कुशवाहा वंश

कुशवाहा-वंश का इतिहास
................डॉ.हरेराम सिंह......
प्रसिद्ध इतिहासकार जेम्स कर्नल टॉड ने यह स्वीकारा है कि रामचंद्र जी के ज्येष्ठ पुत्र कुश के वंशज ही कुशवाहा/कुशवंशी कहलाए।विलियम आर.पिच ने भी लॉर्ड कुश से कुशवाहा क्षत्रिय की उत्पत्ति बताई है। गंगा प्रसाद गुप्त ने भी माना है कि कुशवाहा कुश के असली संतान है।कुश के वंशजों को बिहार में कुशवाहा व कुशवंशी,मध्य प्रदेश में कुशवाहा व कछवाहा और राजस्थान में कुछवाह व कुशवाह  और उत्तर प्रदेश में काछी ,कुशवाहा व कछवाहे कहा जाता है। आज यह भारत के प्राचीन लड़ाकू व कृषक जाति के रूप में जानी जाती है और यह लगभग पूरे भारत में फैली हुई है।


क्या हम सांस्कृतिक रूप से कंगाल बनाए जा रहे हैं?
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मुझे कभी-कभी लगता है कि राम इस देश के सांस्कृतिक-नायक हैं और वे इतने गहरे तक हम सबमें प्रवेश कर गए हैं कि इस देश को सांस्कृतिक रूप से कंगाल बनाने के सपने देखने वाले लोगों को ऐसा लगता है कि बिन राम को सिंहासन च्यूत किए,उनकी बात बनने वाली नहीं है। मेरे इस विचार से दूसरों को लग सकता है कि ये क्या कह रहे हैं। पर,मुझे ऐसा ही लगता है। वजह,राम की व्याप्ति बाल्मीकि के यहाँ है,तुलसी के यहाँ है,कबीर के यहाँ है और,और कई जगह है। दलितों का राम पर आरोप है कि उन्होंने शम्बूक को मारा,खासकर ब्राह्मणों के कहने पर। हो सकता है इस उम्र तक आते आते राम का वैचारिक स्खलन हो गया हो,पर यह वैचारिक स्खलन कवि की भी हो सकती है,इस पर जरुर विचार होनी चाहिए या उन्हीं की है,जाँच होनी चाहिए। राम ने सीता को वन गमन का आदेश बहुत ही कारुणिक है। डॉ.ललन प्रसाद सिंह को माने तो राम और रामायण को सीता की नजर से देखिए या दो यशस्वी बालक कुश और लव की नजर से देखिए, तब राम का चरित्र का नया रूप समझ में आएगा।शम्बूक बध क्यों, कैसे और किन परिस्थितियों की देन होगी,यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। आज "लव-कुश जयंती" है। सारा कुशवाहा समाज जो कुश का वंशज है,कुश के जन्म दिन पर अह्लादित है। सीता माँ के कष्ट व मेहनत से व लव-कुश की निर्भिकता से वह बहुत कुछ सीखता और मजबूत होता है। हल्के -फूलके राम से असहमति के बावजूद वह राम को भी अपनाता है,जैसे यादव कृष्ण को अपनाते हैं। फिर मुझे समझ में नहीं आता कि यहाँ की जनता कैसे भला राम और कृष्ण से,लव और कुश से अपने को अलग समझेगी? बुद्ध जिस वंश में जन्मे थे,वह है शाक्य।फिर शाक्य बुद्ध से कैसे जुदा होंगे?मुझे लगता है,इनसे अलग करना इन्हें सांस्कृतिक रूप से कमजोर या गुलाम बनाना है। हम कहीं न कहीं इनसे ताकत पाते हैं,गौरव अनुभव करते हैं।वैचारिकी के तौर पर देखें तो दिक्कत वहाँ है,जहाँ हम भारत की सांस्कृतिक सत्ता पर केवल और केवल हम ब्राह्मण को विराजमान कर हम स्वयं सांस्कृतिक-सत्ता से विमुख हो जाते हैं और ब्राह्मणवाद की सबसे शातिराना रूप है,वह यह कि इस सांस्कृतिक-शक्ति का मालिक बनने के लिए राम,कृष्ण, बुद्ध या विश्वकर्मा आदि में ईश्वरत्व का रोपण करता है और पीढ़ी दर पीढ़ी फसल काटता है। डॉ.ललन प्रसाद सिंह कहते हैं कि जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो उसमें बहुत कुछ आ जाती है,उसमें सबसे महत्वपूर्ण 'दर्शन'है।और भारत ने सत्य,अहिंसा और सामता का दर्शन दिया है। राम भी समता व न्याय निमित्त लड़ रहे हैं,बुद्ध भी समता व सत्य की बात करते हैं,और महाबीर अहिंसा की बात करते हैं। और यह भारत की वास्तविक ताकत है ,जिसे विश्व पटल पर फैलाने की जरुरत है। त्योहार भी संस्कृति का एक दूसरा रूप है। भारत में यह उत्सवधर्मिता के रूप में मौजूद है।यहां,मृत्यु का या हार का,या अंधेरा का नहीं;बल्कि जन्म,जीत व प्रकाश का सालों भर त्यौहार ही त्यौहार है,जिसे जीने की जरुरत है। और दुनिया को बताने की जरुरत है कि हम उत्सव धर्मी हैं।हमने राम,कृष्ण और बुद्ध से जीवन जीने की कला विकसित की है,जिस कला में मानव के साथ प्रेम करना परम लक्ष्य प्रतिपादित है। और यही हमारी संस्कृति है जहाँ भाई,बहन,पिता,माँ,पास-पड़ोस सभी खुशहाल रहें की कामना विद्यमान है।



क्या आपलोग भारत के 'वन डायमेंशनल'इतिहास पढ़कर बड़े हुए हैं?
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वैचारिकी का आज जो प्रवाह बना है कल यानी बिते हुए कल में क्या ऐसा ही था ,जैसे आज है?तो इसका उत्तर होगा नहीं। ठीक उसी तरह किसी समाज का इतिहास का प्रवाह भी अलग-अलग समय में अलग-अलग रहा है और उसका इतिहास लेखन उस काल-खंड़ को ध्यान में रखकर करना होगा,वरना वह इतिहास अवैज्ञानिक होगा। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढाया जाने वाला इतिहास एकाकी,पक्षपातपूर्ण और भ्रामक है। जिसे बदलने की जरुरत है। भारत में कई तरह के समाज,जाति,रीति-रीविज,त्यौहार, संघर्ष एवं जैवपारिस्थिकी है और इन सबका अलग -अलग इतिहास का समुच्चय ही इस देश का संपूर्ण इतिहास है,और इन्हें लागू करना सरकार की जिम्मेवारी भी है,पर यह पूरा नहीं हो रहा। जब एक दलित या पिछड़ा लड़का विश्वविद्यालयों में इतिहास पढ़ने जाता है,तो खुद से पूछता है कि वह कहा है?उसके जिज्ञासा का उत्तर किसी के पास नहीं होता। जबकि वह सोचता है कि वह यहाँ के मूल से है तो उसका इतिहास भी उतना ही प्रचीन होगा। पर,कारामात यह देखिए कि जो बाद के शासक बने उनका इतिहास उसकी आँख के सामने होता है और वह कहीं नहीं। जब वह चालीस पार का होता है तो उसका बेटा पूछता है,हम इतिहास में कहां हैं?हमारा प्राचीन इतिहास क्या है?हमारा मध्यकालीन इतिहास क्या है?और हमारा आधुनिक इतिहास क्या है?क्या हम मात्र बीस साल से ही इस देश में रह रहे हैं?जिसका उत्तर होता है -नहीं।
फिर उसका तीनों कालों का इतिहास क्यों नहीं लिखा गया?क्या वह हमेशा से दलित या पिछड़ा ही रहा है?नहीं न!फिर क्यों वह इतिहास में नहीं?नायक नहीं तो खलनायक ही रहता,राजा नहीं तो रंक ही रहता,पर वह रहता?इसलिए उसकी आज की पीढ़ी पर यह जिम्मेवारी बनती है ,उसके बौद्धिकों की जिम्मेवारी बनती है कि अपने समाज का तीनों काल का इतिहास लिखे। इतिहास मिटता नहीं छुपा रहता है। उसके पूर्वज वैदिक थे या श्रमण इससे भी बड़ा प्रश्न है कि पहले वह थे। बाद में यानी आधुनिक काल में वह जो भी है,उसकी एक धारा है,वह गतिशील है कि नहीं। यह मायने रखती है। पर,उसका सही-सही मूल्यांकन प्राचीन व मध्यकालीन इतिहास के अस्वीकार से नहीं;बल्कि स्वीकार से है!इसलिए यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि आपके पूर्वज राम,कृष्ण, बुद्ध, महाबीर,अशोक, घनानंद थे या इनमें से कोई नहीं;बल्कि दूसरे थे। फिर आप मध्य काल में आ जाइए,और उसका छानबीनकर फिर वर्तमान को साधने में लगिए।आपका निश्चित ही इतिहास और सकारात्मक होगा। और ऐसे सबका इतिहास मिलाकर देश का गौरवशाली इतिहास तैयार हो जाएगा। कविता, कहानी के अलावे इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र आदि पर भी लिखना बहुत जरुरी है,वरना आप जिस तरह से राजसत्ता से दूर हैं,ठीक उसी तरह इतिहास, आध्यात्मिकता,दर्शन व संघर्ष के इतिहास से भी गायब नजर आएंगे।

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कुशवंशी क्षत्रिय: बुद्ध के पहले और बुद्ध के बाद
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प्रो.(डॉ.)राम प्रकाश कुशवाहा कहते हैं कि 'कुशवाहों के इतिहास को समझना है,तो इतिहास को दो खंड में बाँटकर देखो-१.बुद्ध के पहले कुशवाहा और २.बुद्ध के बाद कुशवाहा।हालांकि यह विभाजन वे मूल क्षत्रियों को समझने के क्रम में कर रहे हैं और बताते हैं कि जो यहाँ के मूल क्षत्रिय नहीं हैं,बाहर के हैं ;उन्हें यहाँ के प्राचीन राजाओं ने भारत के भीतर प्रवेश ही नहीं करने दिए। इसलिए उनका ठिकाना देश के सीमा तक ही सीमित रह गया।आज जो बीच-बीच में दिख जाते हैं,जो अपना संबंध सीमा के आसपास से बताते हैं या हैं वे बाद के क्षत्रिय हैं।
              यहाँ के जो मूल क्षत्रिय थे वे बुद्ध के पहले अपनी पूरी पहचान के साथ जीते थे और युद्ध भी करते थे,पर नया क्षत्रिय से कभी भी अपना वैवाहिक संबंध बनाना उचित नहीं समझा,कारण कि वे हूड़ों की संतान थे। पुराने क्षत्रिय में कुशवंशी कुशवाहा भी एक थे। जो मध्य भारत के बहुत ही आक्रामक जाति थी,इन्होंने भी इन्होंने ने भी शक-हूणों को अपने ठिकाने में प्रवेश नहीं करने दिया और एकक्षत्र राज करते रहे। शाक्य भी एक कुशवंशी क्षत्रिय ही थी। जिसमें सिद्धार्थ का जन्म हुआ था जो बाद में चलकर शाक्यमुनि व बुद्ध भी कहलाए।वे गृह त्याग से पहले तक क्षत्रिय शील में ही पले-बढ़े।और कोलिय(कोयरी)के साथ जल के लिए चल रहे कोलिय और शाक्य(पूर्व के दोनों कुशवंशी)के बीच विवाद को समाप्त किया। पर,वहीं सिद्धार्थ जब विशेष ज्ञान की खोज हेतु निकले तो कई ब्राह्मण-ज्ञानियों ने ज्ञान देने से इंकार कर दिया। यह खोज का विषय है। पर,वहीं सिद्धार्थ जब बुधत्व की प्राप्ति करता है और ज्ञान का प्रसार करता है तो उसके ज्ञान से चीड़े ब्राह्मण उसके साथ-साथ उससे रलेटेड उसके पूरे वंश यानि शाक्य कुशवंशियों को निम्न कह दुष्प्रचारित करते हैं ।पर, कुशवाहा भी कम कहाँ थे!वे भी ब्राह्मणों के इस दुष्प्रचार का तनिक भी चिंता न करते हुए क्षत्रिय धर्म के मुताबिक अपने कुल के बौद्धिक व्यक्ति सिद्धार्थ के साथ रहे। और पूरी तरह बुद्धमय हो गए।मानसिकता एक दिन में न तो बनती है और न ही बदलती है।शाक्य कुशवंशियों के साथ भी ऐसा हुआ।
डॉ.राम प्रकाश कुशवाहा के मुताबिक चाणक्य चंद्र गुप्त मौर्य में क्षत्रिय गुण को देखकर ही अपना शिष्य बनाया,वरना वह बनाता नहीं। किंतु,धीरे-धीरे बुद्ध के प्रभाव की वजह कुशवाहा इतना फ्लैक्शलेबल हो गया कि उसकी क्षत्रित्व की अकड़ जाती रही और ब्राह्मण के बहकावे की वजह हिंदू समाज इनमें क्षत्रित्व देखना लगभग छोड़ दिया और ब्राह्मणों ने अपना नया क्षत्रिय 'अबू पर्वत'पर बना लिया और उसे सूर्य व चंद्र से जोड़ दिया,जबकि सूर्य व चंद्र क्षत्रिय नहीं आकाशीय पिंड थे। पर,राम राज्य के पताका पर वह राष्ट्रीय चिह्न था,जो इक्ष्वाकुओं का गौरव बढ़ा रहा था। ठीक उसी तरह चंद्र भी कुरुवंशियों के पताका पर अंकित चिह्न था,जैसे मौर्यों के पताका पर मोर चिह्न था।
फिर भी मूल कुशवंशी क्षत्रिय अपने क्षत्रित्व को समय-समय पर साबित करते रहे और यह बताते रहे कि मुझमें केवल बुद्धत्व की ही प्रेरणा नहीं हैं,बल्कि श्री राम पुत्र कुश का कुशत्व भी है। तब से वहीं अबू पर्वत वाले नया क्षत्रिय मुँहमीठू बने हुए हैं और कुशवाहों के क्षत्रित्व को नकार रहे हैं। उसी कुशवाहों को जो मानव कल्याण के निमित्त डॉ.राम प्रकाश कुशवाहों के शब्दों में 'मेरा कोई अरि नहीं वाली उपाधि कोईरी धारण'कर लिया था।जिसका अर्थ हैं मेरा कोई शत्रु नहीं। डॉ.कुशवाह कोईरी को जाति नहीं,उपाधि मानते हैं जो मूलत:कुशवंशियों की है जैसे महतो।
पर,आज कुशवाहा समाज सचेत है,जागरुक है। वह अपने क्षत्रित्व का प्रमाण डंके की चोट पर दे रहा है और वीरोचित व्यवहार न्याय के साथ कर रहा है।


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कुशवाहा क्षत्रिय: देशी नस्ल बनाम विदेशी नस्ल
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इतिहास में जिन्हें 'नव्य क्षत्रिय'(New Kshatriya) , 'शक-हूणों के वंशज' तथा 'माउंट अबू पर पवित्र या बनाए गए अग्नि वंशीय'जिस क्षत्रिय का जिक्र आता है ,उनसे हमारा राम और कुश का तनिक भी नस्लीय संबंध नहीं रहा है।राम का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ था। सीता बिहार की थीं। अत:उत्तर प्रदेश और बिहार से संबंध रखने वाले या इससे माईग्रेट कुशवंशी कुशवाहा ही देश के 'प्राचीन क्षत्रिय'(Ancient Kshatriya) हैं। और राम इनके पूर्वज हैं।कुशवाहों का जो घराना अयोध्या, कुशीनगर, कन्नौज, वाराणसी,रोहतास गढ़,मगध आदि से संबंध रखते हैं,वे कुश के असल वंशज हैं। रोहतास गढ़ ,जो विंध्य पर्वतमाला के कैमूर पहाड़ी वाले संभाग पर अवस्थित है।यहाँ कुश के वंशज कूर्म कुशवंशी ने अपनी राजधानी बनाई थी,और इन्हीं के वंशज् कैमूर पहाड़ी के उस पार (दक्षिण ओर)उतर कर मध्य प्रदेश के नरवरगढ़ में दक्षिण कौसल,कुशीनगर, रोहतास गढ़ के बाद अपना नया ठिकाना बनाया था और वहाँ से कुछ लोग राजस्थान भी माई ग्रेट किए और वहाँ भी अपना गढ़ बनाया ।आज रोहतास-गढ़ के कुशवाहे भी सतना,साकेतनगर ,मिर्जापुर आदि जगहों पर जा बसे हैं। ये सभी अपने को कुश के वंशज् यानी कुशवंशी क्षत्रिय मानते हैं,पर 'नव्य क्षत्रिय' अर्थात राजपुत को अपना नहीं स्वीकार करते ।किंतु जो लोग कुश के वंशज होने का सही दावा पेश करते हैं,उनसे बेटी-रोटी के संबंध बनाने में भी नहीं चूकते हैं। ये क्षत्रिय युद्ध के साथ कृषि कर्म को हेय नहीं समझते।इनमें से कुछ अपने को 'कोलिय अथवा कोईली या कोयरी गणराज्य'से भी खुद का संबंध बताते हैं,जो कुशवंशियों की एक प्रचीन शाखा है। ऐसा इतिहासकार शिवपूजन सिंह शास्त्री, इतिहासकार गंगा प्रसाद गुप्त, इतिहासकार डॉ.ललन प्रसाद सिंह, इतिहासकार विलियम आर.पिंच मानते हैं।
कुशवाहा-वंश का इतिहास इतना प्राचीन है कि इसमें कई उपशाखाएँ बाद में बन गईं,जो देखने में अलग लगेंगी-जैसे-शाक्य,कोलिय,कछवाहा,काछी,कोयरी,मौर्य,रेड्डी, चोल व केड़वा-पटेल;पर हैं वे एक हीं। इसे 'कुश -वंश'या 'कुशवाहा-वंश'से समझना आसान होगा,पर सिर्फ कछवाहा की नज़र से देखना थोड़ा दुष्कर! क्योंकि कुश की अपनी एक वंश परंपरा है,इसे 'kush dynasty'से समझा जा सकता है,कुशवाहा -वंश परंपरा से समझा जा सकता है;जातीय नजरिया से नहीं।कुछ लोग जब ये कहेंगे कि ये सब कछवाहे या कोयरी ही क्यों नहीं हैं,तो वे इतिहास को और इतिहास की कड़ी को नहीं समझ रहे। जब वे कुश-वंश परंपरा को समझ जाएंगे ,तब वे समझ जाएंगे कि भारत ही नहीं,मिश्र में फैला कुश-साम्राज्य और कोरिया -गणतंत्र भी कुश के वंशजों से संबंधित है। इसलिए जयपुर राज घराने की राजकुमारी दीया कुमारी ने कहा था कि केवल हम ही नहीं,और बहुत से लोग हैं जो कुश के वंशज् हैं।जो भारत और भारत के बाहर भी बड़ी संख्या में हैं और यह हमारे लिए गौरव की  बात है।
इसलिए जब इतिहास 'कुश-वंश' की बात दुहराता है,तो वह व्यापक अर्थ में दुहराता है।उसकी नज़रों में जो-जो भी कुश के वंश परंपरा के अंग हैं,वे सभी कुशवाहा हैं,कुशवाहा क्षत्रिय है। और कुशवाहा समाज का उत्थान भी इसी में है कि वह व्यापक अर्थ में 'कुशवाहा'शब्द का इस्तेमाल करे। और वह व्यापक शब्द 'कुशवाहा-वंश' है और उसकी वंश परंपरा की सारी कड़ियाँ उसकी वास्तविकता व विस्तार दोनों है।
आज कुशवाहा समाज के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक स्तर पर हासिए पर जाने का प्रमुख कारण 'तंग नजरिया' है,जहाँ वह कुशवाहा शब्द को बड़े अर्थ में न लेकर लोकल यानि क्षेत्र-विशेष तक की पहचान से जुड़कर ही अपने को धन्य समझ लेता है और इसी वजह उसका विकास बहुमुखी स्तर पर नहीं हो पाता।
इस इतिहास ग्रंथ के माध्यम से कुशवाहा -क्षत्रिय बंधु से आग्रह करता हूँ,कि वह तंग नजरिए त्यागकर संपूर्ण कुशवाहा -वंश को विस्तार दे ,मजबूत बने और प्रगति के पथ पर कदम-ताल मिलाकर कुश के गौरव को बढाए।

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कुशवाहों के कुश,उनके रीति-रीवाज और स्वतंत्रता-संग्राम
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कुश ने अपने समय में न्याय-परक व्यवस्था की थी।उसमें सबसे महत्वपूर्ण था- स्त्रियों के साथ न्याय व समानता का व्यवहार ।उन्होंने अपने ही काल में माँ सीता के निर्वासन पर प्रश्न चिन्ह खड़े किए। और अपने पिता से इसका जवाब मांगा।तब से कुश पूरे स्त्री जाति की नजरों में नायक(Hero)बन गए। औरतों कहना शुरु किया-पुत्र हो तो कुश जैसा।इसी वजह से बाद की पीढ़ी जो स्त्रियों की आई वह शादी से पूर्व सपने देखने लगीं कि काश,मेरा पति भी कुश जैसा हो। जो पुरुष माँ को इतनी इज्जत करता हो,माँ के न्याय के लिए किसी से भी लड़ने के लिए तैयार हो,वह पुरुष निश्चित ही महान है। और वह निश्चित ही पत्नी,बेटी,और अन्य स्त्रियों के साथ इज्जत से पेश आएगा और उसे न्याय दि लाएगा।इस तरह इक्ष्वाकु कुल का गौरव कुश ने बढाया।उनके युग में स्त्रियाँ काफी स्वतंत्र हुईं,उन्हें कई तरह के विशेषाधिकार दिए गए। वे समाज में अपना विचार स्वतंत्र रूप से रख सकती थीं। इस तरह'कुश साम्राज्य'बढ़ने लगा। स्त्रियों ने भी अपने हाथों से बिने 'कुश आसन'ऐसे पुरुषों को बैठने के लिए देतीं,जो स्त्री को सम्मान करता था। पर,उनके काल में ब्राह्मण जनों के विशेषाधिकार में कमी आई। क्योंकि वे ही लोग राम को डायवर्ट करने की कोशिश करते थे। रावण भी ब्राह्मण था। इसलिए कुश ने लगभग ब्राह्मणों से दूरी बना ली थी। इसका दूसरा कारण था-कृषि कर्म को तवज्जो कुश के द्वारा दिया जाना। चूंकि कुश जानते थे कि जीविका के लिए कृषि-कर्म कितना जरुरी है। उस वक्त आज की तरह उद्योग व फैक्टरियां नहीं थी। कुश ने कृषि को ही उद्योग बना दिया। तथा अपने नाना श्री जनक जी की कृषि परंपरा को आगे बढ़ाया। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि एक बार कौसलपुर में अकाल पड़ा। उस वक्त कुश ने स्वयं हल चलाया तथा इनकी पत्नी जो नागवंशी कन्या थीं,ने अपने हाथों से बीज बोया।इस कार्य से ब्राह्मण वर्ग नाखुश था,क्योंकि वे कृषि कर्म को नीच समझते थे। पर,कुश ने इसकी परवाह न की। तब से कुशवंशी कुशवाहा कृषि-कर्म को सर आँखों पर ले लिया,और समाज की सेवा की। कुश ने ही सबसे पहले 'अन्नपूर्णा देवी'की पूजा आरंभ की। और इस अन्न को 'अक्षत'माना गया।
कुश कुशवाहा समाज के लिए तो गौरव हैं ही वे अन्न समाज के लिए भी अपने कर्मों व न्याय प्रिय चरित्र के लिए आदरणीय रहे। बाल्मीकि की कुटिया में कुश-लव का जन्म हुआ था। माँ सीता ने इनके अवदान को समझा था। यह प्रभाव कुश पर भी था। इसलिए वे हमेशा आदिवासी जनों,वंचित जनों को अपना बनाकर रखा। ये कुश के खास गुण थे।
ये गुण कुशवाहा जनों में आज भी देखा जा सकता है।कुशवाहा अत्याचारी नहीं होता,वह न तो किसी को सताता है,न दुखाता है। वह राम की तरह मर्यादा में रहता है। पर,जब कोई उसकी मर्यादा भंग करने की कोशिश की जाती है,उसके लिए अपने-पराए का भेद भूल वह दंड़ भी देना जानता है। कुश और सीता की नजरिए से देखें तो कुछ समय के लिए राम भी कठघरे में खड़े हो जाते हैं,पर कुश की विशेषता है कि वे कभी भी पिता का अनादर नहीं किए। वे हमेशा माँ सीता के वचनों को याद रखा।
आज कुशवाहा समाज दुनियाभर में फैला है। अयोध्या,कुशीनगर, बनारस,रोहतासगढ़,सासाराम,समस्तीपुर, नरवरगढ़,ग्वालिअर,कन्नौज, मैहर,दौसा,आमेर आदि भारत के इनके प्रमुख ठिकाने हैं। इनकी परंपरागत भी अद्भुत है। शादी ब्याह के मौके पर ये अपने गोत्र-दयाद के सिर पर सम्मान में 'बावन गजा'पगड़ी बाँधते हैं,यह रीति बिहार के कैमूर जिले में आज भी प्रचलित है। यह पगड़ी 'कुशवाहा पगड़ी'के नाम से विख्यात है। प्रो.रामसिगासन सिंह ने इस पगड़ी के संबंध में कई रोचक जानकारियाँ मिलती हैं। यह पगड़ी आज भी कई कुशवाहों के आंगन में खूंटी पर टंगी मिल जाएगी।जिसकी अदब ब्राह्मण व ठाकुर राजपूत भी करते हैं। और वे मानते हैं कि कुशवाहा ही भारत का मूल क्षत्रिय हैं,जो राम का वंशज हैं। पर,बिहार के कुशवाहा अपने को क्षत्रिय कहलाना पसंद करते हैं,पर ठाकुर-राजपूत कहलाना पसंद नहीं करते;क्योंकि वे मानते हैं कि कुछ ठाकुरों ने मुसलमानों के यहाँ बेटी देकर पूरे हिंदू समाज को अपमानित किया है। और वे मानते हैं कि राजपुत और क्षत्रिय एक नहीं है। क्षत्रिय बहुत प्राचीन हैं,पर राजपूत सातवीं शताब्दी के बाद के हैं।इतिहासकार रोमिला थापर मानती हैं कि राजपूत शक-हूण जैसी विदेशी जातियों की संतान हैं,जबकि इतिहासकार गंगा प्रसाद गुप्त मानते हैं कि कुशवाहा क्षत्रिय हैं,जो राम के पुत्र कुश के वंशज हैं।इतिहासकार विलियम आर.पिच भी इनसे अपनी सहमती रखते हैं। विलियम आर पिच का'पिजेंट्स एंड मोंक्स इन ब्रिटिश इंडिया 'में इसे देखा जा सकता है।
कैमूर जिले में कई छड़ीदार कुशवाहा भी हुआ करते थे,जो न्याय कर्ता के तौर पर काफी ख्यात थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी कई कुशवाहों ने अपना योगदान दिया। जिसमें भोजपुर के अजायब सिंह कुशवंशी का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। से १८५७ ई.के विद्रोही ठाकुर वीर कुंवर सिंह के युद्ध शिक्षक थे। अंग्रेजों से पंगा लेने वाले यह भोजपुर के प्रथम वीर वांकुरा थे। रोहतास के शिवसागर के रामधारी सिंह कुशवाहा ने दानापुर से बक्सर जा रही ट्रेन को बिहिंया में छतिग्रस्त किया,जहाँ कुशवाहा देवी 'महतिन देई'का भव्य मंदिर है।संझौली के झड़ी सिंह महतो को अंग्रेजों ने गोली से मार दिया।काराकाट के लालमोहर सिंह कुशवंशी जो करूप के थे,छात्र जीवन में अंग्रेजों के खिलाफ काफी सक्रिय थे।
इस तरह पूरे भारत में अपने दम पर कुशवाहों ने राजपूतों से भिन्न क्षत्रिय रूप में अपनी पहचान बनाई। जिसे इतिहास सदा आदर के साथ स्मरण करता है।

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 कुशववाहों की महान परंपरा और कुश जयंती के इर्द-गिर्द 
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"कुशवाहा क्षत्रिय " के बीच एक बहुत ही सुंदर परंपरा रही है,जिसमें कुशवाहा नौजवान या युवती को "कुश जयंती" के दिन एक संस्कार ग्रहण कराया जाता है और उस संस्कार का नाम "हस्त खड़ग्" या "धनुष ग्रहण" संस्कार है। इस दिन कुशवाहा युवक या युवती स्नानादि करके पीले वर्ण के वस्त्र धारण करते हैं। श्री राम चंद्र  व सीता मां के चरणों पर पुष्पांजलि अर्पण कर "सम्राट कुश" का पूजन करते है।पूजनोपरांत पिता द्वारा युवक के हाथ में' खानदानी तलवार 'को  पूजन के बाद सम्मान के साथ ,शिश झुकाकर धारण कराया जाता है और युवती को मां द्वारा"धनुष ग्रहण"कराया जाता है। यह संस्कार विशेष पूजन विधि के बाद संपन्न होता है। पहले के युग में यह संस्कार बारह वर्ष की उम्र में ही करा दिया जाता था,पर अब अठारह वर्ष या शादी के दिन भी पूर्व में नहीं होने पर कराया जाता है। इस दिन युवक यह शपथ लेते हैं कि धरती, परिवार,जाति ,इलाका व राष्ट्र की इज्जत की सुरक्षा वे करेंगे तथा सम्मान के साथ जिएंगे तथा याचक कभी नहीं बनेंगे।इस दिन कुशवाहा लोग अपने पूर्वजों के बने रोहतास गढ़,ग्वालियर गढ़,नरवर गढ,कुशीनगर या अमेरादि जगहों पर यात्रा करते हैं और अपने सगे संबंधियों को पकवान खिलाते हैं।पूजन विधि स्वजातीय शास्त्री जी या बड़े -बुजुर्ग के अगुवाई में ही संपन्न कराई जाती है।

हालांकि, फ्रित्ज पापेनहाइम ने 'आधुनिक मानव का अलगाव"में लिखा है कि "जितना ही हम खुद को बताना चाहते हैं कि हम घड़ी की सुई को पीछे नहीं कर सकते ,हमारे लिए उस प्रवृत्ति को स्वीकार करना उतना ही मुश्किल होता है जो हमारे जीवन को कंगाल बनाती -सी लगती है और हमें उस अपनेपन के भाव से वंचित करती है,जिसके लिए हममें से अधिकांश लोग लालायित रहते हैं।" यहीं नहीं वे टॉनीज की उस समझदारी की तारीफ भी वे करते हैं जिसमें वे इस बात पर बल देते हैं कि "अतीत की कदर करने का अर्थ यह नहीं कि हमें उसकी ओर लौटने का प्रयास करना चाहिए ।" ठीक यह बात कुशवागा लोग पर भी लागू होती है कि वह अपने अतीत से उर्जा जरुर ग्रहण करे,पर अतीत में जाने का प्रयास न करे। क्योंकि घड़ी की सूई पीछे नहीं जाती।कुशवाहा के पास अपना "कुशवाहाइजम " है,जो हिंदुज्म से बहुत भिन्न व देश के सेवा-भाव वाला है, वहाँ डमरू व त्रिशुल नहीं है। वहाँ है-ढाल व तलवार,लहलहाती धरती ,बहु-बेटियों की इज्जत व राष्ट्र सुरक्षा की जिम्मेदारी, आत्मसम्मान व स्वाभिमानी प्रवृत्ति ।वह ब्राह्मण की तरह न तो याचक है और न ही ब्राह्मण-समुदाय का मानसिक गुलाम,न शूद्र-सा दलित,और न वणिक-सा दोहन-कर्ता।कुशवाहा किसी का न तो दोहन करता है और न ही खुद का दोहन होने देता है। वह परिश्रम व न्याय में विश्वास करता है और उसका यही चरित्र "कुशवाहाइजम" कहलाता है।
  कुशवाहा समाज बहुत लंबा समाज है। इसलिए इस समाज की प्रकृति कुछ जटिल व कठिन भी है,पर सादगी व न्याय दो इसके पहचान हैं। इसके संबंध शाक्य क्षत्रिय, कोलिय (कोयरी) क्षत्रिय,मौर्य क्षत्रिय,बनाफ़र क्षत्रिय व दांगी क्षत्रिय से रहे हैं। और आज इनका यह विस्तृत संबंध दूसरे के लिए आँख की किरकिरी बना हुआ है,कारण कि यह संबंध एक राजनीतिक शक्ति का रूप है,जिसे चौपटकर ही इन पर राज करने के सपने दूसरे लोग देखते हैं;पर राम,कुश,सुदर्शन,बुद्ध,अंजनी,चंद्र गुप्त मौर्य,आल्हा-उदल के होते यह सपना जल्दी पूरा नहीं होने वाला।कुशवंशी,कुशवाहा,कछवाहा,काछी ,शाक्य और कोयरी के हाथ में जबतक खड्ग है,तीर-धनुष हैं सूर्य पताका है,तबतक कोई इसका बाल बांका न कर सकेगा। राम और कुश का चरित्र कुशवाहा का असल चरित्र है। अयोध्या से कुशीनारा और रोहतास गढ़ का सफ़र इनका कम रोमांस व रोमांचकारी नहीं रहा है और न ही रोहतास गढ़ से नरवरगढ़ और आमेर का सफ़र!पर,हाल में कृषक संस्कृति का प्रमुख अंग बनकर यह श्रम को भी प्रतिष्ठित किया है,कुश का नाम रौशन किया है। कुश का साम्राज्य कुश पर्वत से लेकर मिश्र देश के कुश डायनेस्टी तक फैला है। भारत में कुशवाहा ऐसे तो सभी राज्यों में हैं,पर उत्तर प्रदेश, बिहार,मध्य प्रदेश, राजस्थान, काश्मीर व गुजरात मुख्य रहे हैं। बिहार में कुशस्थली(कनौज्जी),बनाफ़र,दांगी,पिपरपतिया,कमरोया,सांडैला,भाम,हल्दिया,जलुहार,भगतिया,साकिया,केवान आदि इनकी खापें हैं;वहीं मध्य प्रदेश में नरवरिया,छोटे रीया,बड़े रीया आदि है। राजस्थान में शेखावत, कुमावत आदि है। इस तरह यह कई इपनामों में कई जगह फैला है। पर,इसका मूल पहचान कुश के वंशज होना है। इसलिए ये लोग स्वयं को कुशवंशी कहलाना अधिक पसंद करते हैं।
            कुशवाहा समाज केवल अतीतगामी नहीं है,बल्कि वह वर्तमान को साधने में सक्षम है। वह यह अच्छी तरह जानता है कि उत्पादन के साधन जैसे-खेत,फैक्ट्री आदि पर जिनका अधिकार रहता है,वे ही अपने युग का मालिक होता है और जिनके हाथ में सत्ता और शिक्षा होती है,वहीं समाज व राष्ट्र का संचालक होता है,इसलिए वह अपना क्षात्र-धर्म का पालन करते हुए,मार्क्स जैसे महान दार्शनिक से सीखते हुए,श्रीराम व सीता मां के मर्यादाओं का पालन करते हुए,बुद्ध की धैर्य वान होकर अपने कर्तव्य पथ पर आल्हा-उदल की तरह गतिमान है!

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कुशवाहा क्षत्रियों की कुल देवियाँ और स्त्री-स्वाभिमान
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कुशवाहा क्षत्रिय भारत के प्राचीन क्षत्रियों की एक शाखा है।इसके आदि-पुरुष राम के ज्येष्ठ-पुत्र कुश हैं। कुश ने पहली दफा अन्न देवी 'अन्नपूर्णा देवी'की पूजा अपने राज्य में शुरु की।यह पूजा बिना किसी वाह्याडंबर के फसलों की कटाई के वक्त होती थी।धीरे-धीरे कुशवाहा समाज विस्तार पाते गया।लोगों के ठिकाने बदले।कुछ ने अन्य पूर्णा  देवी जी की पूजा आज भी करते हैं। इसमें कुशीनगर का इलाका मुख्य है। डॉ.ललन प्रसाद सिंह ने बताया कि उनके पूर्वज 'मातृ देवी'की पूजा करते थे,जो कुश वंश से संबंधित हैं। इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि ठिकाने बदलने के साथ ही अलग-अलग अपनी कूल देवी स्वीकार कर लिए। इतिहास में यह नई बात नहीं है।कुशवाह भगवान सिंह नरवरिया भी यह स्वीकार करते हैं कि ऐसा कई बार हुआ होगा। उनके मुताबिक आगरा के आसपास 'बोलोन वाली माता'को कुशवाहा लोग अपना कुलदेवी मानते हैं। वहीं झारखंड़ी कुशवाहा 'शाकंभरी देवी'को अपना कुल देवी मानते हैं।कन्नौज व मैहर के पास के कुशवाहा 'अल्हत माँ'को अपना कुल देवी मानते हैं। राजस्थान वाले कुशवाह 'जमवाय माता'को अपना कुल देवी मानते हैं।भोजपुर वाले 'फूल माता 'व 'महतिन देई'को अपना कुल देवी मानते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि अलग-अलग समय में अलग-अलग स्थानों पर कुशवाहा क्षत्रिय की कुल देवियाँ बदली हैं। बिहार के औरंगाबाद में 'काली माँ'को कुल देवी मानने का प्रचलन है,तो नेपाल की तराई के आस-पास'माता माहामाया'को।
यह सब सच पूछा जाए तो मातृ प्रघान समाज के प्राचीनतम अवशेष हैं। जब लोग मानते थे कि स्त्री ही शक्ति है और सृजन का आधार ।तब से विश्व के अनेक कोनों में स्त्री -शक्ति की पूजा होते आई है। और आज भी हो रही है।
मगध की बात करें तो मगहिया कुशवाहों की अधिकता थी।जलुहार कुशवाह भी बहुत थे। बुद्ध ने शायद प्राचीनता से कुशवंशी होने के कारण उरुवेला व गया के आसपास ठहरना उचित समझा था। और यहाँ प्रभाव भी उनका खूब जमा था। इससे ब्राह्मणों का धंधा ठप गया था। इसलिए मगध को अनार्यों की भूमि कहना शुरु किया और कुशवाहा को छोटी जाति से रेखांकित करना। इसमें न तो कुश के वंशज् कुशवाहों की कोई गलती थी और न ही बुद्ध की। पर,ब्राह्मण यह नहीं चाहते थे कि कुशवाहा बुद्ध को सपोर्ट करे:क्योंकि इससे उनके वर्णाश्रम व्यवस्था का खतरा था। सुजाता जलुहार कुशवाहा थी;वह ग्वाला की लड़की नहीं थी। हाँ,उसकी सखियाँ जरुर ग्वाला थी। जिसके संग अक्सर वह बाग टहलने जाती थी।बाद में कुशवाहा क्षत्रिय बंधु 'माता सुजाता'को अपना कुल देवी स्वीकार कर लिया। इस तरह सुजाता भी कुशवाहा समाज की कुल देवी हो गईं,जिसे जरहार कुशवाहा अपना मानते हैं।
कुशवाहा समाज की स्त्रियां बहुत ही स्वाभिमानी व शीलवान होती हैं। इतिहास इसका गवाह है। भोजपुर में बिहिया के पास बहुत पहले कुशवाहा -वधु 'महतिन'को उस इलाके का राजा डोला लेना चाहा था।पर,वीर महतिन ने लड़ते-लड़ते प्राणों की आहुति  दे दी,पर इज्जत गवाना उचित न समझा।कुशवाहा क्षत्रिय समाज की लड़कियों के भीतर यह स्वाभिमान आज भी देखने को मिलता है,कि वह माता सीता की अटल होती हैं। उन्हें कोई हीरे-जवाहरात से तौल नहीं होता। वह परिश्रम की रोटी खाना पसंद करती हैं,पर जी -हजूरी उनके ख़ून में नहीं।
इस तरह का उदाहरण राजस्थान, मध्य-प्रदेश,उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखंड में हजारों सुनाई देंगे।कुछ कुशवाहा स्त्रियाँ आजादी की लड़ाई में भी शिरकत की थीं;पर दुखद की,उनका उनका इतिहास नहीं लिखा गया।कुशवाहा लड़कियाँ घर,परिवार,समाज और देश चलाने की अच्छी बूता रखतीं हैं। सुप्रीम कोर्ट की वकील सीमा समृद्धि कुशवाहा ने कुशवाहा क्षत्रिय का मान पूरे देश में बढाया है। इतिहास उन्हें सदा याद रहेगा।


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भारत में जाति-व्यवस्था और कुशवाहों के गोत्र
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महर्षि कश्यप के आदि पूर्वजों को सिंधु घाटी सभ्यता के जनक के रूप में पौराणिक आख्यानों में स्वीकार किया गया है। और यह भी कि काश्यपवंश से ही सूर्यवंश,इक्ष्वाकु वंश व रघुवंश (जो बाद में अलग हो गए)की उत्पत्ति हुई हैं।(यूनियनपीडिया)
पर,कुछ लोग ब्राह्मणों की महत्ता स्थापित करने के लिए इन ॠषियों को ब्राह्मण सिद्ध करते हैं।पं.हेमंत रिछारिया ने गोत्र का अर्थ बताया है-इंद्रिय आघात से रक्षा करने वाले।गो अर्थात इंद्रिय वहीं त्र से आशय रक्षा करना है। प्राचीन काल में चार ऋषियों के नाम से गोत्र परंपरा आरंभ हुई।अंगिरा,कश्यप, वशिष्ठ और भृगु ।बाद में जमदग्नि,अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त्य इनमें नये जुड़ गए। और गोत्र का अर्थ हो गया प्राचीन ऋषियों की संतान ।पर,वंश परंपरा सबकी अपनी -अपनी ज्यों-ज्यों बढ़ी त्यों-त्यों गोत्र का अर्थ बदला और लोग अपने कुल-पूर्वजों से जुड़े लोगों को अपना गोत्र या गोतिया बताया ।और थोपी हुई ब्राह्मणी गोत्र व्यवस्था से मुक्त होने लगे।कुशवाहों के गोत्र ऋषि कश्यप के नाम पर सिर्फ कश्यप न रहा। बल्कि स्थान व कर्म के नाम पर सैकड़ों हो गए। और वह उनकी जाति की पहचान बन गई। यह तब हुआ जब वर्ण व्यवस्था टूटी और लोग जातियों में तब्दील होने लगे। और जातियाँ उप-जातियों में ।आज यह उप-जाति ही गोत्र के रूप में स्वीकार है। कुछ लोग यह भी स्वीकार करते हैं कि कश्यप ऋषि की अनेक पत्नियाँ थीं,इसीलिए कश्यप गोत्र  कई जातियों में विद्यमान है।इसीलिए आज यह 'अभद्र टिप्पणी'का रूप ले चुका है और लोग ब्राह्मणी नजरिये से गोत्र की व्याख्या पर भरोसा करना छोड़ दिया है।हालांकि उन ऋषियों के प्रति आज भी कई तरह के पूर्वाग्रह विद्यमान है।उत्तर प्रदेश में बजाब्ता 'कश्यप'एक कहारों सी जाति का रूप धारण कर लिया है।इसीलिए दूसरे लोग अपने को 'कश्यप'कहने से कतराने लगे हैं।
गोत्र के संबंध में एक और राय'गुरुकुल परंपरा से संबंध शिष्य'से है और लोग अपने को प्रचीन ऋषियों की संतान मानते है,कुछ हद तक यह परंपरा अन्य जातियों को भी स्वीकार है। इसमें प्राचीन ऋषियों के गुरुकुल से होने का गौरव भी है। पर,आदिवासियों के गोत्र भिन्न हैं। डॉ.राम कृष्ण यादव का मानना है कि आदिवासियों में गोत्र एक प्रतीक है,जिसके सहारे आदिवासियों का कुनबा की अपनी-अपनी अलग पहचान है। वे यह भी बताते हैं कि   हो सकता है कि 'गोत्र की अवधारणा'जिसे वे 'गोत'कहते हैं ,बाद में अन्य समुदायों ने इन्हीं से सीखी हो!और अपने को उनसे भी प्राचीन सिद्ध करने के लिए या उनपर आधिपत्य के लिए या विदेशी जाति भारतीय स्वयं को सिद्ध करने के लिए ऋषियों वाले गोत्र कंसेप्ट का सहारा लिया हो।
हालांकि, गोत्र के संबंध में अलग-अलग राय आना स्वाभाविक है। पर,स्थान के नाम पर भी गोत्र के नाम पड़े उनमें से कुशवाहों के अयोध्या से चलकर रोहतास आकर जो बस गए उनका गोत्र 'रोहतासगढ़िया' हो गया,कुछ लोग 'जलहार'व 'मगहिया'कुशवाहों को रोहतासगढ़िया(रोहतासगढ़ के कुशवंशी)से ही उत्पत्ति मानते हैं। क्योंकि सोन नदी के तट पर रोहतास गढ़ बसा है। और मगह(मगह)इससे सटा है। और सोन नद का जल ग्रहण कर अपने को सौभाग्यशाली समझने वाले कुशवंशी  जलहार या जलुहार गोत्र को अपने को कहने लगे। बक्सर से गए बनाफ़र कुशवंशी महोबा में महोबिया गोत्र के कुशवाहा हो गये। कन्नौज से संबंध रखने की वजह कन्नौजी गोत्र के हो गए। इसी तरह ठाकुर जातियों में जोधपुर से संबंध रखने वाले जादोन हो गए।अहीर या यादव में कृष्ण से संबंध रखने की वजह कृष्णौत हो गए आदि।
मतलब यह कि गोत्र का अबतक अर्थ विस्तार होते आया और हो सकता है और हो ।कारण,कि किसी भी जाति विशेष में गोत्रों की संख्या सदैव बढ़ी है।

बिहार में कुशवाहा के प्रसिद्ध गोत्र:

१.कुशस्थली,कन्नौजी

२.बनाफ़र

३.जलहार,ज़रहार,जलहार

४.बनाफ़र

५.गोंयता

६.हरदिया,हल्दिया,हार्डिया

७.सांढ़ैला

८.भाम

९.केवान,केवानी

१०.पिपरपतिया

११कमरोयां

१२.भगतिया

१३.मगधिया

उ.प्र.में कुशवाहों के कुशवाहों के गोत्र

१.साकिया

२.साकसेनिया

३.चौदहिया

४.सरवरिया


मध्य प्रदेश में कुशवाहों के प्रसिद्ध गोत्र

१.सिलौरिया(Siloreya)

२.सकोरिया (skoriya),

३.हार्डीया( hardiya)

४.देसवारे( desvare)

५.बड़े रिया(baderiya)

६.छोटे रिया (choteriya)

७.नरवरिया( Narwariya)

८.चंपावत (champawat)

९.तारोलिया(Taroliya)

१०.कारकोलिया( Karkoliya)

११.राणावत(Ranavat)

१२.शेखावत (Shekhawat)

१३.बामोरिया(Bamoriya)

१४.सिंघासिया(Singhasiya)

१५.बड़गईंया( Badgaiyan)

१६.नथावत(Nathawat)

१७.चुड़ावत(Chudawat)


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कुशवाहा क्षत्रिय समाज के बड़े लेखक।
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१.कुशवाहा कांत
२.जयंत कुशवाहा
३.मधुकर सिंह
४.प्रेम कुमार मणि(अंतर्राष्ट्रीय लेखक)
५.डॉ.ललन प्रसाद सिंह(आल्हा-उदल,उपन्यास के लेखक)
६.डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह(अंतर्राष्ट्रीय भाषा वैज्ञानिक)
७.बनाफ़र चंद्र
८.डॉ.हरेराम सिंह
९.डॉ.अमल सिंह'कुशवाहा'
१०.डॉ.शिव कुशवाहा
११.अलखदेव प्रसाद'अचल'
१२.कुशवंशी व्रजनंदन वर्मा(कुशवंशम् के रचयिता)
१३.शिवनारायण(ऩई धारा पत्रिका के संपादक)
१४.सुधीर सुमन
१५.राकेश कुमार दीवाकर(बड़े चित्रकार)
१७.सुभाष चंद्र कुशवाहा(अवध के किसान विद्रोह के लेखक
१८.धर्मेंद्र कुशवाहा(बनारस वाले)
१९.धर्मेंद्र कुमार (सासाराम वाले)
२०.दिनेश कुशवाह(रीवां वाले)
२१.राम प्रकाश कुशवाहा
२२.प्रमोद रंजन(असम विश्वविद्यालय)
२३.नवल कुमार(फारवर्ड प्रेस)
२४.उपेंद्रनाथ वर्मा(गया)
२५.शशि भूषण सिंह (गया केंद्रीय विश्वविद्यालय)
२६.कामेश्वर प्रसाद वर्मा(गया)



बनाफ़र चंद्र:
बनाफ़र चंद्र का नाम आपने जरुर सुना होगा। हाँ,वहीं बनाफ़र चंद्र जिनका "ज़मीन" उपन्यास जगदीश मास्टर के जीवन संघर्ष पर आधारित है,कितना कुछ सच लिखा है,उन्होंने इस उपन्यास में। ये भी मूलत:रोहतास के मूल निवासी रहे।काराकाट के श्रीरामपुर गाँव जो बाराडीह के पास है,हां वहीं श्रीराम पुर जहाँ घोड़े बहुत हैं। वहीं के थे बनाफ़र चंद्र, मूल नाम-रामचंद्र सिंह।वीर बांकुरा बनाफ़र।इनका जन्म भी इसी जुलाई के महीना में हुआ था,०२ तारीख़ सन् १९५० को।और बाद में भोपाल में रहते थे। एक बार मेरे फूफा जी के भाई से इनकी पुत्री की शादी की बात चली थी,पर हो न पाई।फूफा जी के पिता जी और बनाफ़र चंद्र दोनों एक साथ काम करते थे। मेरी इक बनाफ़र भाभी की रिश्तेदारी बनाफ़र चंद्र जी के खानदान में में ही है,जिसकी वज़ह गाँव के बहुत लोग उनके बनाफ़र चंद्र जी के परिवार को जानता है। वे भले लोग हैं। उन्हें अन्याय पसंद नहीं।आल्हा-ऊदल जैसे अटल।१९९६ ई.में इन्हें रेणु सम्मान मिला। ऐसे महान व दिलदार को हिंदी साहित्य भला कैसे भूला देगा। बस्ती और अंधेरा,अधूरा सफ़र जैसे उपन्यासों के प्रणेता !
         कुछ लोगों ने इनके उपन्यासों पर आरोप लगाया ,वहीं आरोप जो रेणु जी पर लगा था कि बिल्कुल तैयारी से नहीं लिखी गई है। हल्का चूक गए हैं। पर ,भारत की,खासकर शाहाबाद की किसान व दलित जनता उनके "ज़मीन" को पढ़ा तो आँखों से अश्रु बहने लगे। अब आप ही निर्णय लीजिए कौन चूक गये?
बनाफ़र चंद्र जी का ससुराल डेहरी में है।उनकी बेटी की शादी एअरफोर्स लड़के से हुई। वे अपनी बेटी की शादी से काफी खुश थे। उनकी नातिन बहुत बड़ी नृत्यांगना है। उनके मित्र कहानीकार सीड़ी सिंह हैं। सौभाग्य से दोनों एक ही गाँव के हैं। आज मुझे एक दुर्लभ तस्वीर हासिल हुई,जिसमें वे हैं,मैं हूं और सीड़ी सिंह हैं।इस तस्वीर के साथ किसी तरह का छेड़-छाड़ की इज़जात कानूनन नहीं दी गई है।हां,इसका साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में इस्तेमाल जरुर कर सकते हहै।बनाफ़र चंद्र २नवम्बर २०१७ ई.को हमारे बीच से चले गए।

गुलाबचंद सिंह 'आभास':
हिंदी कवि गुलाब चंद सिंह का गत २३ मार्च २०२० का निधन सासाराम में होने की सूचना अखबार द्वारा प्राप्त हुई। उनका जाना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति ।वीर भगत सिंह ,सुभाष चंद्र बोस,लेनिन बिहार के,बुद्ध, लौह -पुरुष आदि लगभग चालीस किताबों के वे प्रणेता रहे। प्रबंध काव्य व खंड काव्य लिखने में वे सिद्धहस्त थे।

वे रोहतास जिला के सासाराम निवासी थे।जिससे जिले के साहित्य प्रेमियों में शोक की लहर फैल गई। इसकी सूचना अनजबीत सिंह कॉलेज के पूर्व प्राचार्य व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ.ललन प्रसाद सिंह व शंकर कॉलेज सासाराम के प्रोफेसर डॉ.चंद्रमा सिंह द्वारा मिली।गुलाबचंद सिंह ने अबतक चालीस किताबों का सृजन किया। वे हृदय से कवि थे। बुद्ध,पटेल,भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस,जगदेव प्रसाद, अम्बेडकर आदि महापुरुषों पर खंड काव्य की रचना कर एक नया कीर्तिमान स्थापित उन्होंने किया है।
कवि आभास राष्ट्रीय चेतना के कवि हैं। यह रोहतास के लिए गौरव है।
वे सत्तर साल के थे। उनका कार्यक्षेत्र शेरशाह कॉलेज सासाराम था। उनकी तीन बेटियाँ व एक पुत्र हैं। वे बहुत ही मृदुभाषी व सरल हृदय के थे।किसानों के प्रति उनका लगाव देखते बनता था। उनके निधन पर भारतीय लेखक संघ-बिहार की ओर से शोक संदेश प्रेषित किया गया।जिसमें डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह, डॉ.रामकृष्ण यादव,डॉ.हरेराम सिंह,सीडी सिंह, सुमन कुशवाहा ने वाट्सएप के जरिये बताया कि कवि गुलाब चंद सिंह का जाना साहित्य जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है।
(साभार:"कुशवाहा-वंश का इतिहास ",डॉ.हरेराम सिंह)

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