चोली-घाघरा पहन बन जाते हैं लवंड़ा
तब बच्चे खुश होते हैं उन्हें देखकर
और अमीर आदमी मूँछ पर ताव देते मुस्कुराता है
कि वह किसी पुरुष को बना दिया है नार यानी लौंड़ा

प्रहसन व नाटक सदियों से बनता आया है आदमी
और आज भी बन रहा है
कोई शौक से, कोई कला-व्यवसाय के नाम पर

सिनेमा में औरतें जलुआ करती हैं 
जैसे विवाह के दिनों ताली पीट-पीटकर वे किसी लड़की या औरत को मर्द बना नचाती हैं और खुश हो जाती हैं
जैसे बर्षों की कोई साध पूरी हो रही है!
और पुरुष औरत या औरत-रूप को नाचता देख खुश होता है

ये आदमी भी हैं न गजब हैं!
दूसरों को लौंड़ा बनाते-बनाते कब बन जाते हैं लौंड़ा
जिनकी बूब्स देख लट्टू हो जाते हैं रूप के व्यापारी
और धंधा चल पड़ता है
छापेमारी पुलिस करती है और वह भी हो जाती है दर्शक
और लौंड़ा नाच रहा होता है!

ये बाज़ार है न!
पूरी तरह पटा है लौंड़ों से
एक लौंड़ा आ रहा है और दूसरा लौंड़ा जा रहा है
इसे कला कहते शर्म आ रही है
और लौंड़ा नाच जारी है
गल्ली, मुहल्ले,सड़क और संसद तक!
बस,समझने की जरूरत है
एक लौंड़ा अपनी दारुण-कथा सुना रहा है
हम सबको बता-बता जगा रहा है!

8.इतिहास 

इतिहास अपना पन्ना खुद पलटता है
और खुश होता है
इतिहास खुश होता है उनपर
जो पन्ने पलटने में उसकी मदद करते हैं
जो लोग सहने की क्षमता रखते हैं तीरों की चुभन को
इतिहास उन्हें याद करता है
इतिहास उन्हें भी याद करता है
जो अँधेरे व अन्याय के खिलाफ लड़ते हैं
तलवार उठाते हैं!
इतिहास के पन्नों पर जितना आदरणीय होती हैं बलिदानी
उतना सिंहासन भी नहीं होता
आप कह सकते हैं गाँधी, नेहरू और अँबेदकर को बड़े लीडर
वीर कुँवर सिंह, मंगल पांडे का नाम आदर के साथ जरूर रखिए
पर, भगत सिंह की बात ही कुछ और है!
और उनका जिनके नाम भूला देने की कोशिश हुई
अजायब सिंह महतो, झड़ी सिंह महतो, रामधारी सिंह कुशवंशी, शोभनारायण साहू, भगवान अहीर, इंद्रजीत कोइरी, सुखन लोहार,टाट्या भील,फौजदार सिंह,भिखारी कोइरी, कालू कछवाह जैसे हजारों नाम
पर, इतिहास गदगदा जाता है इनका नाम सुन
और उसे गर्व होता है अपने होने पर
और संकेत में वह सबकुछ कह जाता है
कि देखो-देखो मुझे
पलटो मुझे बार बार
और एक नया अध्याय जोड़ो, एक सादा पृष्ठ तुम्हारे नाम का है मेरे पास
सम्राट अशोक, बज्रदामन कछवाहा, आल्हा-ऊदल की भाँति कुछ लिखो, कुछ खींचो, कुछ बदलो
और मुझे नया कलेवर दो क्योंकि मुझे नयापन बहुत पसंद है!

9.केंचुल उतारने का वक़्त

केंचुल उतारना भी कितना कष्टप्रद होता है!
वजह लोगों को अपने केंचुल से इतनी हो जाती है मुहब्बत 
कि नये कलेवर की रौनक उन्हें दिखाई ही नहीं पड़ती
इसी वजह से चिपके रहते हैं लोग हजारों वर्षों से नागिन की पतली कमर से
और चुंबन लेते रहते हैं उसे प्यार से
जबकि यह सच है केंचुल उनसे कहता है -मुझे उतारकर तुम मुक्त हो जाओ!

जाति वहीं है जिसमें हमारा जन्म होता है
धर्म वहीं है जिसे हम अपनाते है
और संस्कार नित नये का परिमार्जन
पर, किसी रूढ़ को ही समझ लेना जाति, धर्म, संस्कार 
है सबसे खतरनाक
और सच यह है कि लोगों में नफरत पैदा करते हैं
मांझी और पंडित दोनों हैं शिकार
नाव न आगे जा रही और न पंडिताई काम आ रही
और मानवता चीख रही, सिसक रही

केंचुल!
हजारों लाखों वर्षों से हमें अंधा बनाकर रखा है
हमारी गति इससे बाधित है
हम किसी के छुए हुए भात को मान लेते हैं अपवित्र
और न जाने कैसे हो जाते हैं पवित्र?
जबकि नित्यकर्म करते हैं रोज
स्नान करने से मन गंदा नहीं हो जाता पवित्र
वजह, केंचुल बाधा है; प्रांजल होने से रोकता है
हमें नये के स्वागत से रोकता है
और नये पुष्प, नये रंग और गंध हमें पुकारते हैं
कि कम से कम अब तो गले लगो
और हम हैं कि केंचुल से बाहर निकल ही नहीं पाते!
जबकि उसे फाड़ना बहुत जरूरी है
वक़्त हमसे यही कह रहा-टिक्...टिक्..., टिक्...टिक्...


10.क्या हम आगे बढ़ रहे हैं!

अंधानुकरण की धूम है
बढ़ गए हैं आगे, लगता है कोई चूक है
कोई प्यार दिखला रहा सिर्फ 
कोई खाने पर बुला रहा है; दिखावा है सिर्फ
लोग मुस्कुरा रहे हैं इसलिए कि मुस्कुराना है जरूरत
लोग खुशियाँ मना रहे हैं क्योंकि मनाना है जरूरत
गहरे से जुड़े होना जैसे आए गए की चीज हो गई है

कहीं गुब्बारा, कहीं बर्गर की धूम है
बिजलियाँ, रॉकेट, जहाज बना लिए हैं हमने
बहुत कुछ में प्रकृति को मात दे दिए हैं हमने
पर, इंसानित को खोते जा रहे हैं, यह चूक किए हैं हमने
हम किसी के ताल पर नाचने को विवश हैं
हम किसी इशारे के गुलाम हैं
हमारी अपनी न कोई जुबान है न हिम्मत
फिर हम कहे जा रहे हैं-आगे बढ़ रहे हैं!

वोट हम दे नहीं रहे, हमसे लिया जा रहा है
ब्राह्मण, राजपूत, यादव, कुशवाहा, भूमिहार से हम आगे कहाँ गए हैं
सत्ता कुछ ही लोगों की चरणधूलि माथे लगा रही है
गाँव का मातंगी दुसाध बिन खाए सोया है खलिहान में
उमा नाई गाँव में कैंची नहरनी फेंक भागा है चंडीगढ़
रींझिया के साथ बलात्कार हुआ है
मोहना की जमीन बलवंत भूमिहार हड़प लिया है
और कह रहे हम -आगे बढ़ रहे हैं!

11.सत्ता ने सुंदर खेल रचा है!

रचने वाले रचते हैं
बचने वाले बचते हैं
कोई अपने लिए बचता है
कोई दूसरे लिए मरता है

मयावी माया रचता है
उस माया में लोग फँसते हैं
जो दूर की सोचते हैं
वहीं टिकते हैं!

कोई घबरा जाता है
कोई टकरा जाता है
कोई गान करता है उसी का
जिससे मारा जा रहा है उसी का

वायु, जल, पृथ्वी दूषित हैं
वे खिताबों से भूषित हैं
कोई जेल में कंकड़िया तोड़ रहा है
किसी का सात खून माफ़ है
वह जो नया गणित जोड़ रहा है!

कुछ कविताई कर रहे हैं
कुछ भड़वाई कर रहे हैं
कुछ बाज़ार में निकले हैं
सस्ते या अच्छे किसी भी 
कीमत पर खुद को बेचते हैं

सत्ता ने सुंदर खेल रचा है
सबको फुसला लो 
ऐसा चॉकलेट जचा है
निहाल हैं कितने
हाय तौबा के बाद
क्या कोई शरम, धरम बचा है?

हाथरस की लड़की मारी गई
मिर्जापुर की ज्योति छीन ली गई
कितने किसान मरे
मध्य जातियों के हक़ हड़पे गए
फिर भी ढोल बजा है
हसिया पजा है!


12.बनके भिखारी 

बनके भिखारी हम खड़े हैं
जुल्म व सितम के राज में
ख़ून हमारा सस्ता हुआ है
श्रम हमारा पानी के भाव में

सपने टूटे हैं यहाँ-वहाँ
भूख पसरी है शान से
बगुले टाही लगाए हुए हैं
स्यार तिक रहे मानान से

हमारी आँखें मछली की आँखें
उनका निशाना लगा हुआ है
बदकिस्मती है अपनी जिंदगी की
हमारा हक़ खोया हुआ है

इतिहास हमारा चुप है
कहें, चुप कर दिया गया है
दे हथौड़ा, चोटकर
सच, हमें भूला दिया गया है

जो न लड़े, न भिड़े
निस्वार्थ सेवा भाव से
उनकी कीर्ति गा रहे
कौवे कांव-कांव से

मांस खाने की आदत उनकी
पशु हो या नर हो
दगाबाज़ी से जीतते आए
वे हारें, यही स्वर हो

ये न समझो तुम बच पावोगे
तुम भी हो कतार में
उसकी माया में न उलझो
महाठगनी कबीर कह गए सार में

चमक-दमक भाषण उसका
देशभक्ति से दिखे लबरेज़ है
झूठ बोलना उसका धर्म है
वही उसका मखमली सेज है

बन के भिखारी हम खड़े हैं
गाँधी बाबा के सुराज में!
कल-करखाने बिक रहे
विध्वंस फैला समाज में

मर रही हमारी प्रतिभाएँ
आत्महत्या की डोर से?
टिक न पाओगे अधिक दिन
धूल उड़ेगी खोर से!


13.एक दिन क्रांति निश्चित होगी

आप लोगों से पूछिए
कि क्या आप परेशान हैं?
या पूछिए कि आपकी समस्याएँ क्या हैं?
और उन्हें नोट करने को कहें
और खुद भी नोट करें
यही सवाल दूसरे से दुहराएँ
फिर तीसरे...फिर चौथे...
और यह क्रम चलता रहे
अन्य भी ऐसा ही करें
और एक बार ऐसा होगा
कि कुछ 'कॉमन' समस्याएँ सभी में,
सब जगह दिखाई देंगी
फिर लोगों से आप पूछिए
कि क्या चाहते हैं कि समस्याएँ आपकी दूर हो
और परेशानी 
सदा के लिए दूर हो?
अगर इसका उत्तर आपने 'हाँ' सूना है
तो जान लें
कि एक दिन क्रांति निश्चित होगी
और यह
किसी के रोके न रुकेगी!


14.रहूँ कुछ पल और साथ उसके

बाहर हल्की-हल्की बारिश हो रही थी
खिड़की पर के पर्दे फड़फड़ा रहे थे
भीतर सन्नाटा पसरा था
वह युग था

अँधेरे में आँखें किसी को खोज रही थी
झींगुर की आवाज़ें दम तोड़ रही थी
कोई चुपके से आया था
वह मेरा पिया था

आधी रात बीतने के बाद चाँद निकला
आकाश बिल्कुल साफ था
हथेली पर दो बूँदें गिरी
वह मेरा सफ़र था

सूरज अभी निकला न था
कई राज दफन थे सीने में
विश्वास डगमगाया था
मन मेरा पागल था

चिड़िया चहचहा रही थी भोर में
बाहर अभी अँधेरा था
एक सवाल पूछ रहा था
वह मेरा बेटा था

कल की दुनिया न जाने कैसी दिखेगी 
क्या पता अँधेरे ने कहा था
रहूँ कुछ पल और साथ उसके
देखा! उसका साहस था

काश! कोई टिमटिमाती रोशनी होती
उसका राज न होता
बारिश की बूँदे आती-जाती
ऐसा यकीन था

सामने पेड़ लगे हैं साल व गम्हार के
वे सूखे न होते
महकते फूल,चिड़िया दाना चुगती
अपना घर-आँगन था


15.आपको भी कहने का हक़ है!

मुझे यह कहने में शरम नहीं
कि मैं अम्बेदकरवादी नहीं हूँ
और यह भी कहने में शरम नहीं
कि पूरी दुनिया को शूद्र और ब्राह्मण के नजरिये से नहीं देखता
मुझे किताबों की मार्केटिंग नहीं करनी
और न हर बात में शूद्र-शूद्र और ब्राह्मण-ब्राह्मण रटना
वजह, दुनिया इन दो में नहीं सिमटी है
इनके अलावा भी बहुत कुछ है!
और वह खेल भी नहीं खेलना है
'हमारी ही जाति ऊँची है' यह न कहना है
और न 
क्षत्रिय बुद्ध और चंद्रगुप्त को 'शूद्र' बनाना है
राजनीति का पलड़ा भारी करना है 
गाली बकना है और शोषण करना है!
न बुद्ध को आगे खड़ाकर 'राम','कृष्ण' और 'शिव' जैसे नायक को 'रिजेक्ट' करना है
मैं बुद्ध को बुद्ध के नजरिया से देखने का पक्षपाती हूँ
अम्बेदकर के नहीं;

मैं सावरकरवादी भी नहीं हूँ
जो हिन्दुत्व के साये में उग्र राष्ट्रवाद को पाले-पोसे
चौबीसो घंटे हिन्दू मुस्लिम करे
और अशांति पैदा करे
'पिछड़ों' का हक़ खाए और 'दलितों' को हेय समझे
मन में मध्यकालीन छवि जिए
और वर्तमान को भरमाए!
मैं राम और कृष्ण
यहाँ तक कि बुद्ध को राजनीतिक हथियार बनने नहीं देखना चाहता
जबकि सच्चाई यह है कि ये होते आए हैं राजनीतिकरण के शिकार
क्योंकि धर्म और राजनीति में गहरा रिश्ता है
कोई इस्लाम को आगे लाकर खेल खेल रहा
कोई बौद्धिजम
और कोई हिन्दूइजम को
और मकसद क्या है -सत्ता
पर, चुप रहने की सलाह देते हैं
पर, कबीर है कि मानता नहीं
आधुनिक भारत में भी पुनर्जीवित हो जाता है!

मुझे ककहरा पढ़ने में शरम नहीं
न ही संख्या ज्ञान बटोरने में
मैं भी शोषण, अत्याचार, अन्याय और ऊँच-नीच को समूल नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ
और मुझे गै़र-बराबरी बिल्कुल पसंद नहीं
मैं आपकी पहचान को 
मार्क्सवाद में बाधा बहुत हद तक नहीं मानता
कोई 'लाइक' करे या 'डिसलाइक' 
मुझे मार्क्स का रास्ता प्यारा है
समानता पर पहरा है!


16.सपने पल रहे हैं

पाँवों में चुभ जाए न काँटा
आह निकल जाए!
निकले हो लंबे सफर पर
क़दम कही न रुक जाए

सपने पल रहे हैं अपने
इन सुरमिली आँखों में
चलना है सफर पे
नींद कहाँ पलकों में?

आँधी-पानी चल रहे
उनका भी स्वागत है
पत्थरों के आगे जो है
वह हमारी आगत है

फूल-पत्तियाँ ये हवाएँ
हमसे कुछ कह रही
पतझड़ पीछे छोड़कर
खुश्बू की ओर मोड़ रही

हजारों हाथ उठे हैं
बदलाव के इंतजार है
इन बुझी आँखों में
तुमसे कितना प्यार है!

आरजू है तुमसे, उनके
सपनो पर खरे उतरना
उस आह की चिंता न करना
गर्मजोशी से खुद को भरे रहना


17.मेरे शहर की रवायत

मेरा शहर कभी ऊँघता नहीं
जगता रहता है रात भर
या नींद में ही स्वप्न देखता है
मधुर- मधुर 
कुशवाहों के रोहतासगढ़ की तरह 
सर ऊँचाकर अपने शहरवासियों को संदेश देता है
जीवों शान से
अपनी भुजाओं पर विश्वास करों
इन कुशवाहों की तरह

मेरा शहर खुशनसीब है
कि यहाँ सभी रंग के फूल सभी दिशाओं में खिलते हैं
सोनवागढ़ के उस पार भी
सोन नद के पानी से सींचकर निहाल हो जाता है
जब बारिश की बूँदे काव नदी से होकर गुजरती हैं
मछलियों के हौसले देखते बनते हैं
'महतो' किसानों की दँतारियाँ
अँग्रेजों व जमींदारों के गर्दन पर गिरने से नहीं चूकती
वजह; 'महतो' में ताब है वह 'राय' में कहाँ?
ऐसा मानते हैं लोग
और अदब के साथ महतो जी को सलाम करते हैं!

मेरा शहर दूर है जरूर राजधानी से
पर; आशीर्वाद पाया है ऐसा
कि कोई भूखे मर नहीं सकता
और कोई किसी का हक़ मार नहीं सकता
जो मारेगा वह टिकेगा नहीं
क्योंकि यहाँ का हर बच्चा न्याय निमित्त लड़ना जानता है
अपने और ग़ैरों की पहचान आँखों में झाँकर कर लेता है
प्यार के आगे झुकना उसकी संस्कृति का हिस्सा है
और जो स्त्रियों की इज्जत लूटकर बड़े बनते हैं
उनके शिश्न को छह इंच छोटा करना उसकी ड्यूटी है!

18.प्रशस्ति-गान

भद्र मानुष!
क्या तुम्हें आता है प्रशस्ति-गान?
क्या तुम इस कला में माहिर हो?
क्या अवसर को भुनाने तुम्हें आता है?
अगर हाँ, तो ठीक है
वरना चबेनी की तरह पड़पड़ 
तुम ख़ुद भून जाओगे!

सभ्य मानुष!
क्या तुम्हारे पास विष है?
क्या तुम साँप की तरह डंसना जानते हो?
फुफकारने का गुण है कि नहीं?
है तो ठीक है
वरना मुसटी की तरह मारे जाओगे!

विद्वान् मानुष!
क्या तुम्हें दारु पिलाने आता है?
और क्या तुम खुशामद की स्वांग भरते हो
रह-रहकर खूब बढ़िया, बहुत अच्छा, वाह-वाह, अद्भुत
करना जानते हो
तो तुम्हारी रचनाएँ काम की समझी जाएँगी 
और उसके अनुवाद भी होंगे, समीक्षाएँ भी छपेंगी
वरना, कूड़ेदान की चीज़ करार दे दी जाएँगी

मित्र मानुष!
क्या तुम 'ब्यूटी' हो?
क्या तुम्हें मीठी-मीठी बातें करना आता है?
लंबे बाल और गोरे गाल के मालिक हो?
है तो ठीक है 
क्योंकि सबको शिखंड़ी की जरूरत है!
पर, दुर्भाग्य कि वह वाण चलाना जानता है
अर्जुन तो कोई और है!

19.चंद प्रश्न

क्या सबकुछ ग्लानि से भरता जाएगा
या बचेगा भी कुछ शेष?
क्या दुनिया की सारी प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी
कि कुछ शेष रहेंगी?
क्या हम बारुद और हवाई हमलों के शिकार हो जाएँगे
कि आती रहेंगी बड़ी-बड़ी महामारियाँ?
क्या आने वाले दिनों में धर्म के पूजारी और बढ़ेंगे
कि पादरी-पंड़ित-मुल्ला गली नापेंगे?
क्या इंसानियत हम खोते जाएँगे
कि लड़ते रहेंगे नस्ल और जाति के नाम पर?
कि कभी होगी चैन, इस पृथ्वी को मिलेगी खुशी?
हम कहाँ आकर खड़े हो गए हैं?
किस मुहाने पर मौत किसकी पुकार रही?
कौन जान रहा है?
क्या सभ्यता यही है कि संस्कृति का विकास?
मानव स्वभाव से नफरत और घृणा का पात्र है
कि मुहब्बत और हँसी सच है?
क्या यह विचारने का वक्त नहीं है?
कि हम कहाँ और किस ओर जा रहे?
जबकि हमें जाना कहाँ था!

20.और संघर्ष जारी है!

आप चाहते हैं -प्यार बढ़े
आप चाहते हैं -उन्नति हो
आप चाहते हैं -सभी खुश रहें

दूसरा चाहता है -नफरत फैले
दूसरा चाहता है-लोग गरीब रहें
दूसरा चाहता है -जीवन में खुशी आए ही न!

और संघर्ष जारी है

लोगों में भगदड़ मचा है
कोई इधर, कोई उधर भाग रहा है
कोई हॉच-पॉच में है
कोई निर्णय ले चुका है
कि हम गरीबों के साथ रहेंगे
और इनके लिए लड़ेंगे!

जो राजदरबारी हैं
वे आमजन को एक्टिव देख कुछ ज्यादा ही सतर्क हो गए हैं
वे नहीं चाहते हैं कि गरीब आगे बढ़ें
किसान-मजदूर का राज हो
सभी निहाल रहें
और सभी के चेहरे पर मुस्कान हो!

लोग लामबंद हो रहे हैं
आंदोलन भी हो रहे हैं
कुछ सफलता भी मिल रही है
पर, लक्ष्य से काफी दूर है जनता
और कालनेमि भ्रम फैला रहा है!

21.आरा शहर

आरा मेरे भीतर है
उससे अलग होकर हम जी नहीं सकते
दिल तड़प उठता है
उसके हर्फों में समा जाना चाहता हूँ

आरा शहर मेरे गाँव की गलियों की तरह है
जो उतरता चला जाता है स्मृतियों की गहराई में
नीरज सिंह, अनंत कुमार सिंह, कुमार वीरेंद्र
मेरे मन को छुए 
एक बार नहीं; कई बार और 
मेरी कोमल भावनाएँ सँवरने लगीं

मिथलेश्वर, रवीन्द्र नाथ राय को कहाँ भूल पाता है जेहन
सुनील श्रीवास्तव, शेषनाथ पांडे जैसे मित्र
सपने में मुझे जगाते हैं
कतीरा की गली से रमना मैदान की ओर ले जाते हैं

मदन जी का हाता होते हुए मंगल पांडे पथ पर चलना
मास्को की याद दिलाता है
जिसके संबंध में कभी पढ़ा था किसी किताब में
ओम प्रकाश मिश्र की निर्मल मुस्कान 
जीवन को खुशबुओं से भर देता है

'जनपथ' पत्रिका का कार्यालय हमारे लिए बेसहारा पक्षी के लिए
नीड़ से कम कहाँ था
जहाँ विचार का पक्षी पड़फड़ाना सीखा
और मधुकर सिंह के प्यार में डुबो दिया
और आदेश दिया-जा उनके घर,एक बार मिल ले
शायद वे कल न मिले!

सुधाकर उपाध्याय का घर
लउकजाबर का स्वाद
और 'त्रिलोचन' पर बातचीत के दौरान नजदीक पाया सुधीर सुमन को
प्रमोद कुमार तिवारी, चंद्रेश्वर को देखा वही पहली बार
और इसीलिए अपने जीवन के अंततक कभी अलग नहीं हो सकता आरा से
न आरा के रेलवे स्टेशन से
न वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय से

आरा ने मुझे मिलाया राम निहाल गुंजन से
भोला जी से, कुमार नयन जी से
और भी कई बड़े  विभूतियों से
शैवाल, राकेश कुमार सिंह,चंदन पाण्डेय से, कुंदन सिंह से,
छोटा भाई रविशंकर सिंह से
इसलिए जब कोई काटता है आरा से
मुझे गहरा दुख होता है
और आरा हमारी साँस है, हमारी पहचान है
वह धड़कन ही नहीं दिल भी है
और जहाँ जाता हूँ वह मेरे साथ होता है!
साथ होते हैं सुमन कुमार सिंह और राकेश कुमार दीवाकर!

आरा शहर में उन दिनों अक्सर होती रहती थीं गोष्ठियाँ
कविता पाठ और कहानी पाठ
लिखने-पढ़ने वाले का वहाँ मान था
लोग एक दूसरे को बताते, बढ़ाते
आत्मीयता का सुंदर वातावरण जीवन को सार्थक बनाता
और न जाने पीपल के किसी नन्हें और अनजाने बीज-सा
जा गिरा था आरा में
और आरा शहर अपने अंकों में भर दुलारने लगा था
मेरे सपने को नये पंख पहना दिये
और मैं क्षितिज के उस पार तक जाने की हौसला ले
उड़ने लगा, परवाज़ भरने लगा!


22.अकस्मात् बहुत कुछ होगा

दर्द भी याद रहेंगे 
खुशियाँ भी याद रहेंगी
कई मर्तबा तूफानों से घिरा
कई मर्तबा फूलों ने स्वागत किए

ज़िदगी कबतक की है
मुझे पता नहीं
उसके रेशे-रेशे को जज्ब कर लूँ
ताकि अफ़सोस न रहे

इस सुनहरी काया का मूल्य 
पिघल जाने में है
जो पास आया है उसे गले लगाने में है

ये ऋतुएँ आई हैं
कुछ बतियाने के लिए
ये हरसिंगार के फूल लूभाने के लिए

ये मौसम कब पोलके बदलेगा
क्या पता?
ख़त पर जो अक्षर उतर आए हैं 
उन्हें देख आँखें जुड़ा जाती हैं!

कितने साल आए और कितने आएँगे
अपने अंदाजे बयान से
ख़ुद को परिभाषित करेंगे
हम भी हाथ से हाथ मिलाएँगे

खलिहान हो या मैदान
इन खेलते बच्चों से संसार सजता है!
ये रोशनी हैं कल के
ये आखें हैं हमारी

पीपल के पत्ते डोल रहे
उसकी चिकनाई ने मेरी अंगुलियों में
जादू भर दिए
माँ, कवर बना मुझे दूर से बुला रही
प्रकृति नखरे दिखा रही
वह प्यार से खिला रही

मैं मित्रो संग सोन-तट पर चला गया
कब रोहतासगढ़ की ऊँची चढ़ाई से थककर चूर हुआ
कब पुरवाई सपने में पाँव दबाने लगी
और कब मुस्कुराने लगा?

यह जिंदगी हजारों वर्ष ऐसी ही चलेगी
कहीं कुछ निशान होगा
कहीं नहीं भी
और चिराग़ बुझ-बुझकर पनप उठेगा
अकस्मात् बहुत कुछ होगा
और यह जमाना याद करेगा!

23.चलचे-चलते 

रिश्ते भी अजीबो-गरीब हैं
बनते हैं तो फूलों की बहार लगते हैं
और जब टूटते हैं तो पतझड़ की तरह मायूस-सा
बहुत कुछ पहले से कहाँ पता होता है?
पता तो तब होता है
जब वक़्त साथ छोड़ देता है
जब कोई कहता है-हम आपके नहीं हैं और इसे सच मानिए
दिल कहता है-काश, उसे कभी न पाया होता!
अपना न माना होता!
रिश्ते जीवन को पुष्ट करते हैं
अपमान उसे तोड़ता है
और घमंड़ घुन का काम करता है
और स्वाभिमान उसे गिरने से बचाता है
और प्यार उसे सींचता है, दीर्घायु बनाता है
कोई कहता है-सुनो!
मैं ध्यान से सुनता हूँ
रिश्ते कहानी की तरह उभरते हैं
कविता की तरह विभोरते हैं!
और यह कहानी, कविता क्या है?
जीवन है, जीवन की आलोचना है
जिसमें गम और खुश्बू, प्यार और विछोह
संघर्ष व नफ़रत नसीहत बनकर आते हैं
और मद्धिम लौ बनकर हमें जगाते हैं, 
पथालोकित करते हैं!
और रिश्ते नायाब तौफे हैं जो सार्थक बनाते हैं
उस जीवन को
जिसे पाने के लिए हजारों जतन करते आया है मनुष्य
दर्शनों की भूमि में
और उस देवता को धन्यवाद देता है
जिसे न कभी कोई देखा है और न कभी मिला है
जिसके संबंध में लोग कहते हैं कि रिश्ते वही बनाकर भेजता है!
जो भी हो उसकी तरलता
जीवन को मुग्ध होने का मौका देती है
और यह मुग्धता जीवन को खुशनुमा बना देती है
पर, इसकी अतिशयता
रिश्ते और जीवन को कुरूप बना देती है
जिसकी कल्पना मात्र से 
सिहर जाता है अंग-अंग, पूरा जीवन!

24.माँ की हिचकी

रात भर नींद कहाँ थी
सीने में कोई दर्द सुलग रहा था
एक बेबस माँ की आँखों के आँसू 
कहाँ रुक पाए थे?
वह सिसकती रही थी रात भर
निहारती रही थी बेटे को, उस निर्दोष बेटे को
जिसने कोई बड़ी गलती न की थी
बस,उसने इतना भर कह दिया था-
"अब मैं आपलोगों का नहीं सुनूँगा।"
माँ उसे पूरी तरह सुन कहाँ पाई थी
कि लगा उसे-अपने बाप की तरह यह भी
मेरा कुछ न सुनेगा न तवज्जो देगा!
और सटासट कनैल की पतली छड़ी से मारते चली गई थी
उसके क्रोध कुछ जब शांत हुए
वह पत्थर में बदलने लगी
और पत्थर फिर मोम में
उसे लगा कि उसने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है
इत्ते छोटे बच्चे को पीटकर 
अपने मातृत्व पर एक भारी कलंक ले ली है!
अब वह काँपने लगी थी
बच्चे के रोएँ उसे रुलाने लगे थे
वह उसे छूती 
बच्चा सिहर जाता
सिसकते हुए बच्चे को गोद में लेकर
वह कोई दूसरे लोक में
एकबारगी लगा चली गई
जहाँ से लौटना
किसी माँ को कभी किसी ने सुना नहीं
बच्चा अभी भी सिसक रहा था
उस दिन के बाद किसी ने न देखा
उस माँ को 
न माँ ही उस हिचकी को
जिसे अक्सर सुन लिया करते थे पड़ोसी 
और बच्चा दौड़ते हुए
नल से अल्यूमुनियम के लोटे में भर लाता पानी
और माँ निहाल हो जाती
और उसे लगता
कि चलो लड़का बाप पर नहीं गया है
जिंदगी को
निबाह लेगी बेटे की सूरत देख
उसे पढ़ाएगी
और गंजा-शराब से दूर रखेगी!

25.जब पिघलते चला गया

उस रात न जाने क्या हुआ
कि उसका जादुई रंग छाने लगा
और मैं पिघलते चला गया उसके प्यार में

प्यार ही जादू है कि जादू है प्यार में
इसे समझने की कोशिश मैंने कई बार की
किंतु, दिमाग राज़ी ही न था कुछ सोचने को

बहुत देर बाद मालूम हुआ कि मुझे नशा है
और उस नशे में किसी ने चुपके से
मिला दिया है धतुरा और मैं पगला गया हूँ

प्यार में पागल होना कोई नई बात नहीं है
मुझसे पहले भी कई लोग हुए थे पागल
मेरी गली में मोतीलाल मजनू की कथा 
सबके जुबान पर है-हाय रब्बा!

ये रब्बा भी न आशिकों की आशिकी को
गहरे रंग में बदल देता है
और उस रंग में प्रेमी और प्रेमिका दोनों डूब जाते हैं
और एक दूसरे को नये साल की बधाई भेजते हैं!

हमारे मोतीलाल मजनू को भी एक दिन बहुत प्यार आया
और प्रधानमंत्री के नाम खत लिख डाला
मेरे महबूब ,मेरे सनम वाली शैली में
पर, डाक तक जाते-जाते वह ख़त 
कुछ उत्साही, कुछ शरारती युवकों के हाथ लग गया
कुटुम्मस की उनलोगों ने धमकी दी,
कुछ का कहना है कि उनलोगों ने पीटा भी
तब से मोतीलाल मजनू खत नहीं लिखते!

आज जब मैं पिघल रहा था प्यार में
अंदर डर खाए जा रहा था- कहीं मेरा प्यार गलत दिशा में
अपना पाँव तो नहीं बढ़ा लिया?

26.प्यार में धोखा खाई स्त्रियाँ

स्त्री किसी फूल से कम सुंदर कहाँ होती हैं?
कहाँ कम वे वासमती चावल से लगती हैं?
इसलिए उनका होना घर को खुश्बुओं से भर देता है!

स्त्री केवड़े के फूल सा गमगम करने की ताकत रखती हैं हवा को
स्री गुलाब की खुश्बू बन जेहन में उतर जाती है और सदी गुमान करती है
कनेर की फूलों की तरह जब वे रंग पे होती हैं पूरी प्रकृति उन्हीं में समा जाती है!

स्त्री नदी की तरह जिंदगी को उत्सव में बदल डालती हैं
स्त्री जब मिट्टी को अपनी कोमल उंगुलियों से प्यार करती हैं
मिट्टी किसी देवता में बदल जाता है, धन्य हो जाता है
स्त्री जब किसी को दिल देती है वह पूरी तरह अपना सबकुछ उसमें उंडेलकर उसे बना देती हैं अद्वितीय

पर, पुरुष उसकी इस प्रकृत से कहाँ हो पाता है साक्षात्कार?
गुमान और यश से इतना अहंकारी हो जाता है 
कि उसकी आँखें देख ही नहीं पाती रवादार प्रेम को
और प्रकृति के अद्भुत दर्शन से रह जाता है वह वंचित!

स्त्री चाहती है कि वह जिस तरह अटूट और अड़िग विश्वास करती हैं जिस पर
वह भी उन पर ऐसा ही विश्वास करे जहाँ कुछ छुपा न हो
न कुछ बताने की जरुरत हो रसोई के नमक की तरह

पर, इन स्त्रियों को कहाँ मिल पाता है वैसा प्यार जैसा कि वे चाहती हैं
दुनिया सजाती हैं, और सारा कुछ होम कर देती हैं जबकि प्यार के वास्ते!
वे रात-रात भर सिसकती हैं और दिन में आँखें पोंछ लेती हैं
वह उजाले को बेधड़क काम करने देना चाहती हैं बाधा बनना उनकी प्रकृति नहीं
पर, उनके संताप, दर्द व टूटी आशाएँ इतनी दारुण होती हैं 
कि अगर ठीक-ठीक पिघल जाए तो यह पूरी प्रकृति जलमग्न हो जाए
अड़ जाएँ तो भूडोल हो जाए!

27.वायु में तरंग पैदा करो

वे पूछते हैं कि तुम कौन हो?
और जब हम बताते हैं
वे ऊपर -नीचे देखते हैं
और घूरते हैं
जैसे कोई उत्तर उनके मनमाफिक न उतरा 
गले से नीचे
लगा कोई हड्डी है जो फँस गई बीच रास्ते

ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ
वे मुझे अपने तराजू पर तौलते रहे
और हम अपने
लेकिन हमारा तौलना उन्हें भाया नहीं
जबकि वे यह भूल गए कि हम लोग अबतक तौलते आए हैं
नजर और ईमान को
राष्ट्रवादी उस झूठे बेईमान को

हम बुद्ध के देश में जन्में है
सम्राट अशोक के मगध से हैं
हमारे यहाँ गंगा बहती है
जो पापी को तनिक पसंद नहीं करती
इसलिए वह ऐसे को धोती है
पृथ्वी को भार से बचाती है
अपनी आँखों में दूसरों के लिए सम्मान लाओ
वरना धो दिए जाओगे

बड़े-छोटे का प्रमाण-पत्र बाँटने वाले
थोड़ा शरम करो
आदमी अपने सद्कर्मों से बड़ा होता है
और यह भ्रम पालना बंद करो 
कि सवाल पूछना और राज करना 
तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है
नहीं समझ में आए
तो कही दूर जाने की जरूरत नहीं
सोलह महाजनपदों का इतिहास पढ़ लो
कुछ आगे चले जाओ 
कुछ पीछे चले जाओ
या जहाँ जाना है वहाँ जाओ
तुम्हारा भ्रम टूटेगा
इतिहास की कड़ी कठोर 
आज के आम लोगों से भी जुड़ेगा

औकात बदलती है
सिंहासन जब बदलता है
जो सोए रहते हैं बहुत दिन
लोग उन्हें भूल जाते हैं
जो जगे रहते हैं, चलते रहते हैं
अपने पराक्रम से वायु में तरंग पैदा करते हैं
वे फैलते हैं
और इतिहास उनका स्वागत करता है!

समय घी है
उसे रोटी में लपेटकर खा लो
या आग में झोंक दो!

28.भूटेलन कहार की आत्मा

पढ़े-लिखे मूर्ख की कमी कहाँ है
इस धरती पे?
तलवे चाटकर 
अपनी वफादारी का हक़ अदा करते हैं
कुछ पैसे खर्च कर

कल भी कुछ गुलाम बनाए जाते रहे हैं
और आज भी
पर, वाकया यह कम दिलचस्प कहाँ रहा
कि गुलाम का बच्चा गुलामी की भाषा
बिन सीखाए सीख गया!
और आज भी बड़ी संजीदगी से 
अपना फर्ज अदा कर रहा
और मालिक खुश है!

पर, उन्हीं गुलामों के बच्चों में से
एक था भूटेलन कहार
जिसने फर्ज अदा नहीं की
और मालिक के सामने ही कह दिया
दो खरी-खरी बात
कि हम अपने गट्टे के बल पर खाते हैं
आपको मैं कुछ नहीं जानता

सप्ताह बीता भी न था
कि काली माँ के आगे
उसकी बलि दे दी गई
उसका बेटा देखा था
कि उसका बप्पा को फारसा से
कैसे मारा गया
गाँव जवार देखते रह गया
और किसी की हिम्मत नहीं हुई
कि बचा ले भूटेलन को
और उस रस्सी को खोल दे
जिससे बंधा था उसका
पीठ पीछे का हाथ

आज चालीस साल बीतने को हैं
मालिक के लड़के रहने लगे शहर में
कभी कभी वे अपनी वंश वीरता की कथा
कहने से नहीं अघाते
जिसे कहना चाहिए था दरिंदगी जीत गई थी
और मानवता हार गया था!

उस रोज पुलिस भी आई थी
खस्सी का शिकार बना था
चने की होरहा भूनी गई
भूटेलन की लाश पर
और होली भी मनी!

आज के बहुत से बच्चे इस घटना को भूल गए हैं
और यह ठीक भी है
पर, गुलाम आज भी पैदा हो जाते हैं 
भूटेलन के गाँव में, कभी कभी उसकी जाति में
तब वह आश्चर्य करता है
और नीम के गाँछ पर अटकी उसकी आत्मा रोती है!

वह गरीब था
उसका परिवार आज भी गरीब है
और गरीब की शान
कहाँ बच पाती है
वह बनूक चलाना जानता था
और लड़ना भी
पर, उसकी बनूकें शक्तिशाली बनूकों के आगे हार गई
उसके एक कत्ल ने 
उसके खनदान को हिला दिया
अब कोई हसुआ भी नहीं रखता!

क्या यह सच नहीं है
कि शासक हर बार राज जमाने के लिए ऐसा ही करता है?
भूटेलन का मालिक अँग्रेज नहीं था
इसे सभी जानते हैं!

29. कवन गति होई रे रामा

कवन गति होई रे रामा।
जनता के भरमइनी, अमीरन के बनइनी।
सिंहासन खातिर ठग कहइनी, कट गइनी आपु जमात से
बनल बानी, धरती के देवता के कृपा अउरी परताप से।
काशी अइनी, गंगा नहइनी , भइनी पाप से मुकतिया।
पंजाब में गइनी किसानन के आगे चलल न युगतिया।
राम मोरा कहले दलदल में फँसला त सुख अब भोगा।
गरीब के लइका, छछनत बाड़े, तबो जनता लटूगा!
कभी मलेछन के डर देखाईं, कभी आपन रूप चमकाईं।
हज़ार भेस में घूमेके लेहली अबतक ट्रेनिंग हो।
जनता ना जाने कि पूँजीवालन से बा सेटिंग हो।
के कमाई, के खाई, ओह से हमरा कवनो न रिस्ता बाड़े।
बाबा खुश रहस, इहे हमार व्ययाम आ धाम बाड़े!
बोला हो, बोला हो सिरी रामचंद्र कृपालु की जय!
जाने तानी, जनता में बनल रही, तरह-तरह के भय।

30.तलवार 

कुछ लोग कहते हैं
तलवार म्यान से बाहर निकाल दिए तो
इसे बाहर रहने दो
संकल्प पूरा होने तक

आखिर उनका संकल्प क्या है?
शत्रू या इंसान की हत्या
कई बार शत्रू हम बेवजह मान लेते हैं किसी को
और विचारते नहीं
अंधे हो जाते हैं हम गलत अवधारणाओं के
या हम मान लेते हैं
हम जो हैं जैसे हैं 
सब स्वीकारे, मान दे, उच्च कुल का स्वीकारे
राजा की संतति हैं
इसलिए तलवार हमारी मूठ की शोभा है!

कभी-कभी लगता है ऐसा
कि गुजरे जमाने में कितना कुछ पागलपन भरा था?
वह कभी कभी आज भी दिखाई देता है
जब कोई बात निकलती है
कुछ लोग अपनी जाति का नाम इस अंदाज में लेते हैं
और कहते हैं-" पहचान लो! "
मतलब यह कि नरमुंड़ से खेलने वाले हैं
जंगली हैं!
जंगलीपन पर इतराना?
और दूसरों को कहते हैं-" जंगलराज "

तलवार जब अहंकार में चलती है
तो समझना चाहिए जंगल राज स्थापित किया जा रहा है
और वही तलवार 
किसान, मजदूर व गरीब चलाते हैं
तो समझना चाहिए न्याय के लिए युद्ध चल रही है

दो भिन्न राजाओं द्वारा 
साम्राज्य विस्तार के वास्ते चली तलवार
आम लोगों या सैनिकों के खून से
किसी बड़े राजमहल को खड़ा करना है
जहाँ तलवार और म्यान की अपनी कोई मर्यादा नहीं होती
बस, राजा का आदेश होता है!

आज भी सामंती मानसिकता के लोग जीवित हैं
जो तलवार निकालने की शिक्षा 
बस इसलिए देते हैं
कि आम लोग डर जाएँ, दलित-पिछड़े उनसे आगे न बढ़ें!

तलवारों को जंग खाने दो
मानवता जब आबाद होगी
उसका नाम लेवा तक नहीं बचेंगे!

31.प्यार की धारा संग बह जाएँ

प्यार हमारा झूक न जाए 
ज्योति आँखों की बुझ न जाए 

ये आँखें देखती रह जाएँ
जित देखूँ तित तू ही तू नजर आए

तुझ से बिछड़कर रह नहीं सकता
मेरी ये आँखें तूझे पा जुड़ा जाए

नदियाँ, समन्दर कह रहे हैं
हम दोनो,प्यार की धारा संग बह जाएँ

तू हो तो मुस्कुरा लेता हूँ,भावनाएँ हमारी 
दिल में साँसों के सहारे उतर जाए

तू चले न जाना बिन कहे मुझसे
वरना हम जीते जी मर जाएँ

32.मन भारी-भारी क्यों है!

हल्काकर थोड़ा मन को
थोड़ा हल्काकर
बहुत ज्यादा चिंतित रहने से
क्या है कुछ मिलने वाला?
पर, सो भी मत जाना

तू जानता है
कि पिछले कई सालों में हुई है हक़मारी
बहुत पिछड़ों को
सरकारी नौकरियों में ये दिखे नहीं
हुए हैं प्रयत्न बार-बार

इनके वोट को चतुराई से भंजाया गया
रिझाया गया इनके दो-चार नेताओं को
पर, मिला क्या अपमान और निरादर के सिवा?
उत्तर प्रदेश तो जीता-जागता उदाहरण है
पिछड़ों की बच्चियों संग बलात्कार हुआ
और उन्हें मार दिया गया

मन भारी है
क्योंकि जहाँ गया दलितों की आँखों में
आँसू देखे
पिछड़े बेसहारा व बेचारा दिखे
सामंती युग पुन: लौटा हुआ नजर आया
नौजवानों में हतासा देखा

अखबारों के अधिकतर पन्ने 
कोरोना मय हो गये 
दुकान पर जाओ- सामान महंगे हो गये
क्या तो कोरोना है
और महंगाई छूप गई इस ब्रह्म वाक्य में!

क्या यह सही नहीं है
कि हम लौट रहे हैं मध्ययुग की ओर
जहाँ कुछ गिनी जातियों का प्रभुत्व
ईश्वर अनुकंपा का आधार साबित हुआ
फिर तो भगत व गाँधी की हत्या व्यर्थ चली गई?

मन पर एक बोझ है
मैं नहीं समझता कि यह अचानक है
क्या पाँच वर्षों पर एक वोट मार देना
यही लोकतंत्र है?

कहीं चीख है, कहीं चित्कार है, कहीं पढ़ा युवा बेकार है
कहीं किसानों का हाहाकार है
मजदूर मजदूरी बिना बेकार है
पेट में भूख है चूल्हा उदास है
जिसे हमने चुना वह शासक बदमाश है
आपका दुश्मन आपके आसपास है!

संपर्क: dr.hrsingh08@gmail.com
                      (कवि- हरेराम सिंह )

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